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आइए बनाएं एकात्म मानवदर्शन पर आधारित मीडिया

पं. दीनदयाल उपाध्याय
पं. दीनदयाल उपाध्याय

संजय द्विवेदी

जन्मशती वर्ष प्रसंग ( जयंती 25 सितंबर )

पं. दीनदयाल उपाध्याय
पं. दीनदयाल उपाध्याय
पं. दीनदयाल उपाध्याय स्वयं बहुत बड़े पत्रकार और संचारक थे। अपनी विचारधारा को पुष्ट करने के लिए पत्रों का संपादन, प्रकाशन, स्तंभलेखन, पुस्तक लेखन उनकी रूचि का विषय था। उन्होंने लिखने के साथ-साथ बोलकर भी एक प्रभावी संचारक की भूमिका का निर्वहन किया है। उनकी स्मृति को रेखांकित करते हुए क्या हम विचार कर सकते हैं कि समाज जीवन के हर पक्ष में एकात्म मानवदर्शन किस तरह प्रभावी हो सकता है। भरोसा करना कठिन है कि श्री दीनदयाल उपाध्याय जैसे साधारण कद-काठी और सामान्य से दिखने वाले मनुष्य ने भारतीय राजनीति और समाज को एक ऐसा वैकल्पिक विचार और दर्शन प्रदान किया कि जिससे प्रेरणा लेकर हजारों युवाओं की एक ऐसी मालिका तैयार हुयी, जिसने इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में भारतीय राजसत्ता में अपनी गहरी पैठ बना ली। क्या विचार सच में इतने ताकतवर होते हैं या यह सिर्फ समय का खेल है? किसी भी देश की राजनीतिक निष्ठाएं एकाएक नहीं बदलतीं। उसे बदलने में सालों लगते हैं। डा.श्यामाप्रसाद मुखर्जी से लेकर श्री नरेंद्र मोदी तक पहुंची यह राजनीतिक विचार यात्रा साधारण नहीं है। इसमें इस विचार को समर्पित लाखों-लाखों अनाम सहयोगियों को भुलाया तो जा सकता है किंतु उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता।

राजनीति के लिए नहीं, विचार के साधकः
पं. दीनदयाल उपाध्याय राजनीति के लिए नहीं बने थे, उन्हें तो एक नए बने राजनीतिक दल जनसंघ में उसके प्रथम अध्यक्ष डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मांग पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री मा.स.गोलवलकर (गुरूजी) ने राजनीति में भेजा था। यह एक संयोग ही था कि डा. मुखर्जी और दीनदयाल जी दोनों की मृत्यु सहज नहीं रही और दोनों की मौत और हत्या के कारण आज भी रहस्य में हैं। दीनदयालजी तो संघ के प्रचारक थे। आरएसएस की परिपाटी में प्रचारक एक गृहत्यागी सन्यासी सरीखा व्यक्ति होता है, जो समाज के संगठन के लिए अलग-अलग संगठनों के माध्यम से विविध क्षेत्रों में काम करता है। देश के सबसे बड़े सांस्कृतिक संगठन बन चुके आरएसएस के लिए वे बेहद कठिन दिन थे। राजसत्ता उन्हें गांधी का हत्यारा कहकर लांछित करती थी, तो समाज में उनके लिए जगह धीरे-धीरे बन रही थी। शुद्ध सात्विक प्रेम और संपर्कों के आधार पर जैसा स्वाभाविक विस्तार संघ का होना था, वह हो रहा था, किंतु निरंतर राजनीतिक हमलों ने उसे मजबूर किया कि वह एक राजनीतिक शक्ति के रूप में भी सामने आए। खासकर संघ पर प्रतिबंध के दौर में तो उसके पक्ष में दो बातें कहने वाले लोग भी संसद और विधानसभाओं में नहीं थे। यही पीड़ा भारतीय जनसंघ के गठन का आधार बनी। डा. मुखर्जी उसके वाहक बने और दीनदयाल जी के नाते उन्हें एक ऐसा महामंत्री मिला जिसने दल को न सिर्फ सांगठनिक आधार दिया बल्कि उसके वैचारिक अधिष्ठान को भी स्पष्ट करने का काम किया।

चुनावी सफलताओं के बिना बने राजनीति के दिशावाहकः
पं. दीनदयाल जी को गुरूजी ने जिस भी अपेक्षा से वहां भेजा वे उससे ज्यादा सफल रहे। अपने जीवन की प्रामणिकता, कार्यकुशलता, सतत प्रवास, लेखन, संगठन कौशल और विचार के प्रति निरंतरता ने उन्हें जल्दी ही संघ और जनसंघ के कार्यकर्ताओं का श्रद्धाभाजन बना दिया। बेहद साधारण परिवार और परिवेश से आए दीनदयालजी भारतीय राजनीति के मंच पर बिना बड़ी चमत्कारी सफलताओं के भी एक ऐसे नायक के रूप में स्थापित होते दिखे, जिसे आप आदर्श मान सकते हैं। उनके हिस्से चुनावी सफलताएं नहीं रहीं, एक चुनाव जो वे जौनपुर से लड़े वह भी हार गए, किंतु उनका सामाजिक कद बहुत बड़ा हो चुका था। उनकी बातें गौर से सुनी जाने लगी थीं। वे दिग्गज राजनेताओं की भीड़ में एक राष्ट्रऋषि सरीखे नजर आते थे। उदारता और सौजन्यता से लोगों के मनों में, संगठन कौशल से कार्यकर्ताओं के दिलों में जगह बना रहे थे तो वैचारिक विमर्श में हस्तक्षेप करते हुए देश के बौद्धिक जगत को वे आंदोलित-प्रभावित कर रहे थे। वामपंथी आंदोलन के मुखर बौद्धिक नेताओं की एक लंबी श्रृखंला, कांग्रेस के राष्ट्रीय आंदोलन से तपकर निकले तमाम नेताओं और समाजवादी आंदोलन के डा. राममनोहर लोहिया जैसे प्रखर राजनीतिक चिंतकों के बीच अगर दीनदयाल उपाध्याय स्वीकृति पा रहे थे, तो यह साधारण घटना नहीं थी। यह बात बताती है गुरूजी का चयन कितना सही था। उनके साथ खड़ी हो रही सर्वश्री अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, नानाजी देशमुख. जेपी माथुर,सुंदरसिंह भंडारी, कुशाभाऊ ठाकरे जैसे सैकड़ों कार्यकर्ताओं की पीढ़ी को याद करना होगा, जिनके आधार पर जनसंघ से भाजपा तक की यात्रा परवान चढ़ी है। दीनदयाल जी इन सबके रोलमाडल थे। अपनी सादगी, सज्जनता, व्यक्तियों का निर्माण करने की उनकी शैली और उसके साथ वैचारिक स्पष्टता ने उन्हें बनाया और गढ़ा था।

