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चैनलों पर बकबकियों की बहस!

चैनलों पर बकबकियों की बहस!

तारकेश कुमार ओझा

फिल्म गदर करीब डेढ़ दशक पहले आई थी। लेकिन यह शायद इस फिल्म की लोकप्रियता का ही परिणाम है कि अक्सर किसी न किसी चैनल यह प्रदर्शित होती ही रहती है। यूं तो फिल्म में कई रोचक व दिल को छू जाने वाले प्रसंग है। लेकिन इस फिल्म का एक सीन वर्तमान राजनीति पर भी सटीक बैठता है। जिसमें पाकिस्तानी राजनेता बने अमरीश पुरी अपनी बेटी के साथ हुई त्रासदियों में भी राजनैतिक फायदे की संभावना देखते है। वे बेटी बनी अमीषा पटेल से कहते हैं… सब्बो … हम सियासती लोग है। तुम चाहो तो इसके जरिए सियासत की सबसे ऊंची सीढ़ी तक पहुंच सकती हो। भारत – पाकिस्तान विभाजन पर बनी इस फिल्म की पटकथा बेशक सालों पुरानी घटना पर केंद्रित है। लेकिन आजाद भारत में भी हमारे राजनेता जरा भी नहीं बदले हैं। अपने देश में राजनीति दोधारी तलवार है। जिसके जरिए दोनों तरफ वार किया जा सकता है। वोटों की राजनीति का प्रश्न हो तो एक ही मुंह से आप अदालत के फैसले का सम्मान करने की बात कह सकते हैं तो परिवर्तित परिस्थितियों में इस पर अंगुली उठाने की पूरी छूट भी आपको है। इस बात का अहसास मुझे 1993 में हुए मुंबई बम धमाके में मौत की सजा पाए याकूब मेनन को ले शुरू हुई राजनीतिक पैतरों को देख कर हुआ। देश को लहुलूहान करके रख देने वाली इस मर्मांतिक घटना में 22 साल बाद अदालत का फैसला आया। लेकिन राजनीतिकों ने इस पर भी राजनीतिक रोटी सेंकने से गुरेज नहीं किया। इस मुद्दे पर काटी गई राजनैतिक फसल अब तक खलिहान में संभाल कर रखी भी जा चुकी है। कोई भी चैनल खोलो सभी पर किसी ने किसी बहाने याकूब मेनन की फांसी और इस पर राजनेताओं की प्रतिक्रिया दिखाई जाती रहती है।

