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जैव प्रौद्योगिकी के बारे में लोगों को शिक्षित करना मीडिया की जिम्मेदारी – अनुराग श्रीवास्तव

पत्रकारिता विश्वविद्यालय में विज्ञान सम्प्रेषण एवं जैविक सुरक्षा पर चल रही कार्यशाला का समापन

भोपाल, 15 जुलाई । जनसाधारण को जैव प्रौद्योगिकी के बारे में शिक्षित करना मीडिया की जिम्मेदारी है। यह विचार पत्रकारिता विश्वविद्यालय में चल रही दो दिवसीय विज्ञान सम्प्रेषण एवं जैविक सुरक्षा विषयक मीडिया कार्यशाला के समापन सत्र में मुख्य वन संरक्षक श्री अनुराग श्रीवास्तव ने व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि जैव अभियांत्रिकी को लेकर जो गलत अवधारणाएँ प्रचलित हो रही हैं उन्हें पत्रकारिता के माध्यम से दूर किया जा सकता है। जिन रासायनिक खादों को कृषि में उपयोग करने के लिए रोका गया है वे मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए अत्यधिक हानिकारक हैं। आज जैविक सुरक्षा दुनिया के सामने बहुत बड़ा मुद्दा है। विज्ञान के विषयों पर कार्य करने वाले संवाददाताओं में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने की आवश्यकता है। इसके साथ ही वैज्ञानिक नवाचारों को विज्ञान रिपोर्टिंग में अधिकाधिक शामिल करने की आवश्यकता है।

इस अवसर पर बोलते हुए पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृज किशोर कुठियाला ने कहा कि हमारे सामने जैविक सुरक्षा से जुड़े अनेक खतरे हैं जिनके विषय में जानकारी दिये जाने की आवश्यकता है और इसके विषय में मीडिया महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। जैविक सुरक्षा के ऊपर होने वाली इस तरह की कार्यशालाएँ जैविक सुरक्षा के खतरों एवं उससे जुड़ी जानकारी के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। विज्ञान सम्बन्धी रिपोर्टिंग के द्वारा लोगों को जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग और विज्ञान से जुड़े नवाचारों के बारे में जानकारी मिलती है। इस तरह की कार्यशालाएँ सही मायनों में जैव प्रौद्योगिकी और जैविक सुरक्षा जैसे विषयों में जानकारी देने के लिए उपयोगी हैं।

कार्यशाला के अंत में सभी प्रतिभागियों को प्रमाण-पत्र वितरित किए गए। पत्रकारिता विश्वविद्यालय में आयोजित यह कार्यशाला भारतीय जनसंचार संस्थान के सहयोग से वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की ओर से की गई। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम तथा वैश्विक पर्यावरण समूह इसमें अंतरराष्ट्रीय सहयोगी थे। इस कार्यशाला में भारतीय जनसंचार संस्थान की ओर से डॉ. गीता बोमजाई, डॉ. आनंद प्रधान तथा डॉ. रईस अलताफ ने प्रतिभागिता की। पत्रकारिता विश्वविद्यालय की न्यू मीडिया विभाग की विभागाध्यक्ष डॉ. पी.शशिकला ने इस कार्यशाला का संयोजन किया।

भाषा की भी है एक राजनीति

संजय द्विवेदी

अब जबकि भोपाल में विश्व हिंदी सम्मेलन सितंबर महीने में होने जा रहा तो एक बार यह विचार जरूर होना चाहिए कि आखिर हिंदी के विकास की समस्याएं क्या हैं? वे कौन से लोग और तत्व हैं जो हिंदी की विकास बाधा हैं? सही मायनों में हिंदी के मान-अपमान का संकट राजनीतिक ज्यादा है। हम पिछले सात दशकों में न तो हिंदी समाज बना सके न ही अपनी भाषा, माटी और संस्कृति को प्रेम करने वाला भाव लोगों के मन में जगा सके हैं। गुलामी में मिले, अंग्रेजियत में लिपटे मूल्य आज भी हमारे लिए आकर्षक हैं और आत्मतत्व की नासमझी हमें निरंतर अपनी ही जड़ों से दूर करती जा रही है। यूरोपियन विचारों से प्रभावित हमारा समूचा सार्वजनिक जीवन इसकी मिसाल है और हम इससे चिपके रहने की विवशता से भी घिरे हैं। इतना आत्मदैन्य युक्त समाज शायद दुनिया की किसी धरती पर निवास करता हो। इस अनिष्ट को जानने के बाद भी हम इस चक्र में बने रहना चाहते है।