भारतीय राजनीतिक विमर्श में सार्थक हस्तक्षेपः
एकात्म मानववाद के माध्यम से सर्वथा एक भारतीय विचार को प्रवर्तित कर उन्होंने हमारे राजनीतिक विमर्श को एक नया आकाश दिया। यह बहुत से प्रचलित राजनीतिक विचारों के समकक्ष एक भारतीय राजनीतिक दर्शन था, जिसे वे बौद्धिक विमर्श का हिस्सा बना रहे थे। अपने इस विचार को वे व्यापक आधार दे पाते इसके पूर्व उनकी हत्या ने तमाम सपनों पर पानी फेर दिया। जब वे अपना श्रेष्ठतम देने की ओर बढ़ रहे थे, तब हुयी उनकी हत्या ने पूरे देश को अवाक् कर दिया। दीनदयाल जी ने अपने प्रलेखों और भाषणों में ‘एकात्म मानववाद’ शब्द पद का उपयोग किया है। भाजपा ने 1985 में इसे इसी नाम से स्वीकार किया, किंतु नानाजी देशमुख और संघ परिवार के बीच ‘एकात्म मानवदर्शन’ नामक शब्दपद स्वीकृति पा चुका है। यह एक सुखद संयोग ही है कि उनके द्वारा प्रवर्तित एकात्म मानवदर्शन की विचारयात्रा अपने पांच दशक पूर्ण कर चुकी है। यह उसकी स्वर्णजयंती का साल है। इसके साथ ही अगले साल दीनदयाल जी का शताब्दी वर्ष भी प्रारंभ होगा।

एकात्म मानवदर्शन के आधार पर कैसा मीडिया बनेगाः
ऐसे प्रसंग यह विचार करना जरूरी हो जाता है कि आखिर एकात्म मानवदर्शन के आधार पर हमारी मीडिया का चेहरा बने तो वह कैसा होगा?एकात्म मानवदर्शन को लेकर समाज जीवन के विविध पक्षों में कैसे परिवर्तन होंगें, इस पर विद्वानों ने अलग-अलग विचार किया है। किंतु हमें यह जानना जरूरी है कि आज के सबसे प्रभावकारी माध्यम मीडिया में एकात्म भाव की उपस्थिति से क्या बदलाव आएंगें। एकात्म मानवदर्शन क्योंकि विभेद का दर्शन नहीं है, वह विषयों पर संपूर्णता में विचार करने वाला दर्शन है। एक ऐसी चिंतनधारा है जिसमें मनुष्यता के मूल्य और मनुष्य की मुक्ति संयुक्त है। दीनदयाल जी अपनी विचारधारा में मीडिया को अलग करके नहीं देखते। वे यही दृष्टि रखते किस तरह मीडिया समाज की एकता, उसकी बेहतरी और मनुष्यता की मुक्ति में सहायक हो।
संवाद मनुष्य की आवश्यकता भी है और उसकी प्रेरणा भी। वह संवाद किए बिना रह नहीं सकता। उसका समूची सृष्टि से रिश्ता है और संवाद है। जिसे हम प्रकृति से संवाद की भी संज्ञा देते हैं। मनुष्य के लिए संवाद कैसा हो इस पर बहुत विचार हुआ है। सूचना की भी इसमें एक बड़ी भूमिका है। इस भूमिका का वास्तविक निर्वाह ही हमें मनुष्य बनाता है। एक शायर शायद इसीलिए कहते हैं- “आदमी को मयस्सर नहीं इंसा होना।” यानि आदमी को इंसान या मनुष्य बनाने की यात्रा एक कठिन यात्रा है। कठिन संकल्प से ही व्यक्ति रूपांतरित होता है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि आखिर व्यक्ति की सूचना का संचार कितना व्यापक हो। सवाल यह भी है कि क्या हर सूचना व्यक्ति के लिए जरूरी है। साथ ही ऐसा क्या किया जाए कि व्यक्ति को सूचना इस प्रकार दी जाए, जिससे उसके विकास में मदद मिले न कि वह भ्रमित हो।

मीडिया में लाइए शुभदृष्टिः

एकात्म मानवदर्शन के आधार बनने वाले मीडिया और सूचना की दुनिया में सबका हित निहित होना है। वह एकांगी मीडिया नहीं होगा, वह सूचना को जारी करने से पहले उसके प्रभाव का भी आकलन करेगा। मीडिया और शुभ दोनों विरोधी लगते हैं। पश्चिमी अवधारणा में खबर तभी बनेगी, जब कुछ अशोभन हो, चौंकानेवाला हो, दर्द का विस्तार करने वाला हो, तो इसमें शुभदृष्टि कहां है? एकात्म भाव से भरा मीडिया इसके विपरीत चलेगा। वह हर सूचना में शुभदृष्टि का विचार करेगा। सूचनाओं को विद्रूप करने, उसे खींचने के बजाए- वह शुभदृष्टि के चलते उसकी न्यूनतम नकारात्मकता का विचार करेगा। जाहिर तौर पर यह मीडिया आज की मीडिया के लीक से अलग चलेगा। वह बाजार और व्यापार के लिए संवाद से सौदा नहीं करेगा। वह मनुष्यता और मनुष्य की मुक्ति को केंद्र में रखते हुए वही परोसेगा, जिससे समाज में जुड़ाव बढ़े और शुभदृष्टि का विचार हो। क्या ऐसा मीडिया संभव है? साथ ही यह सवाल भी है कि यदि समाज में शुभदृष्टि का विचार स्थापित हो जाता है तो क्या हमारा परंपरागत मीडिया अप्रासंगिक नहीं हो जाएगा?सवाल यह भी मौजू है कि मीडिया में सकारात्मकता का प्रसार क्या मुख्यधारा के मीडिया को शक्ति दे सकता है?

