लेडी श्रीराम कॉलेज से जुड़ी डॉ.वर्तिका नंदा को आज राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रपति भवन के दरबार हॉल में ‘रानी गैदिल्यू जेलियांग पुरस्कार’ से सम्मानित किया. उन्हें यह पुरस्कार वर्ष 2013 के लिए मीडिया के माध्यम से महिला मुद्दों के प्रति जागरूकता सृजन के क्षेत्र में उनकी उपलब्धियों के लिए दिया गया.
उन्हें पहले भी कई पुरस्कार मिल चुके हैं. वे लंबे समय तक पत्रकारिता की दुनिया में भी सक्रिय रही. बाद में पत्रकारिता छोड़ शिक्षण के क्षेत्र में आ गयी और लेडी श्रीराम कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) से जुड़ गयी. उन्होंने सात किताबें अबतक लिखी है जिसमें हाल ही में उनके द्वारा लिखित तिनका-तिनका तिहाड़ किताब काफी चर्चित रही.
डॉ.वर्तिका नंदा के अलावा अन्य पांच लोगों को भी स्त्री शक्ति पुरस्कार मिला.प्रतिवर्ष दिए जाने वाले इन पुरस्कारों के अंतर्गत तीन लाख रूपये नगद और एक-एक प्रशस्ति पत्र दिया जाता है.
डॉ वर्तिका नंदा का लेखन स्त्री सशक्तिकरण के पक्ष में है भी क्या ? ये सवाल हर उस पाठक और श्रोता के दिमाग में पुरस्कार मिलने की इस खबर के साथ उठेगा जिन्होंने इन्हें स्त्री विमर्श के नाम पर इनकी रचनाओं की स्त्री को बारहमासा काव्य की नायिका की तरह बिसूरते देखा है. जो मौसम के बदलने के अनुरुप उसी हालत में होती चली जाती है. कोई बहुत स्त्री विमर्श का लेखन कह भी दे तो बहुत खींच-खाचकर द्विवेदी युग से आगे तक ले जाने में दम बोल जाएगा. महादेवी वर्मा तक पहुंचना तो समझिए गप्पबाजी हो जाएगी.
स्त्री विमर्श के नाम पर एक स्त्री का कुछ भी लिखा स्त्री सशक्तिकरण के पक्ष मे है तब तो कोई बात नहीं बल्कि लेखन के दर्जनों चरित्र आज न कल जीवित होकर समाज को मजबूत कर ही जाएंगे लेकिन ऐसे लेखन बारीकी छोड़िए थोड़े ही ध्यान दिए जाने पर न केवल स्त्री के विरोध में चला जाता है बल्कि उसे पितृसत्तात्मक समाज में मान-मौव्वल के बाद एडजेस्ट कर जाने की तंग समझ विकसित करता है जैसा कि बिना रिजर्वेशन के स्लीपर क्लास में आए दिन हमें लोग थोड़ा-थोड़ा डोल जाने और एडजेस्ट करने सलाह दिया करते हैं..अब कल को गीता प्रेस से छपनेवाली स्त्रियों के एक हजार नैतिक कर्तव्य, गृहशोभा में अदने मूंग दाल से हजार व्यंजन बनाने की टिप देनेवाले को भी स्त्री सशक्तिकरण का लेखन मान लिया जाए तो भी आश्चर्य नहीं. बाकी पुरस्कार राष्ट्रपति ने दिया है, राष्ट्रपति सम्मान नहीं है सो असहमति में तो लिखा ही जा सकता है. हम ऐसे लेखन और लेखक के विचार को दूर से ही नमन करते हैं जिन्हें 16 दिसंबर की घटना के दौरान दिल्ली पुलिस के चेहरे पर ममता दिख जाती है.