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हिंदी अध्यापन के क्षेत्र में किसी महिला की पहली आत्मकथा – केदारनाथ सिंह

प्रेस विज्ञप्ति

भीतर की ईमानदारी से ही हिम्मत आती है – निर्मला जैन

हिंदी साहित्य के प्रख्यात कवि केदारनाथ सिंह ने कहा कि सच को स्वीकार करने और लिखने के लिए, खासकर अपने नजदीकी लोगों के बारे में सही टिप्पणी करने के लिए बड़े ही साहस की जरूरत होती है और निर्मला जैन में वह मजबूती है, वह साहस है. यह उनकी आत्मकथा ‘ज़माने में हम’ में साफ़ उभर कर सामने आता है.

केदारनाथ सिंह मंगलवार की शाम साहित्य अकादमी सभागार में निर्मला जैन की आत्मकथा के प्रकाशन के अवसर पर आयोजित ‘लेखक से बातचीत’ कार्यक्रम में बतौर विशिष्ठ अतिथि बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि हिंदी अध्यापन के क्षेत्र में किसी महिला ने पहली बार आत्मकथा लिखने का साहस दिखाया है. इसलिए सही मायने में यह कृति एक इतिहास की शुरुआत है और इसमें जिन-जिन बातों का उल्लेख किया गया है उनसे यह किताब एक दस्तावेज की तरह भी पढ़ी जा सकती है. उन्होंने कहा, ” निर्मला जैन ने अपने निजी, पेशेवर और सामाजिक जीवन के सभी संघर्षों को बड़ी सच्चाई तथा सजीव ढंग से पेश किया है, जो हर किसी के वश में नहीं है। “

इससे पहले लेखक तथा पत्रकार प्रियदर्शन एवं युवा लेखिका सुदीप्ति के साथ बातचीत में उनके सवालों का बड़ी बेबाकी से जवाब देते हुए ‘ज़माने में हम’ की लेखिका निर्मला जैन ने कहा, ‘‘मुसीबतें आदमी को मजबूत बनाती हैं। मुसीबतों से लड़ते रहने के जुझारूपन ने ही मुझे हिम्मत और ताकत दी है।’’ अपने जीवन के अनुभवों के हवाले से उनका कहना था, ‘‘अगर जीवन में कठिनाइयाँ न हों तो जीवन कमजोर हो जाता है। मेरे जीवन में कमियां और मुसीबतों की कभी कमी नहीं रही। इसलिए मुझे जीवन में पछ्तावे के लिए फुरसत ही नहीं मिली। जीवन संघर्षों के साथ आगे बढता चला गया। “

बातचीत के दौरान प्रियदर्शन ने एक महत्वपूर्ण सवाल यह उठाया कि निर्मला जी की आत्मकथा ‘जमाने में हम’ में किसी किताब का जिक्र नहीं मिलता। इस पर लेखिका ने कहा, ‘’किताबें मैंने बहुत पढ़ी हैं और पढ़ती रहती हूँ। लेकिन इस तरह की कोई किताब नहीं है जिसका असर मेरी सोच या जीवन की दिशा पर कभी परिवर्तनकरी ढंग से पड़ा हो। और रही बात उनका जिक्र करने की तो मैंने इतना पढ़ा है कि उस पर एक अलग अध्याय ही बन जाएगा।“

तमाम प्रतिभाशाली लोगों के संपर्क में रहने के दौरान उनमें से किसी के प्रति अनुराग, आकर्षण या खिचाव होने के सुदीप्ति के सवाल पर निर्मला जैन ने कहा कि यदि आपके साथ कोई प्रतिभाशाली व्यक्तिव है तो उसके प्रति अनुराग होना स्वाभाविक है और यह एक मानव स्वभाव भी है। लेकिन अनुराग के भी स्तर होते हैं। इनका अपना एक दायरा होता है और दायरे में रहकर कोई भी अनुराग या दोस्ती आपके संबंधों में पूर्णता प्रदान करती है और तभी आपके संबंध स्थाई बनते हैं।

निर्मला जी ने कहा कि उनकी आत्मकथा ‘जमाने में हम’ न कोई किस्सा है न कोई किस्सागोई। जो सच है वही उन्होंने लोगों के सामने रखा है। आत्मकथा में सच्चाई के प्रश्न पर उन्होंने कहा कि भीतर की ईमानदारी से भी हिम्मत आती है।