क्या विचारों और सुसंवाद पर आधारित ऐसे मीडिया की रचना संभव है जिसकी दृष्टि बाजारू न हो? आज दुनिया में 24 घंटे का कोलाहल करने वाला मीडिया उपलब्ध है, क्या इसका भी नियमन नहीं होना चाहिए कि आखिर चौबीस घंटें हमें मीडिया क्यों चाहिए? नकारात्मकता, बिजनेस माडल के आधार पर चलने वाला मीडिया आखिर किसकी जरूरत है? भारत में अभी मीडिया का बहुत व्याप न होने के बावजूद भी अब इसके कंटेट और इसकी जरूरतों पर बात शुरू हो गयी है। हमें यह विचार करने का समय आ गया है कि हमें सोचें कि आखिर हमें कितना और कैसा मीडिया चाहिए? हम कैसे इस मीडिया में वह एकात्म भाव भर सकते हैं जो हर मनुष्य में मौजूद है और नैसर्गिक है। मीडिया की परंपरागत संवाद शैली से अलग हमें इसे शुभदृष्टि की ओर ले जाने की जरूरत है।
मीडिया और समाज अलग-अलग नहीं चल सकतेः

जीवन मूल्यों की जितनी जरूरत मनुष्य को है, उतनी ही मीडिया को भी है। यह संभव नहीं है कि समाज तो मूल्यों के आधार पर चलने का आग्रही हो और उसका मीडिया, उसकी फिल्में, उसकी प्रदर्शन कलाएं, उसकी पत्रकारिता नकारात्मकता का प्रचार कर रही हों। समाज और मनुष्य को प्रभावित करने का सबसे प्रभावी माध्यम होने के नाते हम इन्हें ऐसे नहीं छोड़ सकते। इन्हें भी हमें अपने जीवन मूल्यों के साथ जोड़ना होगा, जो मनुष्यता और मानवता के विस्तार का ही रूप हैं। अगर हम ऐसा मीडिया खड़ा कर पाते हैं तो समाज के बहुत सारे संकट स्वयं दूर हो जाएंगें। फिर टीवी बहसों से निष्कर्ष निकलेगें, फिर फिल्में समाज में समरसता और ममता का भाव भरेंगीं, फिर खबरें डराने के बजाए जीने का हौसला देंगीं। फिर खबरों का संसार ज्यादा व्यापक होगा। वे जिंदगी के हर पक्ष का विचार करेंगीं। वे एकांगी नहीं होंगीं, पूर्ण होंगीं और शुभता के भाव से भरी-पूरी होंगीं। जाहिर है यहां किसी धार्मिक और आध्यात्मिक मीडिया की बात नहीं हो रही है। सिर्फ उस दृष्टि की बात हो रही है जो एकात्म मानवदर्शन हमें देता है। वह है सबको साथ लेकर चलने, सबका विकास करने और सबसे कमजोर का सबसे पहले विचार करने की बात है। जहां दुनिया को बनाने वाले सारे अववय एक दूसरे से जुड़े हैं। जहां सब मिलकर संयुक्त होते हैं और वसुधा को परिवार समझने की दृष्टि देते हैं।

दीनदयाल जी की स्मृतियां और उनके द्वारा प्रतिपादित विचारदर्शन एक सपना भी है तो भी इस जमीं को सुंदर बनाने की आकांक्षा से लबरेज है। उसकी अखंडमंडलाकार रचना का विचार करें तो मनुष्यता खुद अपने उत्कर्ष पर स्थापित होती हुयी दिखती है। इसके बाद उसका समाज और फिल्में, उसका समाज और उसका मीडया, उसका समाज और उसके मूल्य, उसका राह और उसका मन सब एक हो जाते हैं। एकात्म सृष्टि से, एकात्म व्यक्ति से, एकात्म परिवेश से जब हम हो जाते हैं तो प्रश्नों के बजाए सिर्फ उत्तर नजर आते हैं। समस्याओं के बजाए समाधान नजर आते हैं। संकटों के बजाए उत्थान नजर आने लगता है। दुनिया एकात्म मानवदर्शन की राह पर आ रही है, अपने भौतिक उत्थान के साथ आध्यात्मिकता को संयुक्त करने के लिए वह आगे बढ़ चुकी है। यह होगा और जल्दी होगा, हम चाहें तो भी होगा, नहीं चाहे तो भी होगा। क्या हम घरती पर स्वर्ग उतारने के सपने को अपनी ही जिंदगी में सच होते देखना चाहते हैं, तो आइए इस विचार दर्शन को पढ़कर, जीवन में उतारकर देखते हैं। यह हमें इसलिए करना है क्योंकि हमारा जन्म भारत की भूमि पर हुआ है और जिसके पास पीड़ित मानवता को राह दिखाने का स्वाभाविक दायित्व सदियों से आता रहा है। एक बार फिर यह दायित्व क्या हम नहीं निभाएंगें?
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

दीनदयाल उपाध्याय होने का मतलब

संजय द्विवेदी

पं. दीनदयाल उपाध्याय
पं. दीनदयाल उपाध्याय

राजनीति में विचारों के लिए सिकुड़ती जगह के बीच पं. दीनदयाल उपाध्याय का नाम एक ज्योतिपुंज की तरह सामने आता है। अब जबकि उनकी विचारों की सरकार पूर्ण बहुमत से दिल्ली की सत्ता में स्थान पा चुकी है, तब यह जानना जरूरी हो जाता है कि आखिर दीनदयाल उपाध्याय की विचारयात्रा में ऐसा क्या है जो उन्हें उनके विरोधियों के बीच भी आदर का पात्र बनाता है।