अल्पसंख्यक वोटों की राजनीति करते हुए अचानक चैनलों पर छा जाने वाले एक राजनेता को यह कहते हुए जरा भी हिचक नहीं होती है कि याकूब मेनन को इसलिए फांसी की सजा दी जा रही है क्योंकि वह मुसलमान है। साथ ही वे अदालत की पूरी इज्जत करने की बात भी कहते हैं। फिर सवाल उठता है कि वे अंगुली किस पर उठा रहे हैं। क्योंकि याकूब मेनन को सजा तो अदालत ने ही दी है। वह भी पूरे 22 साल तक मामले के हर कोण से विवेचना के बाद। महाआश्चर्य कि याकूब मेनन की फांसी की सजा का विरोध करने वाला यही राजनेता कुछ दिन पहले एक चैनल पर अपने विधायक भाई पर लगे संगीन आरोपों को अदालत में विचाराधीन बताते हुए सभी से न्यायपालिका पर भरोसा रखने का दम भर रहा था। हर सवाल का वह एक ही जवाब दे रहा था … भैया मसला कोर्ट में है। और कोर्ट को कानून हमसे – आपसे ज्यादा मालूम है…। लेकिन याकूब मेनन पर प्रतिक्रिया देते समय वह यह दलील भूल गया। चैनलों पर ऐसे कई चेहरे उभरते रहे जो याकूब मेनन की फांसी की सजा पर किंतु – परंतु की रट लगाए रहे। देश में ऐसे कई ऐतिहासिक पल आए जब किसी गंभीर मसले पर प्रगतिशीलता की राजनीति करने वाले तबके ने अदालत का सम्मान करने का दम भरा और दूसरे पक्ष को इस पर तरह – तरह की नसीहतें दी। लेकिन याकूब मेनन के मसले पर इस तबके ने गोल – मोल बातों की आड़ में सजा पर सवाल उठाने से गुरेज नहीं किया। लगभग हर चैनल पर इस प्रकार की सतही बहस को देख कर किसी के भी मन में सहज ही यह सवाल उठता है कि बगैर सोचे – समझे इस पर बोलते जा रहे राजनेता क्या सचमुच याकूब मेनन से हमदर्दी या नफरत करते हैं या इस पर वे सिर्फ इसलिए बोल रहे हैं क्योंकि इसकी आड़ में उन्हें अपनी राजनीति चमकाने का मौका नजर आ रहा है। मेरा तो मानना है कि राजनेताओं की तरह ही चैनलों ने भी इस पर बहस करा कर एक बेहद संवेदनशील मसले को भुनाने की ही कोशिश की है । जिनके बारे में पहले से पता है कि मसला चाहे जितना गंभीर हो अमुक – अमुक इस पर अपनी जहरीली बातों से बाज नहीं आएगा, उसे चैनलों पर थोबड़ा दिखाने का मौका देना ही गलत है। बेहतर होता चैनल्स इस मुद्दे पर देश की आम जनता और समाज के विभिन्न वर्गों की प्रतिक्रिया दिखाते। बेहद संवेदनशील मसले पर घिसे – पिटे राजनेताओं के चैनलों पर खटराग का कोई मतलब नहीं है। इसके बदले आम जनता की प्रतिक्रिया दिखाई जानी चाहिए जिससे स्पष्ट हो सके कि राजनेताओं से इतर राष्ट्रीय़ महत्व के मसलों पर लोग क्या सोचते हैं।

(लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

इस्मत चुगताई की कहानी “घरवाली” का मंचन

प्रेस विज्ञप्ति

इस्मत चुगताई की कहानियों को मंच पर साकार कर पाना इतना भी आसान नहीं. स्त्री मन की संवेदना को जिस धागे से इस्मत ने अपनी कहानियों में छुआ है वह काबिले-मिसाल है. उसी धागे को पकड़ने की एक कोशिश में इस्मत की एक कहानी “ घरवाली” का मंचन एलटीजी ऑडिटोरियम, मंडी हाउस में शनिवार शाम किया गया. यह कार्यक्रम मिलेनियम फौंडेशन के बैनर तले हुआ. मिलेनियम फौंडेशन एक स्वयंसेवी संस्था है जो महिला कल्याण की दिशा में काम कर रही है. यह संस्था पिछले दो साल से “आधी आबादी” नाम से एक महिला केंद्रित समसामयिक विषयों पर मासिक पत्रिका भी निकाल रही है. जिसकी संपादक और मिलेनियम फौंडेशन की निदेशक मीनू गुप्ता कहती हैं- हमारी तमाम कोशिश नारी को उसके अस्तित्व से पहचान कराने के लिए ही हैं!

