निखिल आनंद गिरी
(रेलवे हाय-हाय-2!!)
सिस्टम सिर्फ नॉर्मल दिनों में आराम से चलने वाले नियम-कानून को नहीं कहते. अच्छा सिस्टम एमरजेंसी के वक्त किए गये इंतज़ामों में दिखना चाहिए. जो सिस्टम प्रीमियम तत्काल के नाम पर 400 की टिकट 2000 रुपये में बेचे और फिर पैसेंजर या तो चढ़ ही नहीं पाए या टॉयलेट में ही पेशाब-पखाना रोककर 24 घंटे का सफर करवाये, उस सिस्टम पर पेशाब करने का मन करता है..ऐसा नहीं कि छठ पहली बार आया है या दिल्ली-मुंबई के स्टेशनों पर ये हाल पहली बार हुआ है, मगर हर साल हालत सिर्फ बदतर ही हुई है. जनरल डब्बों का हाल तो सदियों से ऐसा ही रहा है. उसमें भी औरतें, बच्चे, सीनियर सिटीज़न जाते ही हैं मगर कौन सी मीडिया या सरकार कुछ उखाड़ पाई है. दरअसल, जनरल से बात जब स्लीपर या एसी बोगी तक जाती है, हमारा ख़ून ज़्यादा अपनेपन से खौलता है. फर्क इतना है कि रेलवे का तब भी नहीं खौलता. क्या गलत है. बात करते हैं..
(फेसबुक ट्रैवल्स)
@एफबी