दीनदयाल जी सिर्फ एक राजनेता नहीं थे, वे एक पत्रकार, लेखक, संगठनकर्ता, वैचारिक चेतना से लैस एक सजग इतिहासकार, अर्थशास्त्री और भाषाविद् भी थे। उनके चिंतन, मनन और अनुशीलन ने देश को ‘एकात्म मानवदर्शन’ जैसा एक नवीन भारतीय विचार दिया। सही मायने में एकात्म मानवदर्शन का प्रतिपादन कर दीनदयाल जी ने भारत से भारत का परिचय कराने की कोशिश की। विदेशी विचारों से आक्रांत भारतीय राजनीति को उसकी माटी से महक से जुड़ा हुआ विचार देकर उन्होंने एक नया विमर्श खड़ा कर दिया। अपनी प्रखर बौद्धिक चेतना, समर्पण और स्वाध्याय से वे भारतीय जनसंघ को एक वैचारिक और नैतिक आधार देने में सफल रहे। सही मायने में वे गांधी और लोहिया के बाद एक ऐसे राजनीतिक विचारक हैं, जिन्होंने भारत को समझा और उसकी समस्याओं के हल तलाशने के लिए सचेतन प्रयास किए। वे अनन्य देशभक्त और भारतीय जनों को दुखों से मुक्त कराने की चेतना से लैस थे, इसीलिए वे कहते हैं-“प्रत्येक भारतवासी हमारे रक्त और मांस का हिस्सा है। हम तब तक चैन से नहीं बैठेंगें जब तक हम हर एक को यह आभास न करा दें कि वह भारत माता की संतान है। हम इस धरती मां को सुजला, सुफला, अर्थात फल-फूल, धन-धान्य से परिपूर्ण बनाकर ही रहेंगें।” उनका यह वाक्य बताता है कि वे किस तरह का राजनीतिक आदर्श देश के सामने रख रहे थे। उनकी चिंता के केंद्र में अंतिम व्यक्ति है, शायद इसीलिए वे अंत्योदय के विचार को कार्यरूप देने की चेष्ठा करते नजर आते हैं।

वे भारतीय समाज जीवन के सभी पक्षों का विचार करते हुए देश की कृषि और अर्थव्यवस्था पर सजग दृष्टि रखने वाले राजनेता की तरह सामने आते हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था पर उनकी बारीक नजर थी और वे स्वावलंबन के पक्ष में थे। राजनीतिक दलों के लिए दर्शन और वैचारिक प्रशिक्षण पर उनका जोर था। वे मानते थे कि राजनीतिक दल किसी कंपनी की तरह नहीं बल्कि एक वैचारिक प्रकल्प की तरह चलने चाहिए। उनकी पुस्तक ‘पोलिटिकल डायरी’ में वे लिखते हैं-“ भिन्न-भिन् राजनीतिक पार्टियों के अपने लिए एक दर्शन (सिद्दांत या आदर्श) का क्रमिक विकास करने का प्रयत्न करना चाहिए। उन्हें कुछ स्वार्थों की पूर्ति के लिए एकत्र होने वाले लोगों का समुच्च मात्र नहीं बनना चाहिए। उनका रूप किसी व्यापारिक प्रतिष्ठान या ज्वाइंट स्टाक कंपनी से अलग होना चाहिए। यह भी आवश्यक है कि पार्टी का दर्शन केवल पार्टी घोषणापत्र के पृष्ठों तक ही सीमित न रह जाए। सदस्यों को उन्हें समझना चाहिए और उन्हें कार्यरूप में परिणत करने के लिए निष्ठापूर्वक जुट जाना चाहिए।” उनका यह कथन बताता है कि वे राजनीति को विचारों के साथ जोड़ना चाहते थे। उनके प्रयासों का ही प्रतिफल है कि भारतीय जनसंघ (अब भाजपा) को उन्होंने वैचारिक प्रशिक्षणों से जोड़कर एक विशाल संगठन बना दिया। यह विचार यात्रा दरअसल दीनदयाल जी द्वारा प्रारंभ की गयी थी, जो आज वटवृक्ष के रूप में लहलहा रही है। अपने प्रबोधनों और संकल्पों से उन्होंने तमाम राजनीतिक कार्यकर्ताओं तथा जीवनदानी उत्साही नेताओं की एक बड़ी श्रृंखला पूरे देश में खड़ी की।

कार्यकर्ताओं और आम जन के वैचारिक प्रबोधन के लिए उन्होंने पांचजन्य, स्वदेश और राष्ट्रधर्म जैसे प्रकाशनों का प्रारंभ किया। भारतीय विचारों के आधार पर एक ऐसा दल खड़ा किया जो उनके सपनों में रंग भरने के लिए तेजी से आगे बढ़ा। वे अपने राजनीतिक विरोधियों के प्रति भी बहुत उदार थे। उनके लिए राष्ट्र प्रथम था। गैरकांग्रेस की अवधारणा को उन्होंने डा.राममनोहर लोहिया के साथ मिलकर साकार किया और देश में कई राज्यों में संविद सरकारें बनीं। भारत-पाक महासंघ बने इस अवधारणा को भी उन्होंने डा. लोहिया के साथ मिलकर एक नया आकाश दिया। विमर्श के लिए बिंदु छोड़े। यह राष्ट्र और समाज सबसे बड़ा है और कोई भी राजनीति इनके हितों से उपर नहीं है। दीनदयाल जी की यह ध्रुव मान्यता थी कि राजनीतिक पूर्वाग्रहों के चलते देश के हित नजरंदाज नहीं किए जा सकते। वे जनांदोलनों के पीछे दर्द को समझते थे और समस्याओं के समाधान के लिए सत्ता की संवेदनशीलता के पक्षधर थे। जनसंघ के प्रति कम्युनिस्टों का दुराग्रह बहुत उजागर रहा है। किंतु दीनदयाल जी कम्युनिस्टों के बारे में बहुत अलग राय रखते हैं। वे जनसंघ के कालीकट अधिवेशन में 28 दिसंबर,1967 को कहते हैं-“ हमें उन लोगों से भी सावधान रहना चाहिए जो प्रत्येक जनांदोलन के पीछे कम्युनिस्टों का हाथ देखते हैं और उसे दबाने की सलाह देते हैं। जनांदोलन एक बदलती हुयी व्यवस्था के युग में स्वाभाविक और आवश्यक है। वास्तव में वे समाज के जागृति के साधन और उसके द्योतक हैं। हां, यह आवश्यक है कि ये आंदोलन दुस्साहसपूर्ण और हिंसात्मक न हों। प्रत्युत वे हमारी कर्मचेतना को संगठित कर एक भावनात्मक क्रांति का माध्यम बनें। एतदर्थ हमें उनके साथ चलना होगा, उनका नेतृत्व करना होगा। जो राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं वे इस जागरण से घबराकर निराशा और आतंक का वातावरण बना रहे हैं। ”