अहले महीने यानी कि ठीक पन्द्रह अगस्त को इस्मत की जन्मशताब्दी है. उन्हीं के सम्मान में “ घरवाली” का मंचन हुआ. ईद के मौके को और भी खास बनाता यह कार्यक्रम लगभग दो घंटे तक चला. घरवाली दरअसल एक ऐसी लड़की की कहानी है जो अनाथ है, सड़कों पर ही पली, बढ़ी और ज़माने भर के दर्द को खुद में समेटे जिंदादिली से जीती है. लोगों के घरों में काम करती है, पिटती है और कई बार उनका हवस तक मिटाती है. उसे किसी बात पर पछतावा नहीं और न ही कोई शर्मिर्दिंगी है. नाम तो उसका लाजो है लेकिन लाज-शर्म से उसका कोई परिचय नहीं. इसी क्रम में उसका नया ठिकाना बनता है मिर्ज़ा का मकान. जिसे वो बड़े ही जतन से अपना बना लेती है. मिर्ज़ा मियां अकेले रहते हैं, लाजो का साथ पाकर खिल उठते हैं. पूरे मोहल्ले की धड़कन है लाजो. चाहे पान वाला चौरसिया हो या फिर दूध वाला कन्हैया सब उसकी एक झलक पाने को लालायित रहते हैं और लाजो किसी को निराश भी नहीं करती. वो तो बहते दरिया की तरह अल्हड़, मस्त और बेपरवाह है. कोई बंधन नहीं, आज़ाद! पड़ोस की दादी के रूप में उसे एक हमदर्द भी मिलता है. जिससे वो खुल कर अपनी सारी बात कर लेती है.

मिर्ज़ा मियां लाजो के जादू से बहुत दिनों तक नहीं बच पाते और आखिरकार उनकी कामवाली उनकी घरवाली बन जाती है. यहीं से सारी मुश्किलें खड़ी होती हैं, क्योंकि जो लाजो आज़ाद थी, बेपरवाह थी अब एक बेगम है. अब उसे परदे में रहना है. लाजो को ये नयी ज़िन्दगी रास नहीं आती. वो मिर्ज़ा से शादी करके खातून तो बन जाती है पर अपने भीतर के लाजो को नहीं मार पाती. जबकि मिर्ज़ा चाहते हैं वो बंधन में रहे क्योंकि अब वो उसकी बीवी है. लेकिन, लाजो को बांधना उनके बस में नहीं! आखिरकार लाजो और मिर्ज़ा का तलाख हो जाता है. लाजो खुश है तलाख लेकर लेकिन वो मिर्ज़ा की सामाजिक प्रतिष्ठा को लेकर चिंतित भी है. हल ये निकलता है कि लाजो एक नाजायज है और उससे मिर्ज़ा की शादी भी नाजायज है और जब शादी ही नहीं हुई तो फिर तलाख कैसा? अंत में कुछ ऐसा होता है कि लाजो मिर्ज़ा के यहाँ पहले की तरह ही कामवाली बनकर रहने आ जाती है.

संवाद के स्तर पर “घरवाली” बेहद ही असरदार है. हल्की गाली-गलौज भी है लेकिन वह कहीं से भी अश्लील या फूहड़ नहीं लगती. वो कहानी का हिस्सा सी मालुम होती हैं. लाइट,ध्वनि, संगीत सब ऐसे कसे हुए कि दर्शकों को अंत तक बांधे रखता है. दिल्ली ने बहुत दिनों के बाद ऐसा कोई नाटक देखा जहां दर्शक अपनी सीट से अंत तक चिपके रहे, दो घंटे में तीन सौ दर्शकों के बीच कोई भी ऐसा नहीं था जिसने अपना फोन तक उठाया हो. लाजो का किरदार निभाती नेहा गुप्ता और मिर्ज़ा के किरदार में कोकब फरीद, दादी के किरदार में नंदिनी बनर्जी ने जैसे जान डाल दी हो. फकीर के चोले में नील ने बहुत ही अच्छे से अन्य किरदारों के साथ मिलकर ढेरों सुरीले तान छेड़े जो कहानी का हिस्सा ही लगा और ये सभी गीत लाइव गाये गए. बंगला अभिनेता और निर्देशक शुद्धो बनर्जी के निर्देशन में कुल मिलाकर एक सफल नाटक.

