रिपोर्टर अजीत कुमार बन गए अजीत अंजुम, माँ ने कहा : ये अंजुम-पंजुम क्या होता है?

ajit anjum, tv journalist
अजीत अंजुम, मैनेजिंग एडिटर, न्यूज़24

अजीत अंजुम,मैनेजिंग एडिटर,न्यूज24 के यादों के झरोखे से(पांचवी किस्त) : माँ – पिताजी की नाराजगी के बीच रिपोर्टर अजीत कुमार बन गए अजीत अंजुम – पढ़िए पूरी दास्तान

पटना के अखबारों में स्टाफ रिपोर्टर की नौकरी ही मेरे सपने की आखिरी मंजिल सी लगती थी
आज प्रेमचंद (बुधवार) जयंती है और मुझे स्कूल के दिनों में प्रेमचंद की किसी कहानी ( नाम याद नहीं , अगर आप बता दें तो बेहतर) में पढ़ी एक लाइन याद रही है -‘ किस्मत की फटी चादर को कोई रफूगर नहीं होता …’ मैं किस्मत – विस्मत को बहुत ज्यादा नहीं मानता लेकिन आज जब अपने माजी में झांकता हूं तो लगता है कि हम जैसे लोगों का साथ किस्मत ने भी दिया. हमारी किस्मत की चादर फटी नहीं थी …तभी तो सही लोग मिले , सही दोस्त मिले …सही बॉस मिले …सही मौके मिले … वरना हमसे ज्यादा प्रतिभाशाली और उर्जावान न जाने कितने साथी पत्रकारिता के पथरीले रास्ते की तमाम तरह की अड़चनों में कहीं फंसे और जो वो कर सकते थे , नहीं कर पाए. तकदीर और तदबीर दोनों जरुरी है ….

सही वक्त पर सही जगह पहुंचने में कई बार तकदीर साथ देता है और उस जगह पर जमने के लिए तदवीर जरुरी है …( मुझे अब भी लगता है कि बहुत कुछ कर सकता हूं लेकिन नहीं कर पा रहा हूं तो कहीं न कहीं तकदीर आड़े आ रही है ) .

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मेरे सामने दोनों मिसालें है …ऐसे लोगों की जो सिर्फ किस्मत की खा रहे हैं और ऐसे लोगों की भी , जिनमें बहुत दम है ( या था ) लेकिन वक्त ने उन्हें मौके नहीं दिए. पहले बेगूसराय , फिर मुजफ्फरपुर और फिर पटना में लिखते – पढ़ते हुए और साइकिल के टायर घिसते हुए ( चप्पल मैंने नहीं घिसे ) कई बार मैं सोचता था कि ये रास्ता मुझे कहां ले जाएगा ….अनजाने मंजिल के मुसाफिर की तरह पत्रकारिता के रास्ते पर चल तो पड़ा था लेकिन दिमाग में अपने भविष्य को लेकर कोई रुप रेखा नहीं बन पाती थी …वो उम्र भी दिमाग से कम दिल से ज्यादा काम लेने वाली थी. पटना के अखबारों में स्टाफ रिपोर्टर की नौकरी ही मेरे सपने की आखिरी मंजिल सी लगती थी …..लेकिन जल्द ही ये लगने लगा था कि ये नौकरी भी आसानी से नहीं मिलने वाली .

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जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूं कि पिता जी मुजफ्फरपुर में सब जज थे और मैं उनके साथ मुजफ्फरपुर में रहता था . जब भी बेगूसराय जाता तो वहां के मठाधीश जिला संवाददाता हमें हीन भाव से देखा करते. ..कुछ इस अंदाज में कि कुछ दिन बाप के दम पर कूद लो बाबू , कुछ होने वाला नहीं है तुम्हारा…. उनमें से ज्यादातर मेरे पिता की उम्र के थे . कई उनके साथी भी …एक दर्जन संवादाताओं में से आठ या नौ ब्राह्मण थे …यानी झा और मिश्रा जैसे सरनेम वाले. ऐसे सभी सीनियर संवाददाता ( जिनकी उम्र मुझसे करीब करीब दोगुनी थी), जो सीनियर सिटीजन होने की तरफ तेजी से अग्रसर हो रहे थे , खुद को जिले की पत्रकारिता का पीठाधीश्वर समझते और हमें नश्वर …इन सब की पहुंच जिलाधिकारी , एसपी और एसडीओ के अंत :पुर तक थी …इस पहुंच के बूते इनके हौसले की बैट्री हमेशा इतनी चार्ज होती थी कि जमीन की तरफ देखते भी कम थे . कई ऐसे भी थे , जो चीनी , सिमेंट और कोयले का परमिट दिलाकर ठीक ठाक कमा लेते थे . मेरी उम्र 21-22 साल की थी .उम्र का तकाजा कहिए कि कही न कहीं एक ठसक अपने भीतर भी थी . तभी तो इनमें से ज्यादातर से हमारे रिश्ते कुछ ऐसे ही थे कि आप होंगे महान , हम भी कम नहीं…न वो हमें कुछ समझते , न हम उनकी महानता का नमन करने को तैयार होते …