इस प्रकार हम देखते हैं कि दीनदयाल जी का पूरा लेखन और जीवन एक राजनेता की बेहतर समझ, उसके भारत बोध को प्रकट करता है। वे सही मायने में एक राजनेता से ज्यादा संवेदनशील मनुष्य हैं। उनमें अपनी माटी और उसके लोगों के प्रति संवेदना कूट-कूट कर भरी हुयी है। ‘सादा जीवन और उच्च विचार’ का मंत्र उनके जीवन में साकार होता नजर आता है। वे अपनी उच्च बौद्धिक चेतना के नाते भारत के सामान्य जनों से लेकर बौद्धिक वर्गों में भी आदर से देखे जाते हैं। एक लेखक के नाते आप दीनदयाल जी को पढ़ें तो अपने विरोधियों के प्रति उनमें कटुता नहीं दिखती। उनकी आलोचना में भी एक संस्कार है, सुझाव है और देशहित का भाव प्रबल है। जन्मशताब्दी वर्ष में उनके जैसे लोकनायक की याद सत्ता में बैठे लोग करेंगें, शेष समाज भी करेगा। उसके साथ ही यह भी जरूरी है कि उनके विचारों का अवगाहन किया जाए, उस पर मंथन किया जाए। वे कैसा भारत बनाना चाहते थे? वे किस तरह समाज को दुखों से मुक्त करना चाहते थे? वे कैसी अर्थनीति चाहते थे?

दीनदयाल जी को आयु बहुत कम मिली। जब वे देश के पटल पर अपने विचारों और कार्यों को लेकर सर्वश्रेष्ठ देने की ओर थे, तभी हुयी उनकी हत्या ने इस विचारयात्रा का प्रवाह रोक दिया। वे थोड़ा समय और पाते थे तो शायद एकात्म मानवदर्शन के प्रायोगिक संदर्भों की ओर बढ़ते। वे भारत को जानने वाले नायक थे, इसलिए शायद इस देश की समस्याओं का उसके देशी अंदाज में हल खोजते। आज वे नहीं हैं, किंतु उनके अनुयायी पूर्ण बहुमत से केंद्र की सत्ता में हैं। यह अकारण नहीं है कि इसी वर्ष दीनदयाल जी का जन्मशताब्दी वर्ष प्रारंभ हो रहा है। भाजपा और उसकी सरकार को चाहिए कि वह दीनदयाल जी के विचारों का एक बार फिर से पुर्नपाठ करे। उनकी युगानूकूल व्याख्या करे और अपने विशाल कार्यकर्ता आधार को उनके विचारों की मूलभावना से परिचित कराए। किसी भी राजनीतिक दल का सत्ता में आना बहुत महत्वपूर्ण होता है, किंतु उससे कठिन होता है अपने विचारों को अमल में लाना। भाजपा और उसकी सरकार को यह अवसर मिला है वह देश के भाग्य में कुछ सकारात्मक जोड़ सके। ऐसे में पं.दीनदयाल उपाध्याय के अनुयायियों की समझ भी कसौटी पर है। सवाल यह भी है कि क्या दीनदयाल उपाध्याय,कांग्रेस के महात्मा गांधी और समाजवादियों के डा. लोहिया तो नहीं बना दिए जाएंगें? उम्मीद की जानी चाहिए कि सत्ता के नए सवार दीनदयाल उपाध्याय को सही संदर्भ में समझकर आचरण करेंगें।

(लेखक ‘मीडिया विमर्श’ पत्रिका के कार्यकारी संपादक हैं। लेखक के संपादन में दीनदयाल जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित पुस्तक ‘ भारतीयता का संचारकःदीनदयाल उपाध्याय ’ का हाल में ही प्रकाशन हुआ है।)

वरिष्ठ पत्रकार राधेश्याम शर्मा की पुस्तक ‘मीडिया: क्रांति या भ्रांति’का विमोचन

राधेश्याम शर्मा की पुस्तक 'मीडिया क्रांति या भ्रांति' का विमोचन

विश्व हिन्दी सम्मेलन में केन्द्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने किया पुस्तक का विमोचन

राधेश्याम शर्मा की पुस्तक 'मीडिया क्रांति या भ्रांति' का विमोचन
राधेश्याम शर्मा की पुस्तक ‘मीडिया क्रांति या भ्रांति’ का विमोचन
भोपाल,16 सितम्बर । वरिष्ठ पत्रकार राधेश्याम शर्मा द्वारा लिखित पुस्तक ‘मीडिया: क्रांति या भ्रांति’का विमोचन विश्व हिन्दी सम्मेलन के समापन के दौरान केन्द्रीय गृह मंत्री श्री राजनाथ सिंह द्वारा किया गया। पुस्तक का प्रकाशन माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय द्वारा किया गया है। इस अवसर पर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चैहान सहित अनेक विशिष्टजन मंचासीन थे।यह पुस्तक श्री राधेश्याम शर्मा द्वारा समय-समय पर विविध विषयों,हालातों,चुनौतियों और खबरों पर लिखे गए आलेखों एवं संगोष्ठियों में पढ़े गए प्रपत्रों का संकलन है।

