दिल्ली में रिपोर्टिंग का जिम्मा मिला और लगा कि जिंदगी का एक सपना साकार हो गया : अजीत अंजुम

अजीत अंजुम (मैनेजिंग एडिटर, न्यूज24) के यादों के झरोखे से :पहली किस्त, गुरु पूर्णिमा पर विशेष : गुरू पूर्णिमा वगैरह को न तो मैं मानता हूँ, न ही मेरे लिए इस दिन की कोई खास अहमियत है …जैसे साल के बाकी दिन वैसे ही आज का दिन ….फिर भी उन साथियों का शुक्रिया , जिन्होंने प्यार और स्नेह का तोहफा संदेश के रुप में भेजा है …बहुत से लोग फेसबुक पर अपने – अपने गुरुजनों को याद कर रहे हैं तो मुझे लगा मैं भी दिल्ली में संघर्ष के उन दिनों को याद करके उन वरिष्ठों को याद करुं , जिन्होंने दिल्ली में पांव जमाने में मेरी मदद की ….सबसे पहले प्रबाल मैत्र और राम बहादुर राय.

1989 की गर्मियों में पटना से चंद्रेश्वर जी ( अब रांची में हैं ) की चिट्ठी लेकर दिल्ली आया था …चंद्रेश्वर जी ने प्रबाल मैत्र और राय साहब के नाम की चिट्ठी दी थी …लब्बोलुआब ये था कि अजीत अंजुम नाम का ये उत्साही लड़का दिल्ली जा रहा है , इसकी हर संभव मदद करने की कोशिश करें …उन दिनों दोनों लोग दिल्ली के गोल मार्केट इलाके में रहते थे …मैं दोनों से एक ही दिन मिला …प्रबाल जी और राय साहब ने हौसला आफजाई की ….कहीं नौकरी दिलवाने में मदद का भरोसा दिया …फिर प्रबाल जी ने चौथी दुनिया साप्ताहिक के कार्यकारी संपादक सुधेंदु पटेल के नाम एक चिट्ठी लिखकर दे दी ….उन दिनों चौथी दुनिया का दफ्तर शकरपुर इलाके में हुआ करता था और उसके नामचीन संपादक संतोष भारतीय विश्वनाथ प्रताप सिंह की पार्टी जनमोर्चा के साथ देश भर में दौरे कर रहे थे और चुनाव लड़ने की तैयारी भी …खैर , मुझसे कुछ देर की बातचीत के बाद मुझे दो तीन दिन में 2000 की नौकरी मिल गयी …दिल्ली में रिपोर्टिंग का जिम्मा मिला और लगा कि जिंदगी का एक सपना साकार हो गया ….प्रबाल जी मेरे लिखा पढ़ते रहे और 1990 में जब वो अमर उजाला के दिल्ली ब्यूरो चीफ बने तो मुझे अपनी टीम का हिस्सा बनने का मौका दिया ….राजेश रपरिया ने भी उन दिनों मेरी मदद की ….कभी कभी सोचता हूं कि शुरुआती दिनों मे ये लोग मददगार न तो पता नहीं क्या होता ……प्रबाल मैत्र को आज की पीढ़ी के बहुत से पत्रकार नही जानते होंगे लेकिन उस जमाने में रविवार और माया से लेकर चौथी दुनिया तक राजनीतिक विश्लेषक के तौर पर उनके लिखे की जबरदस्त चर्चा होती थी …..वो मेरे लिए गार्जियन की तरह रहे …डांटा भी …हड़काया भी …और सच कहूं तो उनसे मैं बहुत डरा भी …जिस दिन कोई खबर हाथ नहीं लगती थी , उस दिन आईएऩएस बिल्डिंग में अमर उजाला के दफ्तर में जाने की हिम्मत नहीं होती थी ….दरवाजे में दाखिल हुए नहीं कि प्रबाल जी पूछते – हां अजीत , क्या खबर है …मैं मेरी हवा खराब हो जाती थी ..क्या बोलूं ..कैसे बोलूं …आज तो हाथ खाली है …कोई खबर नहीं ……प्रबाल जी , बहुत याद करता हूं आपको ….