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बिहार के कई जिलों से लेकर पटना तक में उन दिनों पत्रकारिता में एक किस्म के ब्राह्मणवाद का वर्चस्व था ( ऐसा मुझे लगता है) . बिहार की पत्रकारिता में ब्राह्णवाद की उत्तपत्ति आर्यावर्त और इंडियन नेशन जैसे अखबारों के गर्भगृह से हुई थी . दरभंगा महाराज ( ब्राह्मण) इन अखबारों के मालिक हुआ करते थे . सूबे की राजनीति में जिला से लेकर राजधानी तक विदेश्वरी दूबे , राधा मोहन झा , जगन्नाथ मिश्र जैसे पंडित नेताओं का बोलबाला था …तो नेता भी मिश्रा और पत्रकार भी मिश्रा …अच्छा कांबिनेशन बनता था ….कई पत्रकार ऐसे थे , जिन्हें मैं हमेशा हाथ में पनबट्टा और बैलून की तरह फूले हुए मुंह में पान की गिलौरी दबाए देखता था …किसी से पूछता तो पता चलता कि फलां झा जी है …फलां मिश्रा जी हैं …पटना में भी झा , ओझा , मिश्रा , पांडेय और पाठक भरे पड़े थे . मैं ये नहीं कह रहा हूं कि इसमें अच्छे पत्रकार नहीं थे. कई अच्छे पत्रकार थे . बिहार से लेकर दिल्ली के अखबारों और मैगजीन में खूब लिखते थे और उनका बड़ा नाम था …( मेरा इशारा उनकी तरफ है , जो पत्रकार होकर भी पत्रकारिता कम नेताओे की चाटूकारिता ज्यादा करते और नेताओं के प्यादे की तरह खबरें ज्यादा लिखा करते थे ) .

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पटना से जब पाटलिपुत्र टाइम्स, दैनिक हिन्दुस्तान और नवभारत टाइम्स का प्रकाशन शुरु हुआ तब पत्रकारिता की तस्वीर बिल्कुल बदल गयी. एक से एक तेज तर्रार रिपोर्टर सामने आए . उनकी पहचान बनी . ( इसमें कई झा , पांडेय . मिश्रा और ओझा भी शामिल हैं ) . इन अखबारों के आने के बाद पत्रकारों की नियुक्तियों में जातिवाद ( ब्राह्मणवाद ) काफी हद तक कम हुआ . तब उर्मिलेश , वेद प्रकाश वाजेपयी , श्रीकांत , नवेंदु, मणिमाला , आनंद भारती , गंगा प्रसाद , इंदु भारती , प्रभात रंजन जैसे कई प्रखर पत्रकारों का बोलबाला हुआ . पान की गिलौरी दबाए और वेस्पा – चेतक स्कूटर पर घूमते हुए नेताओं का पादुका पूजन करने वाले बहुत से पत्रकारों की सत्ता को इन लोगों ने चुनौती भी दी और पाठकों के बीच इनकी पहचान भी बनी….

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अजीत कुमार को अजीत अंजुम में तब्दील होना पिता जी को आसानी से हजम नहीं हुआ, मां ने कहा – ये अंजुम – पंजुम क्या होता है?