इस मौके पर राजकमल प्रकाशन समूह के प्रबन्ध निदेशक अशोक महेश्वरी ने कहा कि लेखक और पाठक के बीच प्रकाशक एक महत्वपूर्ण कड़ी का काम करता है। इसी कड़ी में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित निर्मला जी की आत्मकथा ‘ज़माने में हम’ में कहीं न कहीं राजकमल प्रकाशन की यात्रा की झलकियाँ भी पाठकों को देखने को मिलेंगी। कार्यक्रम का संचालन डॉ. रेखा सेठी ने किया।

इस अवसर पर नित्यानन्द तिवारी, विश्वनाथ त्रिपाठी, रामनिवास जाजू, पुरुषोत्तम गोयल, अनामिका, दिविक रमेश, नानकचंद, राष्ट्रीय नाट्य विदयालय के पूर्व निर्देशक देवेन्द्र राज अंकुर समेत कई महत्त्वपूर्ण व्यक्ति मौजूद थे।

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किताब का विषय – ‘जमाने में हम’ किताब निर्मला जी ने पिछले साठ वर्षों के अपने बेहद सक्रिय अकादमिक और साहित्यिक जीवन को बहुत सहजता में उद्घाटित किया है। साथ ही, इसके बरक्स उनका अपना निजी पारिवारिक जीवन भी इसमें बहुत गाढ़े-गहरे रंगों में शुरू से अंत तक फैला हुआ है, रंग चाहे काला या सफ़ेद ही क्यों न हो…। यह किताब इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि इसमें पुरानी दिल्ली की गलियाँ, चौबारे, दुकानें हवेलियाँ अपने पुरे शानों शौकत में नजर आते हैं। एक तरह से यह दिल्ली की वो झलक हमारे सामने पेश करता है जिससे आज की नई पीढ़ी पुरी तरह अछूती है। यह किताब दिल्ली शहर के एक दस्तावेज के रूप में भी देखा जा सकता है।

हिंदी के साहित्यक समाज के इतिहास की सामग्री इसमें भरपूर है। पुरानी दिल्ली के इतिहास में दिलचस्पी रखने वालों के लिए भी इसमें काम की जानकारियाँ हैं।

कब सहिष्णु थे आप ?