श्री राधेश्याम शर्मा विगत 6 दशकों से पत्रकारिता एवं मीडिया अध्यापन में सक्रिय हैं। वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के संस्थापक महानिदेशक रहे हैं। इनके द्वारा लिखित पुस्तक ‘मीडिया: क्रांति या भ्रांति,में मीडिया की विश्वसनीयता,उनके समक्ष उपस्थित चुनौतियों एवं मीडिया शिक्षा तंत्र की चुनौतियाँ का तार्किक विवेचन किया गया है। पुस्तक में प्रकाशित कुल 37 आलेखों को दो खण्डों क्रमशः मीडिया चिंतन एवं समाज चिंतन में विभाजित किया गया है। मीडिया चिंतन विषय खण्ड में 27 आलेख समाहित किए गए हैं,जबकि समाज चिंतन विषय खण्ड में 10 आलेख प्रकाशित किए गए हैं। पुस्तक के अंत में 17 पृष्ठों में श्री राधेश्याम शर्मा के पत्रकारीय योगदान को उल्लेखित करते हुए चित्र वीथिका प्रस्तुत की गई है। पुस्तक में प्रकाशित आलेखों में जहाँ एक ओर अखबारी जगत के भविष्य के प्रति नया चिंतन नजर आता है वहीं दूसरी ओर मीडिया के मनोरंजन रूपी उद्योग में परिवर्तित होने के प्रति चिंता भी है। पुस्तक में उस दौर के उन सभी महत्वपूर्ण विषयों का समावेश है जिन पर चिंतन जरूरी है। चाहे मीडिया में महिला सम्बन्धी खबरों की बात हो या हिन्दी मीडिया के सामने उभरती चुनौतियाँ हों,सभी को समाहित किया गया है। आलेखों के चुटीले शीर्षक जैसे ‘फोर्थ स्टेट’,का ढहना या ‘रियल स्टेट’में बदलना पाठकों को पुस्तक पढ़ने के लिए आकर्षित करेंगे। पुस्तक में साहित्य और मीडिया,मीडिया स्वामित्व,मीडिया में विदेशी धन,मीडिया और मानव अधिकार,मीडिया की विश्वसनीयता जैसे अनेक विषयों को समाहित किया गया है। इसके साथ-साथ मीडिया शिक्षा तंत्र की चुनौतियों के बारे में भी बताया गया है। वैश्विक विषयों पर भी पुस्तक में चिंतन किया गया है।

पुस्तक का प्रकाशन माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय द्वारा किया गया है। पुस्तक के विषय में बताते हुए विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि प्रिंट से इलेक्ट्रानिक और फिर सोशल मीडिया को भले ही संचार क्रांति का विस्तार कहा जाए,लेकिन इस विस्तार के फलस्वरूप आए परिवर्तनों से कोई असहमत नहीं होगा। मीडिया की दृष्टि से यह भी अनिवार्य है कि उसके विविध आयामों एवं उससे जुड़े अनुसांगिक विषयों पर वर्तमान के परिप्रेक्ष्य एवं ऐतिहासिक संदर्भों की चर्चा हो। श्री राधेश्याम शर्मा की पुस्तक उपर्युक्त सभी पहलुओं पर विचार करती है अतः विश्वविद्यालय द्वारा मीडियाकर्मियों एवं मीडिया विद्यार्थियों के उपयोग की दृष्टि से इस पुस्तक का प्रकाशन किया गया है।

विश्व हिन्दी सम्मेलन में हिन्दी में प्रकाशित प्रख्यात लेखकों की कृतियों का विमोचन किया जाता है। इसी अवसर पर सम्मेलन के समापन सत्र में 12 सितम्बर,2015 को केन्द्रीय गृह मंत्री श्री राजनाथ सिंह द्वारा पुस्तक का विमोचन किया गया। इस अवसर पर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह,हरियाणा के मुख्यमंत्री श्री मनोहर लाल खट्टर,केन्द्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री डॉ. हर्षवर्धन,पश्चिम बंगाल के राज्यपाल श्री केशरीनाथ त्रिपाठी,गोवा की राज्यपाल श्रीमती मृदुला सिन्हा,विदेश राज्यमंत्री जनरल वी.के. सिंह,सांसद अनिल माधव दवे, मारिशस की मानव संसाधन एवं वैज्ञानिक अनुसंधान मंत्री श्रीमती लीला देवी दुखुन लक्षमुन तथा विदेश सचिव श्री अनिल वाधवा मंचासीन थे। कार्यक्रम में देश-विदेश के प्रख्यात हस्तियाँ,मीडियाकर्मी तथा हिन्दीसेवी उपस्थित थे।

पत्रकार सुधीर सक्सेना होने के मायने

सुधीर सक्सेना होने के मायने

-संजय द्विवेदी

सुधीर सक्सेना होने के मायने
सुधीर सक्सेना होने के मायने
सुधीर भाई भिगो देने वाली आत्मीयता के धनी कवि-पत्रकार हैं। अपने फन के माहिर, एक बेहद जीवंत भाषा के धनी, कवि और कविह्दय दोनों। वे ज्यादा बड़े कवि हैं या ज्यादा बड़े पत्रकार, यह तय करने का अधिकारी मैं नहीं हूं, किंतु इतना तय है कि वे एक संवेदनशील मनुष्य हैं, अपने परिवेश से गहरे जुड़े हुए और उतनी ही गहराई से अपनों से जुड़े हुए। जाहिर तौर पर यही एक गुण (संवेदनशीलता) एक अच्छा कवि और पत्रकार दोनों गढ़ सकता है। मुझे याद है ‘माया’ के वे उजले दिन जब वह हिंदी इलाके की वह सबसे ज्यादा बिकने वाली पत्रिका हुआ करती थी। सुधीर जी की लिखी रिपोर्ट्स पढ़कर हमारी पूरी पीढ़ी ने राजनीतिक रिपोर्टिंग के मायने समझे। वे मध्यप्रदेश जैसे राजनीतिक रूप से कम रोमांचक और दो-ध्रुवीय राजनीति में रहने वाले राज्य से भी जो खबरें लिखते थे, उससे राज्य के राजनीतिक तापमान का पता चलता था। उनकी राजनीति को समझने की दृष्टि विरल है। वे अपनी भाषा से एक दृश्य रचते हैं जो सामान्य पत्रकारों के लिए असंभव ही है। उनका लेखन अपने समय से आगे का लेखन है। उनकी यायावरी, लगातार अध्ययन ने उनके लेखन को असाधारण बना दिया है। उनकी कविताएं मैंने बहुत नहीं पढ़ीं क्योंकि मैं साहित्य का सजग पाठक नहीं हूं किंतु मैं उनके गद्य का दीवाना हूं। आज वे कहीं छपे हों, उन्हें पढ़ने का लोभ छोड़ नहीं पाता।