अजीत कुमार बने अजीत अंजुम
अजीत कुमार बने अजीत अंजुम

मुजफ्फरपुर में ग्रेजुएशन की पढ़ाई के दौरान हमें जब हमें लिखने – पढ़ने का चस्का लगा तब मेरा नाम अजीत कुमार हुआ करता था .इसी नाम से पाटलिपुत्र टाइम्स के लिए मुफसिल संवाददाता के तौर पर लिखा करता था . एक दिन एक दोस्त ने कहा कि इस नाम के बहुत से लोग होंगे तो कई बार कॉमन होने की वजह से समझ में नहीं आएगा कि किस अजीत कुमार ने ये लेख लिखा है …तो फिर हमने पहली बार सोचा कि कुमार को किसी उपनाम से रिप्लेस किया जाए . एक महीने तक हमने कई तरह के उपनाम आजमाए . वो दौर भी ऐसा था कि उपनामों का बहुत चलन था . साहित्य लेकर पत्रकारिता तक में …बहुत से ऐसे पत्रकार भी थे , जिन्होंने कुमार को अपने नाम का पहला हिस्सा बना दिया था . जैसे कुमार रंजन , कुमार दिनेश , कुमार प्रशांत , कुमार संजय …ऐसी लंबी लिस्ट है . कुछ ऐसे युवा भी थे , जो उपनामों के साथ अखबारों में लिख रहे थे . किसी ने प्रकाश लगा रखा था तो किसी ने सुमन. रोज अखबारों में मैं भी खोजता कि क्या बचा कि मैं अपने नाम के साथ चिपका लूं ,ताकि मेरे नाम से मिलता – जुलता दूसरा न हो . तभी एक साथी ने एक दिन सुझाव दिया कि आप अंजुम रख लो …पता किया कि इसका मतलब क्या होता है तो बताया गया – तारा …और अंजुमन का मतलब तारों की महफिल …( वैसे मैंने इस पर कोई खास रिसर्च नहीं किया ) . मुझे अजीत के साथ अंजुम का कांबिनेशन ठीक लगा तो मैंने तुरंत अपना नामकरण कर लिया – अजीत कुमार अंजुम .

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पिता जी को तब पता चला , जब पाटलिपुत्र टाइम्स में मेरी एक रिपोर्ट छपी . अजीत कुमार को अजीत अंजुम में तब्दील होना पिता जी को आसानी से हजम नहीं हुआ . पिताजी बुरी तरह चौंके और चकराए , कि ये क्या हो गया …मां ने कई बार मुंह बनाकर कहा कि ये अंजुम – पंजुम क्या होता है …( उन दिनों बिहार में पंजुम जर्दा बहुत पॉपुलर हुआ करता था , पता नहीं अब है भी या नहीं ) . परिवार वाले ये भी कहते कि ये नाम तो मुसलमान की तरह लगता है …कुछ दोस्तों ने भी कहा कि अंजुम – पंजुम क्यों रख रहे हो लेकिन मैंने तय कर लिया था कि अब तो मेरा नाम यही रहेगा …फिर एक दिन एक दोस्त ने कहा कि अजीत कुमार अंजुम नाम थोड़ा बड़ा है सो कुमार हटा दो ..मैंने कुमार को तत्काल प्रभाव से त्याग दिया . तो इस प्रकार से मैं अजीत अंजुम हो गया . अंजुम होने की वजह से दिल्ली में भी बहुत से लोग मुझे समय समय पर मुस्लिम समझते रहे . कई बार मुझे लोग ईद और बकरीद का मुबारकवाद भी देते रहे . लोगों ने ऐसे त्यौहारों के समय दावत भी मांगी …

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1990- 92 में अमर उजाला में रिपोर्टिंग करते वक्त मैं बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी और मुस्लिम संगठनों से जुडी बीट देखा करता था . कई मुस्लिम नेता मुझे अपने ही कौम का मानते . दाढ़ी भी थी ही . मुश्किल तब होती , जब बाबरी एक्श कमेटी के प्रेस कान्फ्रेंस में या जामा मस्जिद के शाही इमाम के यहां ( उस दौर में मंदिर आंदोलन की वजह से रोज जाना होता था ) मुझे उर्दू की प्रेस रिलीज दे दी जाती ये कहकर कि अमा यार आप तो अपने हो …कई बार रमजान के महीने में मुझे रोजा रखने की नसीहतें भी दी जाती . मैं चुपचाप मुस्कुराता और बहाने करता कि रिपोर्टिंग की वजह से मैं रोजा नहीं रख पा रहा हूं …और तो और गीताश्री ने भी मुझे शुरु में मुस्लिम ही समझा था . मुझे याद है कि 97 में मैं रू-ब-रू कार्यक्रम की शूटिंग के लिए इस्लामवाद गया था . नवाज शरीफ पीएम थे . उनसे हमारी मुलाकात हुई . उन्होंने नाम सुनकर कहा – आप तो आधे हिन्दू – आधे मुसलमान हो …मैंने भी हामी भरी लेकिन उनकी उत्सकुता कम नहीं हुई और पूरी कहानी जानने के बाद ही बात दूसरी दिशा में बढ़ी .