पटना से लेकर दिल्ली तक …मेरी जिंदगी में ऐसे कई लोग हैं , जो मेरे लिए गुरु की तरह हों या न हों लेकिन गुरु से बढ़कर हैं ….क्योंकि उन सभी ने पत्रकारिता के पथरीले रास्ते पर आगे बढ़ने का हौसला दिया …फेसबुक पर लोगों का गुरु प्रेम देखकर मुझे भी उन सबकी याद आ रही है …87-88 में मुजफ्फरपुर में ग्रेजुएशन की पढ़ाई करते वक्त मैं पटना के अखबारें लिखने लगा था . उन दिनों मुजफ्फरपुर और पटना में कई ऐसे वरिष्ठ पत्रकार थे , जिन्होंने मेरा हौसला बढ़ाया . पटना के अखबार ‘आज’ , ‘पाटलिपुत्र टाइम्स’, ‘जनशक्ति’ में मेरी रिपोर्ट खूब छपा करती थी ….आज के राज्यसभा सांसद अली अनवर उन दिनों जनशक्ति में स्टाफ रिपोर्टर हुआ करते और मैं 50 रुपए प्रति रिपोर्ट लिखने वाला फ्रीलांसर ….आज के कार्यकारी संपादक अविनाश चंद्र मिश्रा ने मुझे बहुत मौके दिए ….. उन दिनों उर्मिलेश , वेद प्रकाश वाजपेयी , अनिल चमड़िया , सुरेन्द्र किशोर, जयशंकर गुप्त सरीखे तेज तर्रार पत्रकारों का बिहार में बहुत नाम था ..मुझे याद है कि 87 -88 में इन सबसे परिचय होने भर से मैं अपना कॉलर कितना ऊंचा कर लिया करता था ….सुरेन्द्र किशोर जनसत्ता के ब्यूरो चीफ थे , आज भी जनसत्ता समेत कई अखबारों में लिखते रहते हैं …उनकी सादगी , विनम्रता और ईमानदारी का तब भी कायल था और आज भी हूं …इन सबका लिखा पढ़ता था और इन जैसा ही बनने की ख्वाहिश पाले दिन भर पटना में भटकता रहता था ….मां को लगता था कि पता नहीं बेटा किस रास्ते पर जा रहा है …. उन दिनों हिन्दुस्तान में छपने की मेरी बहुत तमन्ना थी लेकिन कभी पूरी नहीं हो पायी ….विपेन्द्र जी फीचर संपादक थे …उनके केबिन के पास बहुत बार खड़ा रहा लेकिन हर समय दुखी आत्मा की तरह उन्होंने मुझे देखा और इतना दुखी कर दिया कि कभी ठीक से कहने की हिम्मत नहीं हुई कि एकाध रिपोर्ट तो छाप दीजिए ….लेकिन मुझे लगता है कि कमी मुझमें ही रही होगी कि उन्हें या तो मेरा चेहरा पसंद नहीं आया या उन्हें मुझसे कोई गुंजाइश नहीं दिखी ….