भंवर मेघवंशी, स्वतंत्र पत्रकार

कब सहिष्णु थे आप ?
……………………………
कौन से युग ,किस सदी ,
किस कालखंड में ,सहिष्णु थे आप ?
देवासुर संग्राम के समय ?
जब अमृत खुद चखा
और विष छोड़ दिया
उनके लिए ,
जो ना थे तुमसे सहमत.
दैत्य ,दानव ,असुर ,किन्नर
यक्ष ,राक्षस
क्या क्या ना कहा उनको.
वध ,मर्दन ,संहार
क्या क्या ना किया उनका .
…………………..
तब थे आप सहिष्णु ?
जब मर्यादा पुरुषोत्तम ने काट लिया था
शम्बूक का सिर .
ली थी पत्नी की चरित्र परीक्षा
और फिर भी छोड़ दी गई
गर्भवती सीता
अकेली वन प्रांतर में .
या तब ,जब
द्रोण ने दक्षिणा में कटवा दिया था
आदिवासी एकलव्य का अंगूठा .
जुएं में दांव पर लगा दी गयी थी
पांच पांच पतियों की पत्नि द्रोपदी
और टुकर टुकर देखते रहे पितामह .
……………
या तब थे आप सहिष्णु ?
जब ब्रह्मा ने बनाये थे वर्ण
रच डाली थी ऊँच नीच भरी सृष्टि.
या तब ,जब विषमता के जनक ने
लिखी थी विषैली मनुस्मृति .
जिसने औरत को सिर्फ
भोगने की वस्तु बना दिया था .
शूद्रों से छीन लिए गए थे
तमाम अधिकार .
रह गए थे उनके पास
महज़ कर्तव्य .
सेवा करना ही
उनका जीवनोद्देश्य
बन गया था .
और अछूत
धकेल दिये गए थे
गाँव के दख्खन टोलों में .
लटका दी गई थी
गले में हंडिया और पीठ पर झाड़ू
निकल सकते थे वे सिर्फ भरी दुपहरी .
ताकि उनकी छाया भी ना पड़े तुम पर .
इन्सान को अछूत बनाकर
उसकी छाया तक से परहेज़ !
नहीं थी असहिष्णुता ?
……………..
आखिर आप कब थे सहिष्णु ?
परशुराम के क्षत्रिय संहार के समय
बौद्धों के कत्लेआम के वक़्त
या महाभारत युद्ध के दौरान .
लंका में आग लगाते हुए
या खांडव वन जलाते हुये .
कुछ याद पड़ता है
आखिरी बार कब थे आप सहिष्णु ?
…………………………
अछूतों के पृथक निर्वाचन का
हक छीनते हुए ,
मुल्क के बंटवारे के समय
दंगों के दौरान ,
पंजाब ,गुजरात ,कश्मीर ,पूर्वोत्तर ,
बाबरी ,दादरी ,कुम्हेर ,जहानाबाद
डांगावास और झज्जर
कहाँ पर थे आप सहिष्णु ?
सोनी सोरी के गुप्तांगों में
पत्थर ठूंसते हुए .
सलवा जुडूम ,ग्रीन हंट के नाम पर
आदिवासियों को मारते हुए .
लोगों की नदियाँ ,जंगल ,
खेत,खलिहान हडपते वक़्त .
आखिर कब थे आप सहिष्णु ?
दाभोलकर ,पानसरे ,कलबुर्गी के
क़त्ल के वक़्त .
प्रतिरोध के हर स्वर को
पाकिस्तान भेजते वक़्त
फेसबुक ,ट्वीटर ,व्हाट्सएप
किस जगह पर थे आप सहिष्णु ?
……
प्राचीन युग में ,
गुलाम भारत में
आजाद मुल्क में
बीते कल और आज तक भी
कभी नहीं थे आप कतई सहिष्णु .
सहिष्णु हो ही नहीं सकते है आप
क्योंकि आपकी संस्कृति ,साहित्य ,कला
धर्म ,मंदिर ,रसोई ,खेत ,गाँव ,घर .
कहीं भी नहीं दिखाई पड़ती है सहिष्णुता
सच्चाई तो यह है कि आपके
डीएनए में ही नहीं
सहिष्णुता युगों युगों से ……
– भंवर मेघवंशी

( स्वतंत्र पत्रकार )
कब सहिष्णु थे आप ?
……………………………
कौन से युग ,किस सदी ,
किस कालखंड में ,सहिष्णु थे आप ?
देवासुर संग्राम के समय ?
जब अमृत खुद चखा
और विष छोड़ दिया
उनके लिए ,
जो ना थे तुमसे सहमत.
दैत्य ,दानव ,असुर ,किन्नर
यक्ष ,राक्षस
क्या क्या ना कहा उनको.
वध ,मर्दन ,संहार
क्या क्या ना किया उनका .
…………………..
तब थे आप सहिष्णु ?
जब मर्यादा पुरुषोत्तम ने काट लिया था
शम्बूक का सिर .
ली थी पत्नी की चरित्र परीक्षा
और फिर भी छोड़ दी गई
गर्भवती सीता
अकेली वन प्रांतर में .
या तब ,जब
द्रोण ने दक्षिणा में कटवा दिया था
आदिवासी एकलव्य का अंगूठा .
जुएं में दांव पर लगा दी गयी थी
पांच पांच पतियों की पत्नि द्रोपदी
और टुकर टुकर देखते रहे पितामह .
……………
या तब थे आप सहिष्णु ?
जब ब्रह्मा ने बनाये थे वर्ण
रच डाली थी ऊँच नीच भरी सृष्टि.
या तब ,जब विषमता के जनक ने
लिखी थी विषैली मनुस्मृति .
जिसने औरत को सिर्फ
भोगने की वस्तु बना दिया था .
शूद्रों से छीन लिए गए थे
तमाम अधिकार .
रह गए थे उनके पास
महज़ कर्तव्य .
सेवा करना ही
उनका जीवनोद्देश्य
बन गया था .
और अछूत
धकेल दिये गए थे
गाँव के दख्खन टोलों में .
लटका दी गई थी
गले में हंडिया और पीठ पर झाड़ू
निकल सकते थे वे सिर्फ भरी दुपहरी .
ताकि उनकी छाया भी ना पड़े तुम पर .
इन्सान को अछूत बनाकर
उसकी छाया तक से परहेज़ !
नहीं थी असहिष्णुता ?
……………..
आखिर आप कब थे सहिष्णु ?
परशुराम के क्षत्रिय संहार के समय
बौद्धों के कत्लेआम के वक़्त
या महाभारत युद्ध के दौरान .
लंका में आग लगाते हुए
या खांडव वन जलाते हुये .
कुछ याद पड़ता है
आखिरी बार कब थे आप सहिष्णु ?
…………………………
अछूतों के पृथक निर्वाचन का
हक छीनते हुए ,
मुल्क के बंटवारे के समय
दंगों के दौरान ,
पंजाब ,गुजरात ,कश्मीर ,पूर्वोत्तर ,
बाबरी ,दादरी ,कुम्हेर ,जहानाबाद
डांगावास और झज्जर
कहाँ पर थे आप सहिष्णु ?
सोनी सोरी के गुप्तांगों में
पत्थर ठूंसते हुए .
सलवा जुडूम ,ग्रीन हंट के नाम पर
आदिवासियों को मारते हुए .
लोगों की नदियाँ ,जंगल ,
खेत,खलिहान हडपते वक़्त .
आखिर कब थे आप सहिष्णु ?
दाभोलकर ,पानसरे ,कलबुर्गी के
क़त्ल के वक़्त .
प्रतिरोध के हर स्वर को
पाकिस्तान भेजते वक़्त
फेसबुक ,ट्वीटर ,व्हाट्सएप
किस जगह पर थे आप सहिष्णु ?
……
प्राचीन युग में ,
गुलाम भारत में
आजाद मुल्क में
बीते कल और आज तक भी
कभी नहीं थे आप कतई सहिष्णु .
सहिष्णु हो ही नहीं सकते है आप
क्योंकि आपकी संस्कृति ,साहित्य ,कला
धर्म ,मंदिर ,रसोई ,खेत ,गाँव ,घर .
कहीं भी नहीं दिखाई पड़ती है सहिष्णुता
सच्चाई तो यह है कि आपके
डीएनए में ही नहीं
सहिष्णुता युगों युगों से ……