शुद्धो कहते हैं- आप सबने जिस स्नेह से नाटक देखा और तालियाँ बजायीं ये हमारा पुरस्कार है. आपप घर जाइए और सबको बताइए कि आज भी नाटक लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रही है ताकि वे लोग भी यहाँ पहुंचे जो इस दुनिया से अपरिचित हैं.
रिपोर्ट- हीरेंद्र झा, सहायक संपादक, आधी-आबादी

एंकर चारुल मलिक को निर्मल पांडे मेमोरियल अवार्ड

charul mallik, news anchor
​​मशहूर ऐंकर चारुल मलिक को मीडिया में बेहतरीन कार्य के निर्मल पांडे मेमोरियल अवार्ड से नवाज़ा गया
​​मशहूर ऐंकर चारुल मलिक को मीडिया में बेहतरीन कार्य के निर्मल पांडे मेमोरियल अवार्ड से नवाज़ा गया

एएफटीए अकादमी ऑफ फिल्म एंड टेलीविजन एंड आर्ट द्वारा दिल्ली के श्रीराम सेंटर ऑडिटोरियम में निर्मल पांडे मेमोरियल आर्ट फेस्टिवल का आयोजन किया गया, जिसमें समाज के विभिन्न क्षेत्रों में बेहतरीन कार्य करने वाली हस्तियों को सम्मानित किया गया। मशहूर एंकर चारुल मलिक को भी मीडिया में बेहतरीन कार्य के लिए निर्मल पांडे मेमोरियल अवार्ड दिया गया। यह अवार्ड पदमश्री अवार्डी अशोक चक्रधर के हाथों से दिया गया। न्यूज़ चैनल पर टीवी के एंटरटेनमेंट की खबरें परोसने के लिए मशहूर एंकर चारुल मलिक इंडिया टीवी पर शीघ्र प्रसारित होने जा रहे कार्यक्रम सास बहू और सस्पेंस के साथ अपनी नई पारी की शुरुआत करने जा रही है।

सीरियस न्यूज़ की दुनिया से चटपटे मनोरंजन में चारुल का अब तक सफर काफी रोमांचक रहा है। अपनी दमदार एंकरिंग और चुलबुले अंदाज़ के जरिये चारुल मलिक ने डेली सोप के शौकीन दर्शकों के बीच अपनी एक खास छवि बनाई है। पत्रकारिता व न्यूज़ ऐंकरिंग में 16 वर्षों के शानदार कॅरियर में उन्होंने दूरदर्शन के ऐक्सक्लूसिव शो ’रोज़ाना’ की मेज़बानी की जिसे बीएजी फिल्म्स ने निर्मित किया था। दिल्ली में जन्मी और चंडीगढ़ में पली बढ़ी चारुल का शुमार आज तेजी से प्रगति कर रहे मीडिया उद्योग के बेहतरीन न्यूज़ ऐंकर में किया जाता है। उन्होंने सहारा समय, एबीपी न्यूज़ और आज तक जैसे जानेमाने मीडिया समूहों के साथ काम किया है।

चारुल को एक अन्य उपलब्धि बाकियों से अलग करती है कि उनका नाम लिम्का बुक आफ रिकार्डस् में भी दर्ज है क्योंकि वह दुनिया की अकेली ऐसी ऐंकर हैं जिन्होंने स्केट्स पर लाइव इंटरव्यू किया है। वर्ष 2014 में चारुल को प्रतिष्ठित न्यू टेलीविज़न अवार्ड से भी सम्मानित किया जा चुका है। चारुल को विविध विषयों का अच्छा ज्ञान है जिनमें राजनीति, मनोरंजन, खेल व कारोबार शामिल हैं। उन्होंने कई टाक शो किए हैं तथा विभिन्न क्षेत्रों की विख्यात शख्सियतों का साक्षात्कार किया है।

मोदी और नवाज शरीफ बजरंगी भाईजान देखें!