हिंदी आज मनोरंजन और वोट मांगने भर की भाषा बनकर रह गयी है तो इसके कारण तो हम लोग ही हैं। जिस तरह की फूहड़ कामेडी टीवी पर दृश्यमान होती है क्या यही हिंदी की शक्ति है? हिंदी मानस को भ्रष्ट करने के लिए टीवी और समूचे मीडिया क्षेत्र का योगदान कम नहीं है। आज हिंदी की पहचान उसकी अकादमिक उपलब्धियों के लिए कहां बन पा रही है? उच्च शिक्षा का पूरा क्रिया -व्यापार अंग्रेजी के सहारे ही पल और चल रहा है। प्राईमरी शिक्षा से तो हिंदी को प्रयासपूर्वक निर्वासन दे ही दिया गया है। आज हिंदी सिर्फ मजबूर और गरीब समाज की भाषा बनकर रह गयी है। हिंदी का राजनीतिक धेरा और प्रभाव तो बना है, किंतु वह चुनावी जीतने तक ही है। हिंदी क्षेत्र में अंग्रेजी स्कूल जिस तेजी से खुल रहे हैं और इंग्लिश स्पीकिंग सिखाने के कोचिंग जिस तरह पनपे हैं वह हमारे आत्मदैन्य का ही प्रकटीकरण हैं। तमाम वैज्ञानिक शोध यह बताते हैं मातृभाषा में शिक्षा ही उपयोगी है, पर पूरी स्कूली शिक्षा को अंग्रेजी पर आधारित बनाकर हम बच्चों की मौलिक चेतना को नष्ट करने पर आमादा हैं।

हिंदी श्रेष्टतम भाषा है, हमें श्रेष्ठतम को ही स्वीकार करना चाहिए। लेकिन हम हमारी सोच, रणनीति और टेक्नालाजी में पिछड़ेपन के चलते मार खा रहे हैं। ऐसे में अपनी कमजोरियों को पहचानना और शक्ति का सही आकलन बहुत जरूरी है। आज भारत में निश्चय ही संपर्क भाषा के रूप में हिंदी एक स्वीकार्य भाषा बन चुकी है किंतु राजनीतिक-प्रशासनिक स्तर पर उसकी उपेक्षा का दौर जारी है। बाजार भाषा के अनुसार बदल रहा है। एक बड़ी भाषा होने के नाते अगर हम इसकी राजनीतिक शक्ति को एकजुट करें, तो यह महत्वपूर्ण हो सकता है। बाजार को भी हमारे अनुसार बदलना और ढलना होगा। हिंदी का शक्ति को बाजार और मनोरंजन की दुनिया में काम करने वाली शक्तियों ने पहचाना है। आज हिंदी भारत में बाजार और मनोरंजन की सबसे बड़ी भाषा है। किंतु हमारे राजनीतिक और प्रशासनिक समाज पर छाई उपनिवेशवादी छाया और अंग्रेजियत ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा है। देश का सारा राजनीतिक-प्रशासनिक और न्यायिक विमर्श एक विदेशी भाषा का मोहताज है। हमारी बड़ी अदालतें भी बेचारे आम हिंदुस्तानी को न्याय अंग्रेजी में उपलब्ध कराती हैं। इस समूचे तंत्र के खिलाफ खड़े होने और बोलने का साहस हमारी राजनीति में नहीं है। आजादी के इन वर्षों में हर रंग और हर झंडे ने इस देश पर राज कर लिया है, किंतु हिंदी वहीं की वहीं है। हिंदी के लिए जीने-मरने की कसमें खाने के बाद सारा कुछ वहीं ठहर जाता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी अगर आजादी के बाद कहते हैं कि लोगों से कह दो गांधी अंग्रेजी भूल गया है तो इसके बहुत साहसिक अर्थ और संकल्प हैं। इस संकल्प से हमारी राजनीति अपने को जोड़ने में विफल पाती है।