यकीन से भरा कविः
एक अकेला आदमी कविता, पत्रकारिता, अनुवाद, संपादन और इतिहास-लेखन में एक साथ इतना सक्रिय कैसे हो सकता है। लेकिन वे हैं और हर जगह पूर्णांक के साथ। ऐसे आदमी के साथ जो दुविधा है उससे भी वे दो-चार होते हैं। एक बार सुधीर भाई ने अपने इस दर्द को व्यक्त करते हुए कहा था कि “संजय, पत्रकार मुझे पत्रकार नहीं मानते और साहित्यकार मुझे साहित्यकार नहीं मानते।” मैंने सुधीर जी से कहा था “सर आप पत्रकार या साहित्यकार नहीं है, जीनियस हैं।” उनके कविता संग्रहों के नाम देखें तो वे आपको चौंका देगें, वे कुछ इस प्रकार हैं- समरकंद में बाबर, बहुत दिनों के बाद, काल को नहीं पता, रात जब चंद्रमा बजाता है बांसुरी, किरच-किरच यकीन। कविताओं से मेरी दूरी को भांपकर भी वे मुझे अपनी कविता की किताब देते हैं। एक बार एक ऐसी ही किताब पर उन्होंने लिखकर दिया-
“यकीन मानो
एक दिन पढ़ेंगें
लोग
कविता की
नयी किताब ”
सच, मुझे लगा कि यह एक दिग्गज पत्रकार की हमारे जैसे अपढ़ पत्रकारों को सलाह थी कि भाई शब्दों से भी रिश्ता रखो। सुधीर जी की कविताएं सच में उम्मीद और प्रेम की कविताएं हैं। उनके मन में जो आद्रता है वही कविता में फैली है। उन्होंने समरकंद में बाबर में जिस तरह बाबर को याद किया है, वह पढऩा अद्भुत है। माटी और उसकी महक कैसे दूर तक और देर तक व्यक्ति की स्मृतियों का हिस्सा होती है, यह कविता संग्रह इसकी गवाही देता है। बाबर के सीने, होंठों, आंखों सबमें समरकंद था, पर बाबर समरकंद में नहीं था। यह कल्पना भी किसी साधारण कवि की हो नहीं सकती। वे समय से आगे और समय से पार संवाद करने वाले कवि हैं। उनकी कविताएं अपने परिवेश और दोस्तों तक भी जाती हैं। दोस्तों को वे अपनी कविताओं में याद करते हैं और सही मायने में अपने बीते हुए समय का पुर्नपाठ करते हैं। उनका कवि इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि वह सिर्फ कहने के लिए नहीं कहता। यहां कविता आत्म का विस्तार नहीं है बल्कि वह समय और उसकी चुनौतियों से एकात्म होकर पूर्णता प्राप्त कर रही है। उनकी कविता टुकड़ों में नहीं है, एक थीम को लेकर चलती है। चार पंक्तियों में कविता करके भी वे अपना पूरा पाठ रचते हैं। उनकी कविता में प्रेम की अतिरिक्त जगह है। यही प्रेम हमारे समय में सिकुड़ता दिखता है तो उनकी कविता में ज्यादा जगह घेर रहा है।

माटी की महकः
सुधीर सक्सेना कहां के हैं, कहां से आए, तो आपको साफ उत्तर शायद न मिलें। हम उन्हें भोपाल और दिल्ली में एक साथ रहता हुआ देखते हैं। रायपुर-बिलासपुर उनकी सांसों में बसता है तो लखनऊ से उन्होंने पढ़ाई लिखाई कर अपनी यात्रा प्रारंभ की। लखनऊ में जन्मे और पले-बढ़े इस आदमी ने कैसे छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश को अपना बना लिया इसे जानना भी रोचक है। उनके दोस्त तो पूरे ग्लोब पर बसते हैं पर उनका दिल मुझसे कोई पूछे तो छत्तीसगढ़ में बसता और रमता है। यह सिर्फ संयोग है कि मैं भी लखनऊ से अपनी पढ़ाई कर भोपाल आया और रायपुर और बिलासपुर में मुझे भी रमने का अवसर मिला। जब मैं बिलासपुर-रायपुर पहुंचा तो सुधीर जी छत्तीसगढ़ छोड़ चुके थे। लेकिन हवाओं में उनकी महक बाकी थी। उनके दोस्तों में मप्र सरकार में मंत्री रहे स्व.बीआर यादव से लेकर पत्रकार रमेश नैयर, साहित्यकार तेजिंदर तक शामिल थे। साहित्य, राजनीति और पत्रकारिता तीनों के शिखर पुरूषों तक सुधीर की अंतरंगता जाहिर है। वे यारों के यार तो हैं कई मायने में खानाबदोश भी हैं। मुझे लगता है कि उन्होंने भाभी-बच्चों के लिए तो घर बनाया और सुविधाएं जुटायीं पर खुद वे यायावर और फकीर ही हैं। जिन्हें कोई जगह बांध नहीं सकती। अपने परिवार पर जान छिड़कने वाली यह शख्सियत घर में होकर भी एक सार्वजनिक निधि है। इसलिए मैंने कहा कि उन्हें आपको हर जगह पूर्णांक देना होगा। उनकी सदाशयता इतनी कि आप उन्हें काम का आदमी मानें न मानें अगर आप उनके कवरेज एरिया में एक बार आ गए तो उनके फोन आपका पीछा करते हैं। जिंदगी की रोजाना की जरूरतों को पूरा करने की जद्दोजेहद के बाद भी उनमें एक स्वाभिमानी मनुष्य है जो निरंतर चलता है और रोज नई मंजिलें छूता है। अथक परिश्रम, अथक यात्राएं और अथक अध्ययन। आखिर सुधीर भाई चाहते क्या हैं? उनके दोस्त उनसे मुंह मोड़ लें पर वे हर दिन नए दोस्त बनाने की यात्रा पर हैं। बिना थके, बिना रूके। सही मायने में उनमें कोलंबस की आत्मा प्रवेश कर गयी है। कई देशों को नापते, कई शहरों को नापते, तमाम गांवों को नापते वे थकते नहीं है। वे आज भी एक पाक्षिक पत्रिका ‘दुनिया इन दिनों’ के नियमित संपादन-प्रकाशन के बीच भी अपनी यायावरी के लिए समय निकाल ही लेते हैं। उनकी यही जिजीविषा तमाम लोगों को हतप्रभ करती है।