बजरंगी भाईजान
बजरंगी भाईजान
बजरंगी भाईजान

क्या आवाम की ताकत सत्ता और सेना को डिगा सकती है? खासकर भारत पाकिस्तान के संबंधों की जटिलता के बीच। जहां सत्ता बात करती है तो पाकिस्तानी सेना हरकत अगले ही दिन सीमा पर दिखायी देने लगती है। लेकिन सिल्वर स्क्रीन पर अगर यह सपना परोसा जाता है कि आवाम की ताकत सत्ता और सेना को डिगा सकती है तो फिर कई सवाल बजरंगी भाईजान के जरीये सलमान खान ने ईद के मौके पर पैदा कर दिये हैं। पहला सवाल क्या सेना और सत्ता ने ही भारत पाकिस्तान के संबंधों को उलझा कर रखा है। दूसरा सवाल अगर हिन्दुओं के कदम बढ़े तो वे समझ जायेंगे कि मस्जिद में कभी ताले नहीं लगते क्योंकि कोई भी कभी भी वहां आ सकता है। तीसरा सवाल मानवीयता और सरोकार ही अगर मुद्दा बन जायें तो धर्म की कट्टरता भी खत्म हो जाती है।

दरअसल भारत पाकिसातन के संबंधों को लेकर सियासी नजरिये से फिल्में तो कई बनीं या कहें सियासी नजरिये को ही केन्द्र में रखकर फिल्म निर्माण खूब हुये हैं जो दोनो देशो के बीच युद्द और घृणा के खुले संकेत देकर फिल्म देखने वालो के खून गर्म कर देते हैं। लेकिन आंखों में आंसू भरकर लाइन ऑफ कन्ट्रोल को खत्म होते हुये देखने का कोई सुकून भी हो सकता है और पाकिस्तान की जो सेना चुनी हुई सत्ता से भी ताकतवर नजर आती हो वह आवाम के सामने यह कहकर झुक जाये कि हम तो आवाम के सामने तादाद छटाक भर है। इसलिये रास्ता छोड़ते हैं। यह सोच पाकिस्तान को लेकर कही फिट बैठती नहीं दिखती लेकिन यह सिल्वर स्क्रीन का नायाब प्रयोग ईद के मौके पर ही आया जब कबीर खान के निर्देशन में सलमान खान हनुमान भक्त होकर जय श्रीराम कहते हुये पाकिस्तान में चले जाते हैं और वहां की आवाम भी हनुमान भक्त के साथ खडे होकर जय श्रीराम बोलने में नहीं हिचकती। और हनुमान भक्त को भी दरगाह या मस्जिद जाने या टोपी पहनने में कोई हिचकिचाहट नहीं होती। तो क्या पाकिस्तान के साथ संबंधों को लेकर सिनेमा बदल रहा है या फिर सलमान खान ने अपने कद का लाभ उठाते हुये चाहे-अनचाहे में सिल्वर स्क्रीन पर एक ऐसा प्रयोग कर दिया जो दोनों देशों के सत्ताधारियों के जहन में कभी किसी बातचीत में नहीं उठा कि बर्लिन की दीवार की तर्ज पर भारत पाकिस्तान के बीच खड़ी दीवार को आवाम ठीक उसी तरह गिरा सकती है जैसे 9 नवंबर 1989 को बर्लिन में गिराया गया था।

संयोग ऐसा है कि जिस वक्त बर्लिन की दीवार गिरी उसी वक्त कश्मीर में आतंक की पहली बडी घुसपैठ भी शुरु हुई। महीने भर बाद 8 दिसबंर 1989 को रुबिया सईद के अपहरण के बाद सीमा पार से आतंक की दस्तक कुछ ऐसी हुई जिसने सबसे ज्यादा उसी आवाम को प्रभावित किया जिस आवाम के जरीये सिल्वर स्क्रीन बदलाव की रौ जगाना चाहता है। और वह कैसे अब एक नये युवा आंतक में बदल रही है यह घाटी में लहराते आईएसआईएस और फिलिस्तीन झंडों के लहराने से भी समझा जा सकता है। क्योंकि विदाई रमजान के दिन जिस तरह वादी में जामा मास्जिद की छत पर चढ कर फिलिस्तीन, पाकिस्तानी और आईएसआईएस के झंडे लहराये गये और झंडों के लहराने के बाद हर जुम्मे की नवाज के बाद जिस तरह सुरक्षाकरमियो पर पत्थर फेंके गये। झड़प हुई। पुलिस ने लाठिया भांजी। आसू गैस के गोले छोड़े । उसने सिर्फ कश्मीर घाटी के बदलते हालात को लेकर ही नये संकेत देने शुरु नहीं किये है बल्कि कश्मीर को लेकर नया सवाल आंतक से आगे आतंक को विचारधारा के तौर पर अपनाने के नये युवा जुनुन को उभारा।