भाषा के सवाल पर राजनीतिक संकल्प के अभाव ने हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं को पग-पग पर अपमानित किया है। हिंदी और भारतीय भाषाओं के सम्मान की जगह अंग्रेजी ने ले ली है, जो इस देश की भाषा नहीं है। अंग्रेजी उपनिवेशवाद के खिलाफ हमारी लड़ाई क्या सिर्फ शासक बदलने की थी? जाहिर तौर पर नहीं, यह लड़ाई देश और उसके लोगों को न्याय दिलाने की जंग थी। स्वराज लाने की जंग थी। यह देश अपनी भाषाओं मे बोले, सोचे, गाए, विचार करे और जंग लड़े, यही सपना था। इसलिए गुजरात के गांधी से लेकर दक्षिण के राजगोपालाचारी हिंदी के साथ दिखे। किंतु आजादी पाते ही ऐसा क्या हुआ कि हमारी भाषाएं वनवास भेज दी गयीं और अंग्रेजी फिर से रानी बन गयी। क्या हमारी भाषा में सामर्थ्य नहीं थी? क्या हमारी भारतीय भाषाएं ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों को व्यक्त करने में समर्थ नहीं हैं? हमारे पास तमिल जैसी पुरानी भाषा है, हिंदी जैसी व्यापक भाषा है तो बांग्ला और मराठी जैसी समृद्ध भाषाओं का संसार है। लेकिन शायद आत्मगौरव न होने के कारण हम अपनी शक्ति को कम करके आंकते हैं। अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपनी जीवनशैली और मूल्यों को दीनता से देखना और उसके लेकर न गौरवबोध, न सम्मानबोध। अपनी माटी की चीजें हमें कमतर दिखती हैं। भाषा भी उसी का शिकार है। ऐसे में जब कोई भी समाज आत्मदैन्य का शिकार होता है तो वह एक दयनीय समाज बनता है। वह समाज अपनी छाया से डरता है। उसका आत्मविश्वास कम होता जाता है और वह अपनी सफलताओं को दूसरों की स्वीकृति से स्वीकार कर पाता है। यह भारतबोध बढ़ाने और बताने की जरूरत है। भारतबोध और भारतगौरव न होगा तो हमें हमारी भाषा और भूमि दोनों से दूर जाना होगा। हम जमीन पर होकर भी इस माटी के नहीं होगें।

दुनिया की तमाम संस्कृतियां अपनी जड़ों को तलाश कर उनके पास लौट रही हैं। तमाम समाज अपने होने और महत्वपूर्ण होने के लिए नया शोध करते हुए, अपनी संस्कृति का पुर्नपाठ कर रहे हैं। एक बार भारत का भी भारत से परिचय कराने की जरूरत है। उसे उसके तत्व और सत्व से परिचित कराने की जरूरत है। यही भारत परिचय हमें भाषा की राजनीति से बचाएगा, हमारी पहचान की अनिवार्यता को भी साबित करेगा।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

क्या इंडिया टीवी सिर्फ हिन्दुओं का चैनल है ?

बार्क द्वारा जारी नयी टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट में आजतक को पछाडकर इंडिया टीवी नंबर एक बन गया है. नंबर एक बनने पर इंडिया टीवी के द्वारा विज्ञापन जारी किया गया है. इस विज्ञापन में इंडिया टीवी हाथ में ध्वज लिए घोड़े पर सवार होकर सबसे आगे दिखता है. इसी विज्ञापन पर मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार ने कुछ सवाल उठाए हैं. (मॉडरेटर)

क्या ये रजत शर्मा की घोषणा है कि इंडिया टीवी सिर्फ हिन्दुओं का चैनल है ?