पत्रकार भी तो इंसान होते हैं !

pr journalism

तरुण वत्स

विचार-मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है अौर सभी इस बात को समझते-जानते हैं कि यह मीडिया की ही ताकत है तो हमें घर बैठे ही देश के हर हिस्से की जानकारी मिल जाती है। आज के इस सूचना तकनीक के दौर में मीडिया देश के हर कोने में स्थापित हो चुका है अौर अब किसी खबर का पता लगना बहुत बड़ी बात नहीं रह गयी है। मीडिया ने भी अपनी एक अलग पहचान बनाई है लेकिन इसी के पीछे एक कड़वा सच यह भी है कि आज मीडियाकर्मियों को किसी खबर को दिखाने या उसके बारे में जानकारी निकालने के लिये अपनी जान पर खेलना पड़ता है।

इसी परिदृश्य में सबसे बड़ा सवाल यह भी है कि हमारे देश में पत्रकार कितने सुरक्षित हैं। यदि हम एक आम इंसान के तौर पर देखें तो पत्रकारों को कोई खास सुविधा न तो सरकार ही देती है और न ही अन्य कोई आवश्यक संसाधन ही उसके पास हो सकते हैं। एक पत्रकार की हमेशा यही कोशिश रहती है कि किसी भी खबर की तह में जाकर उसकी तफ्तीश करते हुये सच को सामने लाया जाये और फिर उसके समाधान खोजने की दिशा में कदम उठाये जायें लेकिन आजकल हर खबर पर राजनीति शुरू हो जाती है। एक तथ्य यह भी है कि तमाम खराब परिस्थितियों के चलते पत्रकारों को अपनी जान से हाथ भी धोना पड़ जाता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हाल ही में शाहजहांपुर के पत्रकार जगेन्द्र सिंह तथा व्यापमं घोटाले की तफ्तीश में लगे आजतक के पत्रकार अक्षय सिंह की हत्या के मामले हैं।