विचारधारा इसलिये क्योकि आईएसआईएस की पहचान पाकिस्तान से इतर इस्लाम को नये तरीके से दुनिया के सामने संघर्ष करते हुये दिखाया जा रहा है और घाटी में आज कोई पहला मौका नहीं था कि आईएसआईएस की झंडा लहराया गया। इससे पहले 27 जून को भी लहराया गया था और उससे पहले आधे दर्जनबार आईएसआईएस आंतक के नये चेहरे के तौर पर घाटी के युवाओ को आकर्षित कर रहा है यह नजर आया है। तो क्या आवाम को किस दिशा में ले जाना है यह सत्ता को भी नहीं पता है । और दिमाग या पेट से जुड़े आतंक को लेकर किसी सत्ता के पास कोई ब्लू प्रिट नहीं है। क्योंकि चंद दिनो पहले ही सेना की वर्दी में वादी के युवाकश्मीरियों के वीडियो ने कश्मीर से लेकर दिल्ली तक के होश फाख्ता कर दिये थे।

और दस दिन पहले सोशल मीडिया पर हथियारों से लैस युवा कश्मीरियो की इस तस्वीर ने घाटी में आंतक को लेकर नयी युवा सोच को लेकर कई सवाल खड़े किये थे। यानी घाटी की हवा में पहली बार पढ़ा लिखा युवा आतंक को महज सीमापार आतंकवादियों से नहीं जोड़ रहा है। बल्कि आईएसआईएस के बाद फिलिस्तीन का झंडा लहराकर अपने गुस्से को विस्तार दे रहा है। यानी आतंक की जो तस्वीर 1989 में रुबिया सईद के अपहरण के बाद कश्मीर के लाल चौक से लेकर लाइन आफ कन्ट्रोल तक हिसा के तौर पर लहराते हथियार और नारों के जरीये सुनायी दे रहे थे ।और 1989 में जो कश्मीर आंतक की एक घटना के बाद दिल्ली से कट जाता था वही कश्मीर अब तकनीक के आसरे दिल्ली ही नहीं दुनिया से जुड़ा हुआ है। और घाटी ने बकायदा वोट डाल कर अपनी सरकार को चुना है। यानी 1989 वाले चुनाव दिल्ली के इशारे के आरोप भी अब नहीं है।