बार्क ने टेलीविजन की जो रेटिंग प्वाइंट जारी की है, उसके बाद इंडिया टीवी की ये कलाकृति है.इसमें दिखाया गया है कि बाकी के चैनल सिर्फ घोड़े हैं, उन्हें हांकनेवाला कोई नहीं है जबकि इंडिया टीवी के घोड़े पर बाकायदा एक अश्वारोही है. उसके हाथ में अंखड भारत-हिन्दू राष्ट्र के आसपास का वो ध्वज है जो कि आरएसएस की शाखाओं में सुबह-शाम लगाकर ध्वज प्रणाम किया जाता है.

ये अश्वारोही कौन है ? महाराणा प्रताप या फिर स्वयं रजत शर्मा. अगर महाराणा प्रताप हैं तो फिर एक प्रोफेशनल चैनल का इन्हें शामिल करने के पीछे दर्शकों के बीच कौन से कल्चरल कोड प्रसारित करने की मंशा रही है और अगर रजत शर्मा हैं तो सोचिए स्थिति कितनी खतरनाक है. मौजूदा सरकार न केवल बहुमत की सरकार है बल्कि कभी-कभी संविधान की आत्मा तक को हिला देनेवाली हिन्दूवादी और एक हद तक कट्टरपंथियों की सरकार है. ये टुकड़ों-टुकड़ों में जब तब साबित होता है जबकि इस चैनल ने तो सरकार की घोषणा के पहले ही घोषित कर दिया कि वो सीधे-सीधे हिन्दूवादी चैनल है. इतना साहस तो सुदर्शन चैनल भी नहीं दिखा पाता. सत्ता, राजनीति और व्यवसाय हिन्दू भावना और उसकी आस्था का आड़ी-तिरछी इस्तेमाल करते हैं तो बात समझ आती है लेकिन एक चैनल.. ?

टैम की टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट्स के बाद अब बार्क की जो रेटिंग प्रणाली आई है और जिसे टैम के मुकाबले ज्यादा पारदर्शी बताया जा रहा है, क्या ये सुविधा मुहैया करा रही है कि वो दर्शकों की बाकी स्थितियों के साथ-साथ ये भी पता लगा ले कि उसे देखनेवाले दर्शक हिन्दू है,मुसलमान,सिक्ख,इसाई या दूसरे धर्म या पंथ के. इंडिया टीवी के दर्शकों ने जब इस चैनल पर भरोसा करके देखना शुरु किया होगा तो शायद ही कभी सोचा होगा कि रेटिंग पर बढ़त मिलने के बाद ये चैनल खुद को इस शक्ल में पेश करेगा. जिस दर्शक ने उसे इस स्थिति तक पहुंचाया, उसी की भावना को इस तरह से आहत करेगा.

वैसे तो टैम और बार्क जो भी टेलीविजन के रेटिंग प्वाइंट्स जारी करती है, उसे लगभग हरेक चैनल अपने तरीके से, अपने पक्ष में इस्तेमाल करते हैं और अगर आप उनके इस्तेमाल किए जाने के पैटर्न पर गौर करें तो किसी न किसी हिसाब से सारे चैनल नं. वन जान पड़ेंगे लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है कि इंडिया टीवी ने बाकी चैनलों को विना किसी अश्वारोही के और खुद को हिन्दू ध्वज के साथ अश्वारोही सहित पेश किया है.( हालांकि चैनल का इस बात के लिए शुक्रिया भी अदा करनी चाहिए कि उसकी निगाह में बाकी के चैनल सेक्युलर हैं) चैनल कंटेंट के स्तर पर क्या खेल करता है, इसकी बात छोड़ भी दें तो वो किस माइंडसेट से काम करता है, सोचता है..इससे काफी कुछ समझ आ जाता है और हम और आप तब भी इन्हीं चैनलों को लोकतंत्र का चौथा खंभा मानने की जिद किए बैठे हैं..जो कि खुद फ्रैक्चर्ड है, खंडित है, हिन्दुस्तान की भूल भावना के खिलाफ है. ‪

विनोद कापड़ी फिल्म कोई टेलीविजन की टीआरपी शो नहीं !