हमारे देश में पत्रकार कितने असुरक्षित हैं, इस बात का खुलासा भारतीय प्रेस परिषद की हाल ही में जारी एक रिपोर्ट में किया गया है। इस रिपोर्ट में साफ बताया गया है कि लोकतांत्रिक देश भारत में पिछले ढाई दशक के दौरान 1990 से 2015 में 80 पत्रकारों की मौत हो गयी है। परिषद् के मुताबिक, पत्रकारों के लिए सबसे असुरक्षित पूर्वोतर राज्य हैं जहां 80 में से सबसे ज्यादा 32 पत्रकार मारे गए। अकेले असम राज्य में जहां 22 पत्रकारों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और सबसे बड़ी बात यह है कि अब तक मारे गए पत्रकारों के 93 प्रतिशत मामले में किसी को भी सजा नहीं हुई है।
पत्रकारों की सुरक्षा की नजर से पत्रकारों के लिए सबसे बुरा हाल पूर्वोतर और जम्मू कश्मीर राज्य का है जहां उनके लिए परिस्थियां सबसे खराब हैं। इससे साफ हो जाता है कि दूसरों को न्याय दिलाने के लिये अग्रिम पंक्ति में खड़े एक पत्रकार की जान की कोई कीमत नहीं है। इतना ही नहीं भारतीय प्रेस परिषद् की रिपोर्ट के मुताबिक, जब असम पुलिस महानिदेशक से पत्रकारों की हत्या के बारे में जानकारी मांगी गयी तो उनका कहना था कि उनके पास पत्रकारों के मारे जाने की कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है और आगे के बारे में यह टाल दिया गया।

उत्तरप्रदेश के मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक से मिलकर राज्य में पत्रकारों पर हिंसा की हालत के बारे में भी जानने की कोशिश की गयी लेकिन उनकी तरफ से भी आज तक कोई रिपोर्ट नहीं भेजी गयी है। इस रिपोर्ट में 11 राज्यों का दौरा कर 1200 पत्रकारों-संपादकों से मिलकर पिछले 25 वर्ष में मारे गए पत्रकारों का यह आंकड़ा इकट्ठा किया है। इसमें 1999 में तेलंगाना के इनाडू के रिपोर्टर मल्लेपुल्ला नरेंद्र से लेकर जगेन्द्र सिंह तथा संदीप कोठारी का भी जिक्र है जिनकी हत्या कर दी गई।

एक पत्रकार का काम होता है कि वह जो भी गलत देखे, उन चीजों को जनता के सामने बिना किसी लाग-लपेट के सामने लाये और सच्चाई से रूबरू कराये। जनता को हर तथ्यों से जागरूक करना पत्रकार का कर्तव्य होता है और बाद में उस पत्रकार की यदि मौत हो जाती है तो उसके परिजनों का क्या हाल है, वह किस हालात में अपनी जिंदगी काट रहे हैं, इन सब के बारे में कोई खबर नहीं होती और न ही पत्रकारों के कातिलों को सजा मिलती है। हाल ही में एक जानकारी मिली थी कि एक प्रतिष्ठित अखबार के कर्मी जंतर मंतर पर धरना प्रदर्शन दे रहे हैं लेकिन यह सचमुच बेहद मुश्किल है कि काेई भी अन्य बड़ा चैनल अथवा अखबार इस ‘खबर’ को प्रसारित या प्रकाशित करेगा।

हमारा देश विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है और इस लोकतंत्र के तीन स्तंभ संविधान में कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका के अलावा चौथा स्तंभ मीडिया को दिया गया है। इसकी उपयोगिता उस समय सार्थक सिद्ध होती नज़र आती है जब आप एक पत्रकार हैं और इस बात को अापके पडोस में रहने वाले जानते हैं तो जाहिर तौर पर किसी समस्या के समाधान का रास्ता जानने के लिये वह आपके पास आते हैं क्योंकि समाज को एक उम्मीद नज़र आती है कि यह व्यक्ति हमारी समस्या का समाधान न करवा सके लेकिन कम-अस-कम रास्ता जरूर बता सकता है। इतना ही नहीं किसी बात को नहीं जानने पर यदि आप उसको वापिस लौटा देते हैं तो आपसे जुड़ी उसकी उम्मीदों पर पानी फिर जाता है।

हालांकि बार बार यह सवाल पत्रकारों की तरफ उठता रहता है कि वे खबरों का व्यापार करते हैं, उन्हें बेचते हैं अौर उन्हें ‘दलाल’ तक की संज्ञा दी जाती है। इस मामले में प्रेस परिषद् को आगे आना चाहिये और यदि ऐसे मामले सामने आते हैं तो आरोपियों को सार्वजनिक करने पर भी चिन्तन करना चाहिए। यह समय की जरूरत है कि मीडिया में व्याप्त भ्रष्टाचार के उन्मूलन को ध्यान में रखकर भी काम किया जाये।

