अभिषेक श्रीवास्तव,वरिष्ठ पत्रकार
गांव-देहात में दिल्ली के पत्रकारों की स्थिति देखने में बड़ी मनोरंजक होती है। हाथ में माइक लिए गांव की गली में टहल रहा टीवी रिपोर्टर सबसे ज़्यादा इस बात से परेशान रहता है कि कुछ कवर करने लायक क्यों नहीं दिख रहा। उसे यहां लेकर आया सरदार टैक्सीवाला गालियां दे रहा होता है जबकि हर आधे घंटे पर नोएडा से कॉल कर रहा बॉस एक ही सवाल दागे जाता है- कुछ मिला?
कल एक गांव में एक गाड़ी आकर रुकी। अपने ब्रांडेड कपड़ों से पहचाना जा रहा रिपोर्टर पूरी ठसक में बाहर आया। दाएँ देखा, बाएँ देखा, और पुलिस से आंख मिलाए बगैर सीधे चल दिया। दोनों तरफ टूटे-फूटे जले हुए मकान थे दलितों के। थोड़ा ठिठका, ‘कोई है?’ के अंदाज़ में भीतर झांका, फिर आगे बढ़ लिया। बहुत देर चहलकदमी करने के बाद भी जब माइक उठाने की नौबत नहीं आई और भीषण गर्मी में टमाटर की तरह पक चुके लाल गालों वाले कैमरामैन ने उसे खोदा, तो रिपोर्टर ने उजबक की तरह बैठे एक गांववाले से पूछा, ‘भाई साहब, ये ठाकुर का घर किधर है?’
उसके सवाल पर ग्रामीण सकपका कर तन गया। उसने कुछ आवाज़ लगाई। तीन-चार युवक इकट्ठा हो गए। रिपोर्टर से सवाल जवाब होने लगा। उसने माइक दिखाया। लोगों को शक था कि वह ठाकुरों का आदमी है। वह समझाने की असफल कोशिश कर रहा था कि उसे ठाकुरों की बाइट लेनी है, और कुछ नहीं। लेकिन उस वाल्मीकि बस्ती में इस मजबूरी को समझने वाला अभी तक पैदा नहीं हुआ था।
ख़ैर, किसी तरह उसे समझाया गया कि यह दलितों का टोला है, ठाकुर आगे रहते हैं। वह तेजी से आगे बढ़ा कार की तरफ, लेकिन ड्राइवर नदारद था। उसने फिर दाएँ देखा, बाएँ देखा और सीधे देखने से पहले फोन की घंटी घनघना उठी, ‘कुछ मिला?’ उसने जवाब दिया, ‘ठाकुर का पता मिल गया है!’ उधर से आवाज़ आई, ‘गुड। भाग के सहारनपुर कलेक्टरेट जाओ। वहां से एसएसपी का एक बाइट भेजो। क्विक!’ सरदार ने जो गाली रिपोर्टर को दी थी, वही गाली फ़ोन काटने के बाद रिपोर्टर ने अपने बॉस के लिए हवा में उछाल दी। सिर झुकाया और सामने देखा, तो सरदार ड्राइवर आम चूसते हुए मुस्कुराता खड़ा पूछ रहा था- ‘इब कित्थे चलना है पतरकार साहब?’
Good articel sir