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पाकिस्तान के अखबारों में हम लोगों के वहां होने और नवाज शरीफ , इमरान खान और बेनजीर भुट्टो पर बनने वाले कार्यक्रम के संदर्भ में कई खबरें छपी और हर खबर में मेरा नाम अजीत अंजुम की जगह अजीज अंजुम लिखा गया .ऐसे कई तजुर्बे हैं . 2002 में जब मैं आजतक न्यूज चैनल में था तो एक्जीक्यूटिव प्रोडयूसर सोना झा एक दिन हमारे पास आयी .तब रमजान का महीना चल रहा था . सोना झा ने प्यार और उलाहना भरे अंदाज में कहा – अजीत आप रोजा नहीं रखते …मैंने हंस कर मना कर दिया …लेकिन बकरीद में फंस गया , जब उन्होंने बकरीद की दावत देने और मटन खिलाने की बात की . तब मुझे लगा कि अब इन्हें अपनी असलियत न बतायी तो कहीं मुहर्रम में कुछ फरमाइश करने न आ जाएं …तो मैने अपने ढंग से उन्हें अंजुम की कहानी समझा दी . फिर वो हमेशा अजीत ही कहती रहीं …मैं अजीत अंजुम कैसे बन गया ..इस सवाल का जवाब अब भी कुछ लोग पूछते रहते हैं …शुरुआती दिनों में दिल्ली में कई लोग पूछते तुम शायर तो नहीं …और मैं कहता – नहीं चलिए वापस पटना लौटते हैं .

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पटना में हम अपने तीन – चार सीनियर पत्रकारों ( प्रमोद दत्त , संतोष सुमन , अरुण सिंह जैसे ) और दोस्तों ( रवि प्रकाश ,विकास रंजन, विकास मिश्र , अभिमनोज जैसे ) के साथ पटना में हुकार प्रेस के पास वाली चाय की दुकान पर शामें गुजारते …और भविष्य की योजनाएं ..किस मैगजीन में क्या लिखना है और किसे लिखना है , इस पर चर्चा करते . उस जमाने में दिल्ली और मंबई से निकलने वाली नामचीन पत्रिकाओं के अलावा भोपाल से शिखरवार्ता , कलकत्ता से परिवर्तन ( रविवार छोड़कर राजकिशोर ने ये पत्रिका निकाली थी , कुछ ही अंकों बाद बंद हो गयी ) , दिल्ली से खुशबू समेत कई पत्रिकाएं निकलती थी . रविवार ,माया , दिनमान , भूभारती, धर्मयुग और साप्ताहिक हिन्दुस्तान में हम जैसे नये नवेलों के लिए गुंजाइश न के बराबर होती थी क्योंकि पटना से नियमित लिखने वाले लोग इन पत्रिकाओं के लिए काम करते थे . फिर भी दिनमान और रविवार में तीन चार छोटी खबरें उन दिनों मेरी छपी थी .

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हमारे दोस्तों में एक बात पर सहमति थी कि एक पत्रिका में अगर कोई एक साथी लिख रहा है ,तो दूसरा नहीं लिखेगा . ये दोस्ती ही हमें संबल देती …बहुत मस्ती भरे दिन थे पटना में …कभी फांकाकसी की नौबत नहीं आयी ..अखबारों – पत्रिकाओं में छपी रिपोर्ट के बदले मिलने वाले 50-75-100 रुपये हमें एक लाख के बराबर लगते थे …जिस दिन कहीं से पैसे मिलते उस दिन हम पांच रुपये प्लेट मटन जरुर खाते …पटना में अपने चार पत्रकार दोस्तों के साथ जिस इलाके में हम रहते थे , वहां एक रिमझिम होटल हुआ करता था . जहां ग्राहकों के लिए दो सिस्टम था. एक पेट सिस्टम और एक प्लेट सिस्टम. पेट सिस्टम में तीन रूपये ( ठीक से याद नहीं ) में भर पेट और प्लेट सिस्टम में हर रोटी के हिसाब से पैसे देने होते थे ….वहां खाने वालों में थे Abhimanoj Mcij , Vikas Mishra रवि प्रकाश , रत्नेश कुमार , सधीर सुधाकर और मैं …..( जारी )

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नोट- ये मेरा संस्मरण भर है . मन में आया तो लिखना शुरु किया . कुछ साथियों ने कहा कि और लिखिए तो और लिख दिया है …इसमें तथ्यों से कोई छोड़खानी नहीं की गयी है . (फेसबुक से साभार)

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