पत्रकारों के विकास के बारे में कभी सोचने की आवश्यकता नहीं समझी गयी और न ही ऐसी कोई खास सुविधायें उनको मिलीं। यह सच है कि एक पत्रकार को भी वही मूल अधिकार मिले हैं जो किसी आम इंसान को संविधान और कानून देता है। उन्हें किसी तरह के खास अधिकार नहीं दिये गये हैं लेकिन वे भी इंसान हैं जो तमाम तरह की खबरों को जनता तक पहुंचाने का काम करते हैं, उन्हें सच से रूबरू कराते हैं और एक जन प्रतिनिधि के तौर पर काम करते हैं। ऐसे में आयी इस रिपोर्ट के बाद यह जरूरत महसूस होती है कि पत्रकारों के हितों की रक्षा भी होनी चाहिये।

(लेखक पत्रकार हैं)

क्योंकि औरत कट्टर नहीं होती

समीक्षक- आरिफा एविस

क्योंकि औरत कट्टर नहीं होती
क्योंकि औरत कट्टर नहीं होती
‘क्योंकि औरत कट्टर नहीं होती’ डॉ. शिखा कौशिक ‘नूतन’ द्वारा लिखा गया लघु कथा संग्रह है जिसमें स्त्री और पुरुष की गैर बराबरी के विभिन्न पहलुओं को छोटी-छोटी कहानियों के माध्यम से सशक्त रूप में उजागर किया है. इस संग्रह में हमारे समाज की सामंती सोच को बहुत ही सरल और सहज ढंग से प्रस्तुत किया है, खासकर महिला विमर्श के बहाने समाज में उनके प्रति सोच व दोयम दर्जे की स्थिति को बहुत ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है. फिर मामला चाहे अस्तित्व का हो या अस्मिता का ही क्यों न हो.

लेखिका डॉ. शिखा कौशिक ‘नूतन’ अपनी कथाओं के जरिये बताती हैं कि बेशक आज देश उन्नति के शिखरों को चूम रहा हो लेकिन असल में लोगों की सोच अभी भी पिछड़ी, दकियानूसी और सामंती है. इसी सोच का नतीजा है कि हमारे समाज में आज भी महिलाओं को हमेशा कमतर समझा जाता है. किसी भी किस्म की दुश्मनी का बदला औरत जात को अपनी हवस का शिकार बनाकर ही किया जाता है, फिर मामला चाहे सांप्रदायिक हो या जातिगत -“जिज्जी बाहर निकाल उस मुसलमानी को!! …हरामजादों ने मेरी बहन की अस्मत रौंद डाली…मैं भी नहीं छोडूंगा इसको…!!!

लेखिका ने समान रूप से काम करने वाले बेटे-बेटी के बीच दोहरे व्यवहार को बखूबी दर्शाया है जो अक्सर ही हमारे परिवारों में देखने, सुनने या महसूस करने को मिल जाता है- “इतनी देर कहाँ हो गयी बेटा? एक फोन तो कर देते! तबियत तो ठीक है ना ? बेटा झुंझलाकर बोला- ओफ्फो… आप भी ना पापा… अब मैं जवान हो गया हूँ… बस ऐसे ही देर हो गयी. पिता ठहाका लगाकर हंस पड़े. अगले दिन बेटी को घर लौटने में देर हुई तो पिता का दिमाग सातवें आसमान पर पहुँच गया. बेटी के घर में घुसते ही पूछा …घड़ी में टाइम देखा है! किसके साथ लौटी हो?…पापा वो ऐसे ही. बेटी के ये कहते ही उलके गाल पर पिता ने जोरदार तमाचा जड़ दिया.”