तो नया सवाल प्रधानमंत्री मोदी की नवाज शरीफ के साथ उफा की बैठक के मुद्दे और सिल्वर स्क्रीन पर बजरंगी भाईजान के जरीये रास्ता निकालने के बीच फंसे संबंधों का है। क्योंकि मौजूदा हालात घाटी में राजनीतिक आतंक की नई जमीन बना रहा है। जिसपर चुनी हुई सरकार का भी कोई वश नहीं है क्योंकि श्रीनगर हो या दिल्ली दोनो का नजरिया सीमा पार आंतक से आगे बढ नहीं पा रहा जबकि श्रीनगर के जामा मस्जिद पर लहराते झंडे संकेत दे रहे है कि सीरिया में सक्रिय आईएसआईएस ही नहीं बल्कि फिलिस्तीन के झंडे के जरीये इजरायल तक को मैसेज देने की कश्मीरी युवा सोच रहा है। यानी पहली बार यह सवाल छोटे पड़ रहे है कि कभी वाजपेयी को लाहौर बस ले जाने की एवज में करगिल युद्द मिला। तो -मोदी को उफा बैठक के बाद ड्रोन और सीमा पर फायरिंग मिली। यानी सियासत अगर हर बैठक के बाद उलझ जाती है तो पाकिस्तानी सेना की हरकत उभरती है । और आवाम अगर नफरत में जीती है तो आंतक के साये में धर्म को निशाने पर लिया जाता है । यानी दूरिया जिन वजहो से बनी है उन वजहों से आंख मूंद लिया जाये तो सिल्वर स्क्रीन का सपना सच हो सकता है। क्योंकि सलमान खान फिल्म में हिन्दुओं के उन तमाम जटिलताओं को जीते हुये इस्लाम की हदो में समाते है जो मौजूदा वक्त में संभव इसलिये नहीं लगता क्योकि धर्म की अपनी एक सत्ता है जो चुनी हुई सत्ता को बनाने और डिगाने की ताकत रखती है। और बजरंगी भाईजान भारत पाकिस्तान के संबंधों को लेकर धर्मसत्ता और आतंक दोनों सवालों पर मौन रहती है । यानी सवाल सिर्फ चुनी हुई सत्ता के सियासी तिकडमो और आवाम का हो तब तो लाइन आफ कन्ट्रोल का रास्ता निकाला जा सकता है । लेकिन जब सवाल सत्ता के लिये बातचीत और विचारधारा के लिये आंतक का हो चुका हो तब सरकार और सिल्वर स्क्रीन के बीच की दूरी कैसे मिट जाती है यह 10 जुलाई की उफा में बैठक के बाद के हालात और 17 जुलाई को बजरंगी भाईजान देखने के बाद कोई भी समझ सकता है कि आखिर सलमान खान ने ट्विट कर क्यों कहा कि प्रधानमंत्री मोदी और नवाज शरीफ को यह फिल्म जरुर देखनी चाहिये।

(लेखक के ब्लॉग से साभार)

मुंबई मे दो महिला समेत तीन पत्रकारों पर हमला

मुंबई में दो महिला पत्रकार समेत तीन पत्रकारों को बुरी तरह से पिटा गया. मुंबई के सांताक्रूज में गोलीबार इलाके में एक गैस सिलेंडर का विस्फोट हुआ.इस दुर्घटना को कवर करने प्रिन्ट और इलेक्टॉनिक मीडिया के रिपोर्टर तथा कैमरामैन घटनास्थल पर पहुच गए.

पत्रकार अपना काम कर रहे थे कि तभी कुछ असामाजिक तत्वों ने हाथ में चप्पल ले के एबीपी माझा की रिपोर्टर मंनश्री तथा टीवी 9 की कविता और श्रीकांत शंखपाळ को पिटना शुरू कर दिया. इन गुंडो ने पहले महिला पत्रकारों को गालियाँ दी और उनके कैमरा जबरन लेने की कोशिश की.इसका जब वहां मौजूद पुरूष पत्रकारों ने विरोध किया तो सबको पिटाई शुरू कर दी.

इस घटना की पत्रकार हमला विरोधी कृती समिति के प्रमुख एस.एम.देशमुख ने कड़ी शब्दों में आलोचना की है.इस वारदात की जानकारी पुलिस को भी दी गयी है.बाद में एक हमलावार को पुलिस ने हिरासत मे लिया है.

मुंबई जैसे महानगर मे अगर पत्रकार सुरक्षित नही होंगे तो महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाके की स्थिति क्या हो सकती है इसका अंदाज लगाना ज्यादा मुश्किल नहीं. महाराष्ट्र मे हर पाच दिन मे एक पत्रकार पिटा जाता है.इस के विरोध मे राज्य मे पत्रकार सुरक्षा कानून की मांग को लेकर पत्रकार पिछले सात साल से लड़ रहे है.

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