स्मृतियों का व्यापक संसारः
आजकल वे भोपाल में कम होते हैं। होंगे तो मुझे बुलाकर मिलेंगें जरूर। आत्मीयता से भीगा उनका संवाद और निरंतर लिखने के लिए कहना वे नहीं भूलते। वे ही हैं जो कहते हैं लिखो, लिखो और लिखो। उनका सामना करने से संकोच होता है। उनकी सक्रियता मन में अपराधबोध भरती है। उनका बहुपठित होना, एक आईने की तरह सामने आता है। अपने दोस्तों,परिवेश और सूखते रिश्तों के बीच वे एक जीवंत उपस्थिति हैं। वे इस निरंतर नकली हो रही दुनिया में खड़े एक असली आदमी की तरह हैं। वे अपने अनुभव साझा करते हैं, सावधानियां भी बताते हैं पर खुद सब कुछ मन की करते हैं। उनके पास बैठना एक ऐसे वृक्ष की छांव में बैठना है जहां सुरक्षा है, ढेर सी आक्सीजन है, ढेर सा प्यार है और स्मृतियों का व्यापक संसार है। सुधीर जी ने एक लंबी और सार्थक पारी खेली है। उनका पहला दौर बहुतों के जेहन में है। उम्मीद है कि वे अभी एक बार और अपने ‘जीनियस’ होने का यकीन कराएंगें। उनसे कुछ खास रचने का यकीन हमें है, वे तो कभी नाउम्मीद होते ही नहीं। उनके सफल,सार्थक और दीर्घजीवन की कामनाएं।

लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष तथा त्रैमासिक पत्रिका ‘मीडिया विमर्श’ के कार्यकारी संपादक हैं।

अमर उजाला के मालिक को प्रेस क्लब अध्यक्ष ने भेजा कानूनी नोटिस

प्रेस क्लब भवन के बारे में अमर उजाला ने छापी झूठी खबर
अमर उजाला के मालिक, प्रकाशक, संपादक और ब्यूरो प्रमुख को प्रेस क्लब अध्यक्ष ने भेजा कानूनी नोटिस

अयोध्या प्रसाद ‘भारती’

रुद्रपुर (उत्तराखंड)। ‘जोश सच का’ घोष वाक्य के साथ प्रकाशित हो रहे उत्तर भारत के प्रमुख हिंदी दैनिक अमर उजाला को झूठी खबर छापने पर मानहानि करने का कानूनी नोटिस भेजा गया है।

वरिष्ठ अधिवक्ता जरनैल सिंह शेखों द्वारा भेजे गये नोटिस के अनुसार अमर उजाला में प्रकाशित एक खबर से प्रेस क्लब ऊधमसिंह नगर (रुद्रपुर) रजि0 की मानहानि हुई है। अमर उजाला के एमडी राजुल माहेश्वरी, प्रकाशक राहुल चैहान, संपादक हरिश्चंद्र सिंह एवं ब्यूरो प्रमुख रुद्रपुर, भाष्कर पोखरियाल को भेजे गये नोटिस में कहा गया है कि उनके द्वारा अमर उजाला में 5 जुलाई को प्रकाशित ‘खंडहर बना 40 लाख का प्रेस क्लब भवन’ झूठे तथ्यों पर आधारित और भ्रामक है। इस खबर में बताया गया है कि शासन द्वारा दिए गये धन से निर्मित भवन की चाबियां कार्यदायी एजेंसी ने एक संस्था को गुपचुप तरीके से सौंप दीं। बाद में प्रेस क्लब भवन परिसर में कुछ लोगों ने वाहन पार्किंग बना ली, साथ ही यह भवन जुआरियों, नशेड़ियों का अड्डा बन गया। इसके साथ ही खबर में लिखा है कि रख-रखाव के अभाव में भवन खंडहर में तब्दील हो गया है।

प्रेस क्लब अध्यक्ष बीसी सिंघल के अनुसार भवन सही-सलामत है। भवन निर्माण के बाद प्रशासन ने लिखित में विधिवत तरीके से चाबियां सौंपी थीं, जिसके कागजात उनके पास हैं। भवन में एक केयर-टेकर रहता था। अगर वहां जुआरी और नशेड़ी पाये गये थे तो खबर लिखने वाले पत्रकार को चाहिए था कि पुलिस और प्रशासन को सूचित करता साथ ही अवांछित लोगों के फोटो ले लेता। इसके अलावा खबर लिखते वक्त सभी तथ्यों की जांच पड़ताल करनी चाहिए थी और प्रेस क्लब अध्यक्ष से भी इस संबंध में बात कर लेनी चाहिए थी, जैसा कि आमतौर पर पत्रकार खबर से संबंधित व्यक्ति का पक्ष खबर को पुष्ट करने के लिए लेते ही हैं। लेकिन अमर उजाला के पत्रकार ने पत्रकारिता के मानदंडों का पालन नहीं किया और एकतरफा झूठी, भ्रामक खबर छाप दी। जिससे पंजीकृत प्रेस क्लब और उससे जुड़े सम्मानित पत्रकारों की प्रतिष्ठा धूमिल हुई है।

इस खबर का संज्ञान लेकर जिलाधिकारी ने उप जिलाधिकारी और जिला सूचना अधिकारी को मौखिक आदेश देकर प्रेस क्लब भवन पर सरकारी ताला डलवा दिया। वहां रह रहे केयर टेकर को वहां से अन्यत्र जाने के लिए एक-दो दिन का समय भी नहीं दिया, और तुरंत उसका सामान निकलवा लिया। बताया जाता है कि ताला डालने की सूचना पर प्रेस क्लब अध्यक्ष बीसी सिंघल जब डीएम से वार्ता करने, वास्तविक तथ्य उनके समक्ष रखने गये तो डीएम ने उनकी एक न सुनी।

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