डॉ. शिखा ने भारतीय समाज में व्याप्त लिंगीय भेदभाव पर बहुत ही तीखा प्रहार किया है और उन मिथकों को तोड़ने की भरसक कोशिश की है जो एक स्त्री होने की वजह से हर दिन झेलती है. लेखिका इस बात पर शुरू से लेकर अंत तक अडिग है कि औरत ही औरत की दुशमन नहीं होती बल्कि सामाजिक तथा आर्थिक सरंचना से महिलायें सामन्ती एवं पुरुष प्रधान मानसिकता से ग्रसित हो जाती हैं – “ऐ… अदिति… कहाँ चली तू? ढंग से चला फिरा कर… बारवें साल में लग चुकी है तू… ये ढंग रहे तो तुझे ब्याहना मुश्किल हो जायेगा. कूदने-फादने की उम्र नहीं है तेरी. दादी के टोकते ही अदिति उदास होकर अंदर चली गयी. तभी अदिति की मम्मी उसके भाई सोनू के साथ बाजार से शोपिंग कर लौट आयीं. सोनू ने आते ही कांच का गिलास उठाया और हवा उछालने लगा. …गिलास फर्श पर गिरा और चकनाचूर हो गया. सोनू पर नाराज होती हुई उसकी मम्मी बोली- “कितना बड़ा हो गया है अक्ल नहीं आई! …अरे चुपकर बहु एक ही बेटा तो जना है तूने …उसकी कदर कर लिया कर… अभी सत्रहवें ही में तो लगा है… खेलने-कूदने के दिन हैं इसके…”

प्रेम करना आज भी एक गुनाह है. अगर किसी लड़की ने अपनी मर्जी से अपना जीवन साथी चुना तो परिवार व समाज उसके इस फैंसले को कतई मंजूरी नहीं देते बल्कि इज्जत और मर्यादा के नाम पर उसको मौत के घाट उतार दिया जाता है. प्रेम के प्रति लोगों की सोच को नूतन कुछ इस तरह व्यक्त करती हैं- “याद रख स्नेहा जो भाई तेरी इज्जत की बचाने के लिए किसी की जान ले सकता है वो परिवार की इज्जत बचाने की लिए तेरी जान ले सकता है. …स्नेहा कुछ बोलती इससे पहले ही आदित्य रिवाल्वर का ट्रिगर दबा चुका था.”

हमारे समाज में आज भी लोगों के मन में जातिवाद घर बनाये हुए है. जातिवाद प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में हमारे सामने आ ही जाता है. स्कूल, कॉलेज, नौकरी-पेशा, शादी-विवाह या किसी भी कार्यक्रम के आयोजन ही क्यों न हो जाति कभी पीछा नहीं छोडती- “जातिवाद भारतीय समाज के लिए जहर है. इस विषय के संगोष्ठी के आयोजक महोदय ने अपने कार्यकर्ताओं को पास बुलाया और निर्देश देते हुए बोले- देख! वो सफाई वाला है ना. अरे वो चूड़ा. उससे धर्मशाला की सफाई ठीक से करवा लेना. वो चमार का लौंडा मिले. …उससे कहना जेनरेटर की व्यवस्था ठीक-ठाक कर दे. बामन, बनियों, सुनारों, छिप्पियों इन सबके साइन तू करवा लियो… ठाकुर और जैन साहब से कहियो कुर्सियों का इंतजाम करने को.”

किसी भी स्त्री और पुरुष की ताकत, हुनर, पहलकदमी, तरक्की को देखने का नजरिया एकदम अलग-अलग होता है. लेकिन स्त्री जाति के विषय में बात एकदम अलग है क्योंकि किसी भी स्त्री को डर, धमकी या मार द्वारा उसके लक्ष्य से कोई भी डिगा नहीं सकता. सिर्फ पुरुषवादी सोच ही स्त्री को चरित्रहीन कहकर ही उसको अपमानित करती है. “रिया ने उत्साही स्वर में कहा जनाब मुझे भी प्रोमोशन मिल गया है. ‘अमर’ हाँ, भाई क्यों न होता तुम्हारा प्रोमोशन, तुम खूबसूरत ही इतनी हो.”

डॉ. शिखा कौशिक ने लगभग 117 लघु कथाओं की शिल्प शैली लघु जरूर है लेकिन उनकी विचार यात्रा बहुत ही गहरी और विस्तृत है. लेखिका ने ग्रामीण परिवेश और उसकी सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संरचना में रची बसी विकृतियों, समस्याओं और जटिलताओं को पाठकों तक पहुँचाने का काम करके स्त्री विमर्श के विभिन्न पहलुओं को चिन्हित किया है.

क्योंकि औरत कट्टर नहीं होती : डॉ.शिखा कौशिक ‘नूतन’ |
अंजुमन प्रकाशन | कीमत :120

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