आज मैं भी उन वरिष्ठों और दोस्तों को याद कर रहा हूं ,जिन्होंने दिल्ली में पांव जमाने और जमे रहने में मदद की ….जुलाई – अगस्त 89 की बात रही होगी …प्रबाल मैत्र से मैं उनके गोल मार्केट वाले घर में मिला . उन्हें बताया कि मैं दिल्ली में कुछ महीनों से संघर्ष कर रहा हूं …जनसत्ता समेत कुछ अखबारों में छप भी रहा हूं लेकिन नौकरी चाहता हूं . उन्होंने कहा कि तुम राजेश रपरिया से मिलो . लोकसभा चुनाव के कवरेज के लिए अमर उजाला का दिल्ली डेस्क बन रहा है . राजेश रपरिया तुम्हें अमर उजाला में काम दिलवा सकते हैं . प्रबाल जी ने खुद राजेश जी को फोन किया . मैं राजेश रपरिया से बंगाली मार्केट में मिला . नाम तो रविवार में उनका पढ़ता रहा था …बंगाली मार्केट में राजेश रपरिया ने मुझे अमर उजाला के मालिक – संपादक अतुल महेश्वरी से मिलवाया और अमर उजाला के चुनाव डेस्क के लिए मेरा चयन हो गया . कस्तूरबा गांधी के अंसल भवन में दफ्तर था . मैं वहां कुछ और पत्रकारों से मिला , जो वहां आते जाते रहते थे . उन्हीं दिनों अच्युतांदन मिश्रा ( जिन्हें देखते ही श्रद्धा से पांव छूने का जी चाहता है ) से मिला और अजय चौधरी , अजय शर्मा समेत कई पत्रकारों से ….अमर उजाला में मूलत डेस्क राइटिंग ही कर रहा था . कई हिन्दी अंग्रेजी अखबारों से खबरों का कोलाज बनाकर नया लेख लिखना होता था ..जो राज्यवार चुनावी खबरें वाले पन्ने पर छपता था …..पटना से उखड़कर वाया गुवाहाटी दिल्ली आया था और यहां छपने लगा था ….तभी एक दिन प्रबाल जी मुझे बुलाया और चौथी दुनिया के कार्यकारी संपादक सुधेंदु पटेल जी के नाम की चिट्ठी देकर उनसे मिलने को कहा . मुझे उम्मीद नहीं थी कि इस चिट्ठी का कोई असर होगा और मुझे नौकरी इतनी आसानी से मिल पाएगी लेकिन सुधेन्दु जी भले आदमी थे . फ्रेंच कट दाढ़ी और बहुत हंसमुख…मस्तमौला टाइप …मैं उनसे मिला …उन्होंने कुछ सवाल – जवाब किए …मेरी कुछ कतरनें देखी और दो दिन बाद मुझे नौकरी दे दी ….चौथी दुनिया मेरी पहली नौकरी थी ( गुवाहाटी में दो महीने एक अखबार में रहा लेकिन वो अखबार निकलने से पहले ही मैं वहां से निकल लिया …मालिक ने ही एक गर्भस्थ अखबार की भ्रूण हत्या कर दी थी ) . 1987- 88 में चौथी दुनिया का बहुत नाम हुआ करता था …कमर वहीद नकवी , राम कृपाल सिंह , वीरेन्द्र सेंगर , अजय चौधरी , आलोक पुराणिक समेत कई अच्छे पत्रकार चौथी दुनिया में थे ….जिन दिनों मैं वहां पहुंचा , उन दिनों इनमें से ज्यादातर चौथी दुनिया छोड़ चुके थे ….उन्हीं दिनों मैं चंचल जी से मिला ….चंचल जी संतोष भारतीय के फ्रेंड , फिलॉसफर और गाइड थे ….जब – तब उनके साथ शाम को राज बब्बर को चौथी दुनिया के दफ्तर में देखा करता था ….कभी हिम्मत नहीं हुई कि चंचल जी निकटता की कोशिश करुं क्योंकि उनका प्रभामंडल , उनका जलवा मुझे अपनी ओर खींचता भी था और डराता भी था …..