पूजा सिंह

मिस टनकपुर…बोर करना बंद करो.
Miss-Tanakpur-Haazir-Hoविनोद कापड़ी किसी परिचय के मुहताज नहीं. वह उन लोगों में शुमार हैं जिन्होंने हिंदी समाचार चैनलों को टीआरपी बटोरने का फंडा सिखाया. जब यह खबर आई कि वह फिल्म बनाने जा रहे हैं तो उत्सुकता स्वाभाविक थी. खासतौर पर इसलिए क्योंकि पिछले दो तीन साल से इस फिल्म से जुड़ी एक एक घटना हम दर्शकों तक पहुंचाई जा रही थी, यह शायद फिल्म प्रमोशन की लांग टर्म रणनीति का हिस्सा रहा होगा. सोशल मीडिया पर आ रही पोस्ट व फिल्म को लेकर लिखी जा रही तमाम तरह की बातों ने उत्सुकता बहुत बढ़ा दी थी. अंतत: फिल्म मिस टनकपुर हाजिर हो देख ही डाली लेकिन मुझे कुछ खास पसंद नहीं आई. साफ कहूं तो निराश करती है पता नहीं क्यूं… संभवत: अपेक्षाएं कुछ ज्यादा रहीं या शायद फिल्म ही खराब है.

यह फिल्म खबरिया चैनलों में इस्तेमाल किए जाने वाले टीआरपी बटोरू फार्मूलों का एक ऐसा कॉकटेल है जो जुगुप्सा पैदा करता है. इन फार्मूलों को बहुत ही चतुराई पूर्वक सामाजिक संदेश के मुलम्मे में परोसा गया है. फिल्म के बारे में फेसबुक और सोशल मीडिया पर जिस तरह का प्रचार अभियान (अब तो यही लगता है क्यूंकि रैपर कुछ और था और अंदर माल कुछ और) चला उसके चलते फिल्म से ढेरों उम्मीदें बंध गईं थीं. भैंस से बलात्कार कर सच्ची खबर पर बनी यह फिल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ती गई वैसे-वैसे इसका सच जुगुप्सा की हदों तक पहुंचने लगा.

इधर जबसे अनुराग कश्यप की फिल्म गैंग्स आफ वासेपुर आई है सिनेमा बनाने वालों को लगने लगा है कि फिल्मों में यथार्थ का मतलब केवल अश्लील, जुगुप्साकारी बातें करना ही रह गया है. इस फिल्म के लिए भी यथार्थ का अर्थ है हगना, टट्टी करना, पादना, भैंस की लेना वगैरह..वगैरह.
फिल्म जिस क्लूलेस अंदाज में शुरू हुई उसी क्लूलेस तरीके से खत्म हो गई. बैकग्राउंड म्यूजिक ऐसा कि सर दर्द करने लगे, गाने भूल ही जाएं तो बेहतर और अदाकारी… राहुल बग्गा ने पूरी फिल्म में ऐसी शक्ल बनाए रखी मानो उनको टीबी का लाइलाज रोग हो गया है और डाक्टर ने बस दो तीन महीने का समय दिया है, संजय मिश्रा का दोहराव भयंकर बोर करता है. ऋषिता भट्ट पता नहीं क्या कर रही हैं फिल्म में और क्यूं कर रही हैं?

फिल्म को अगर थोड़ा बहुत झेलने लायक बनाया है तो रवि किशन, अन्नू कपूर और ओम पुरी. इन तीनों में बाद वाले दोनों नामों की काबिलियत पर तो कभी किसी को शक नहीं था. बीच-बीच में खाप-वाप वाला तड़का भी डाला गया है लेकिन निहायत चलताऊ अंदाज में. कोर्ट रूम के कुछ दृश्य अच्छे बन पड़े हैं. फिल्म अनावश्यक रूप से लंबी है. यह फिल्म मुझे अपनी देखी अब तक कि फिल्मों में केवल हिम्मतवाला और रज्जो से अच्छी लगी.

