कासिद हुसैन
जब से अख़बार पढ़ना शुरू किया तभी से देख रहा हूँ कि किसी भी अख़बार में खेल के दो ही पृष्ठ होते हैं। विशेषकर हिंदी अख़बारों में। जिसमे एक बात हमेशा ग़ौर करने वाली ये रही कि एक लगभग पूरे पृष्ठ पर सिर्फ क्रिकेट की खबर होती है। दूसरे पर भी विदेशी या क्षेत्रीय क्रिकेट की खबर होती हैं। और थोड़ी बहुत खबरें बाकी खेल की। ऐसे ही खबरिया चैनलों में भी शाम के वक़्त आने वाले खेल के प्रोग्राम आते हैं। जिनमे से कई चैनल तो क्रिकेट के नाम के साथ ही उस प्रोग्राम को दिखाते हैं। और खैरात की तरह बाकी खेलों की दो या चार हैडलाइन दिखाते हैं। क्या बाकी खेल मीडिया किसी खैरात के मोहताज हैं ? या उन्हें ऐसा बना दिया गया है। हमारे देश के कई बड़े बड़े नेता इस बात को कबूल कर चुके हैं कि हमारे देश के कई खेल (राष्ट्रीय खेल हॉकी सहित) काफी जद्दो जहद कर रहे हैं। लेकिन बावजूद इसके न तो उनकी लोकप्रियता ही बढ़ रही है और न ही क्रिकेट का वर्चस्व कम हो रहा है। ये बात किसी से छिपी नहीं है कि इस वर्चस्व के पीछे कितना बड़ा कारोबार और पैसा लगा है। लेकिन मीडिया में भी इसका वर्चस्व बना होना थोड़ा अखरता है।
हमारे देश में कहा जाता है कि क्रिकेट कि लोकप्रियता उस वक़्त बढ़ी जब भारत ने कपिल देव की कप्तानी में 1983 में विश्व कप जीता। क्योंकि उस समय हॉकी अपनी चमक खो रही थी और भारतीय हॉकी टीम का प्रदर्शन लगातार ख़राब हो रहा था। क्रिकेट में विश्व कप की जीत ने लोगों को उसकी तरफ आकर्षित किया। लेकिन मीडिया की भला क्या मजबूरी रही कि उसने बाकी खेलों को नज़रअंदाज़ करते करते आज इतना ज़्यादा नज़रअंदाज़ कर दिया कि बाकी खेलों की मीडिया में भी कोई ख़ास जगह नहीं बची। ये एक बड़ा सवाल है। क्रिकेट में आईपीएल जैसा “फॉर्मेट” आया और चैनलों पर इसके विज्ञापन आने शुरू। लेकिन हम यहीं अंदाज़ा लगा सकते हैं कि कितने विज्ञापन आईपीएल के आये और आते हैं और कितने टेनिस और हॉकी के आईपीएल जैसे फॉर्मेट के विज्ञापन। न चाहते हुए भी दिमाग़ विज्ञापन की कमाई की तरफ ही भागता है। जिसका लाभ मीडिया को शायद हो रहा है। और ये केवल इलेक्ट्रॉनिक या प्रिंट मीडिया की नहीं बल्कि 360 डिग्री मीडिया का चलन है।
भारत में आज दो ही तरह के सितारे छाये रहते हैं। फिल्मों के और क्रिकेट के। हम सभी में एक बात उभयनिष्ठ होगी वो ये कि हम क्रिकेट के जितने खिलाड़ियों के नाम जानते हैं उतने बाकी खेलों के खिलाड़ियों के नहीं। इस सब में हम भी शामिल हैं। लेकिन जिस “डिपार्टमेंट” की ये सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी थी जिसे हमेशा तटस्थ रहना था उसकी लापरवाही का खामियाज़ा कई खेलों को आज और भविष्य में भुगतना पड़ेगा। जिसके लिए अभी समय है। यदि बाकी खेलों को जगह दी जाने लगे तो सम्भव है कि उनकी लोकप्रियता बढे। और वे सिर्फ कामनवेल्थ और ओलम्पिक के समय याद न किये जाएं। वर्ण बहुत सम्भव है कि जिस तरह आज भारत सरकार कथित तौर पर कई भाषाओँ और संस्कृतियों को बचने के प्रयास कर रही है एक दिन उसे खेल भी न बचाने पड़ें।
(लेखक पत्रकार हैं)