चौथी दुनिया में नौकरी मिलते ही मुझे कई शहरो में लोकसभा चुनाव की रिपोर्टिंग के लिए जाने का मौका मिला …मेरी उम्र तब साढ़े बाइस साल थी और लोकसभा चुनाव के चुनिंदा क्षेत्रों ( ग्वालियर , भिंड , मुरौना ) में सुधेन्दु जी ने ही भेजा …मेरी लंबी लंबी रिपोर्ट छपने लगी …उन दिनों राणा कौशल, अरविंद कुमार सिंह , विनोद चंदोला , अन्नु आनंद समेत बहुत से पत्रकारों से परिचय हुआ . मुझे लगता है मैं सबसे नया और बच्चा सरीखा ही था …चुनाव के बाद भी मैंने दिल्ली के अलग अलग मुद्दों पर खूब लिखा ….चौथी दुनिया में नौकरी करते हुए मैं जनसत्ता में लिखने लगा . उन दिनों जनसत्ता में खोज खबर और खास खबर पेज हुआ करता था , जिसके इंचार्ज ज्योतिर्मय जी थे …बहुत सहज और विनम्र …मेरे जैसे संघर्षशील लड़कों को छापकर प्रोत्साहित किया करते थे ….जिस जिन मेरी कोई रिपोर्ट जनसत्ता में छपती थी , उन दिन दो लीटर खून बढ़ जाता था …..फरवरी – मार्च 1990 में प्रबाल मैत्र अमर उजाला के दिल्ली ब्यूरो चीफ बने . उन्होंने मुझे चौथी दुनिया से अमर उजाला आने का ऑफर दिया और शायद 25 सौ की नौकरी पर मैंने अमर उजाला के दिल्ली ब्यूरो में ज्वाइन कर लिया . तब पहली बार मेरे घर वालों को लगा कि अब लड़का ( जिसे बहुत से लोग खोट सिक्का समझते थे ) दिल्ली में चल जाएगा . पिता जी जज थे , उनके तमाम साथी उनसे कहते कि आपका बेटा कंपीटीशन बगैरह क्यों नहीं देता और पिताजी उन्हें समझाते थे कि मेरा बेटा जो कर रहा है , अपने मन की कर रहा है …उनके साथी जज और मजिस्ट्रेट के बेटे बैंक के पीओ और बीपीएससी – यूपीएससी की परीक्षा की तैयारी कर रहे होते थे….लेकिन मेरे पिताजी ने मुझे कभी नहीं कहा कि तुम क्यों मुजफ्फरपुर – पटना – गुवाहाटी और दिल्ली भटक रहे हो …हां , मां जरुर बताती रहती थी कि फला बाबू का बेटा फलां अफसर बन गया है ….तुम कुछ बन भी पाओगे या नहीं ….लेकिन जब दिल्ली में बेटे को 25 सौ की नौकरी मिलने पर पिताजी इतने खुश हुए कि अपनी सैलरी से मेरे लिए हीरो होंडा मोटरसाइकल खरीद कर दिल्ली भेज दी ……खैर , अमर उजाला में जिन लोगों ने मेरी बहुत मदद की उनमें हरि जोशी खास हैं ….जोशी जी अमर उजाला के रविवारीय पन्ना समेत कई पन्ने के इंचार्ज हुआ करते थे ….हरि जोशी ने मुझे को खूब छापा ही , मेरी बेटर हाफ Geeta Shree को भी खूब छापा …जोशी जी इतना न छापते तो कई बार हमारा महीने का खर्च चलना मुश्किल हो जाता …जब इतने लोगों को याद कर रहा हूं तो टिल्लन रिछाड़िया को कैसे भूल सकता हूं ….टिल्लन जी से हमारा परिचय गीताश्री के जरिए हुआ . टिल्लन जी उन दिनों सहारा अखबार के फीचर संपादक हुआ करते थे ….मैं अमर उजाला के दिल्ली ब्यूरो में रिपोर्टर था और गीता फ्रीलांसिग करती थी . उस दौरान कुछ ऐसे लोग भी मिले , जिन्होंने मेरे हौसले पर चोट न की होती तो शायद दिल्ली में जमने और टिकने की जिद न पैदा हुआ होता ….लेकिन आज उनका जिक्र नहीं …..