किसी निर्देशक की यह पहली फिल्म है या दूसरी, इससे दर्शकों का कोई ताल्लुक नहीं. उनकी उम्मीदें हमेशा बड़ी होती हैं… फिल्मकार को यह समझ लेना चाहिए कि फिल्म कोई टेलीविजन की टीआरपी शो नहीं है जिसमें अगर भैंस से बलात्कार, भूत प्रेत तंत्र मंत्र, खाप पंचायत आदि सारे मसाले मिला दिए जाएं तो वह हिट हो जाएगी. फिल्म को अच्छा करार देने की मेरी कोई मजबूरी भी नहीं है क्योंकि फिल्मकार न कभी मेरे बॉस रहे हैं न मित्र. बाकी यह कर्ज चुकाते कई लोग सोशल मीडिया पर देखे जा सकते हैं.

@fb

आज हर सामनेवाले को लगता है पत्रकार बिक सकता है- अंजना ओम कश्यप,आजतक

anjana om kashyap
मीडिया खबर के मीडिया कॉनक्लेव में अपना वक्तव्य देती अंजना ओम कश्यप

मीडिया खबर मीडिया कॉनक्लेव में आजतक की मशहूर एंकर अंजना कश्यप के दिए गए वक्तव्य का सार : (परिचर्चा – राजनैतिक दलों की पत्रकारिता : वॉर रूम,सोशल मीडिया और प्राइम टाइम की बहसें)

आज बाकायदा शिफ्ट में राजनीतिक पार्टियों की मीडिया सेल में लोग काम कर रहे हैं. कार्ड पंचइन-पंचआउट करके इन्ट्री होती है..आपको सामने से लग सकता है कि एक राजनीतिक पार्टी में मीडिया के लिए केवल बारह लोग काम कर रहे हैं लेकिन पीछे से इसके लिए हजारों लोग काम कर रहे हैं. एक-एक व्यक्ति को सौ-सौ ट्विटर अकाउंट हैंडल करने के काम में लगाया हुआ है. हमें जो इतनी गालियां मिलती हैं वो कहां से और किनसे मिलती है ? वो भी हमारी एक-एक खबर पर, फुटेज पर, फ्लैश पर नजर रख रहे हैं..उन्हें सैलरी भी इसी बात की मिल रही है..हमने राजनीतिक दलों की नींद हराम तो कर दी है और इन सबके बीच आपको लगता है मीडिया बिका हुआ है, मालिक मिले हुए हैं..ऐसा मत कहिए, खोट हममे भी है..आप पत्रकारिता का इतनी आसानी से दाह संस्कार मत कीजिए.

वसुंधरा राजे सिंधिया ने अपनी सुरक्षा के लोगों को साफ हिदायत दी हुई है कि कोई भी पत्रकार १५ मीटर के दायरे से अंदर आए, उसे उठाकर बाहर कर दो, आप उनसे बाइट नहीं ले सकते.इन सबके बीच पत्रकारिता हो रही है.. मुझे आज की पत्रकारिता से कोई निराशा नहीं है. पहले हम फीमेल एंकर को पॉलिटिकल स्टोरी की बुलेटिन करने नहीं दिया जाता था. हमने मना करना शुरु किया कि मैं सिर्फ एन्टरटेन्मेंट पर शो नहीं करुंगी हमने अपनी लड़ाई खुद लड़ी है और आज हम जिस तरह की पत्रकारिता कर रहे हैं, हमें खूब अच्छी नींद आती है. ‪#‎मीडियाखबर2015‬

वक्तव्य का सार – न्यूज चैनलों पर किसी सियासी दबाव होने की बात को खारिज करते हुए आज तक चैनल की तेज-तर्रार एंकर अंजना ओम कश्यप ने कहा कि हम राजनीतिक दलों से सवाल करने और उनकी नींद हराम करने की स्थिति में हैं और हम ऐसा कर रहे हैं, इसलिए यह कहना उचित नहीं होगा कि हम रेंग रहे हैं। मीडिया में महिलाओं के प्रति परंपरागत सोच को कठघरे में खड़ा करते हुए उन्होंने कहा कि उन्हें राजनीतिक पत्रकारिता करने के लिए लड़ना पड़ा।)

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