1989 के मई का महीना रहा होगा ….मैं गुवाहाटी के एक अखबार की नौकरी छोड़कर दिल्ली आया था ….दिमाग में पत्रकारिता का कीड़ा और मन में कुछ करने की जिद के अलावा हमारे साथ कुछ था तो एक छोटा सा ब्रीफकेस, जिसमे दो – तीन कपड़े थे …दिल्ली में पहले से नौकरी कर रहे एक दोस्त का भरोसा था कि यहां आ जाओ कुछ न कुछ तो हो जाएगा ….मुजफ्फरपुर में हमारे साथी रहे रवि प्रकाश मुझसे कुछ पहले दिल्ली आ गए थे और यहां नौकरी कर रहे थे …रवि प्रकाश ने दिल्ली आने का रास्ता न दिखाया होता तो शायद आ भी नहीं पाता….या आता तो कहां गिरता और कहां टिकता , आज सोच भी नहीं पा रहा हूं ….करोलबाग के देवनगर इलाके में एक तिमंजिले मकान की ऊपरी मंजिल पर एक कमरे में चार पत्रकार रहते थे ( उसी कमरे में कई महीनों तक संजय निरुपम भी रहे थे ) …मैं भी रवि प्रकाश के कोटे से उस कमरे में सेट हो गया …गर्मी के महीने में चारो तरफ से नंगी दीवारों वाले उस कमरे में रात में भी इतनी गर्मी लगती थी कि सोने से पहले हम तौलिया गीला करके बिस्तर पर बिछाते और रात में कई बार उसे पानी में भिंगोते रहते थे …मुझे याद है कि उस कमरे का पंखा भी पचास रुपए महीने के किराए पर था क्योंकि पत्रकारों के उस डेरे में कोई स्थाई रहने वाला नहीं था इसलिए कोई स्थाई इनवेस्टमेंट करने को न तो तैयार था , न ही किसी को इसकी जरुरत महसूस होती थी …………सुबह का खाना बनाने को एक मेड आती थी और रात के मेनू में अक्सर दही और चावल होता था …उस कमरे में रहने वाले तीन लोग नौकरी करते थे , मैं बेरोजगार था …लिहाजा मेरे हिस्से का खर्च माफ कर दिया गया था ……बाकी लोग नौकरी करने जाते थे और मैं छोटी -बड़ी पत्रिकाओं के दफ्तर लेख – रिपोर्ट लेकर भटका करता था …दरियागंज से लेकर लक्ष्मीनगर और आईएनएस तक ….रात को फिर सब कमरे पर जुटते और दही -चावल खाकर गप्पें मारते हुए सो जाते ….मकान मालिक जैन था इसलिए उसने इसी शर्त पर रवि प्रकाश , संजय निरुपम और अजय श्रीवास्तव को मकान दिया था कि इसमें नॉन वेज नहीं बनेगा …हालांकि जैन पेश से दुकानदार था और अपनी दुकान पर अंडे का का अनलिमिटेड स्टॉक रखता था ….लेकिन हम जब अंडे खरीदने जाते तो कहता कि आप इसे नहीं ले जा सकते और घर में तो बना ही बना सकते …हम कहीं और से अंडे लाते और घर में चुपके से बनाते …किसी किसी रात को मुर्गे को जन्नत नसीब करने का इंतजाम भी कर ही देते थे लेकिन निचले तल्ले पर रहने वाले जैन को जैसे ही मसाले की सुंगध मिलती वो भागता हुआ ऊपर आ जाता और हम पतीले में बंद मुर्गे को इधर – उधर छिपाकर कहते कि देखो हम तो आलू दम बना रहे हैं …और कई बार ऐसा करना भी पड़ता कि एक चूल्हे पर आलू दम चढ़ा देते ताकि जैन साहब को दिखाया जा सके ……दिल्ली में बिताए बहुत खूबसूरत दिन थे वो ….इसी घर में रहते हुए मुझे पहले चौथी दुनिया फिर अमर उजाला की नौकरी मिली थी …रवि प्रकाश अब मुंबई में हैं और कई सालों तक पत्रकारिता करने के बाद अब अपना काम कर रहे हैं ….

आज जब वो लोग याद आ रहे हैं जिन्होंने बीते 25 सालों में मेरी मदद की ….संघर्ष के दिनों के साथी रहे …मेरा साथ दिया …खुशी और गम में मेरे साथ रहे ….तो कुछ ऐसे भी लोग याद रहे हैं , जिनके साथ मैंने सही व्यवहार नहीं किया ….मैं ऐसे लोगों से माफी मांगता हूं , जिन्हें मेरी वजह से कष्ट पहुंचा ….जिन्हें गाहे – बगाहे मेरी बदतमीजियां झेलनी पड़ी ….जिन्हें मेरे तौर – तरीकों से तकलीफ हुई ….जाने – अनजाने में ऐसे लोगों के साथ किए गए वर्ताव के लिए माफी मांगने का जी किया तो लिख दिया …अब आप अचानक और बेमौसम इस माफीनामे को चाहे जैसे समझें……. जारी

(फेसबुक से साभार)

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