कुंदन कुमार झा
आपको किसी की पत्रकारिता का स्टाइल पसन्द न हो, लहजा पसन्द न हो, हो सकता है कि आपकी निजी विचारधारा के विपरीत हो, आपके चैनल का प्रतिद्वंद्वी हो लेकिन आपके और उसके लिए ‘फ्रीडम ऑफ प्रेस’ के मामले में दोनों के अधिकार बराबर होने चाहिए और इसको बनाएं रखने के लिए दोनों को एक दूसरे के साथ खड़ा होना ही चाहिए।
अगर यह ‘फ्रीडम ऑफ प्रेस’ का रक्षा कवच टूटा तो यहां ‘त्रिवेदी’ के भी बचने की गुंजाइश नहीं होगी क्योंकि सत्ताधीशों की एकता कभी नहीं टूटती।
वैसे पिछले कुछ समय से लोगों को अब पहचानने में दिक्कत नहीं होती कि अमुक पत्रकार दक्षिणपंथी खेमे से है या फिर वामपंथी खेमे से। अब पत्रकारिता में छद्म जैसा कुछ है भी नहीं जिसे पहचानने में राकेट साइंस लगाने की जरूरत पड़े।
वहीं दूसरी ओर अगर वामपंथी पत्रकारों को बलात्कार जैसे मामलों में तरुण तेजपाल की गिरफ्तारी और अर्नब के मामलें में समानता दिख रही है तो माफ कीजिये आपकी बुद्धि तरुण तेजपाल जैसी ही वहशीपने के लेवल तक पहुंच चुकी है।
किंतु-परंतु से हटकर अगर अर्नब मामलें में किसी भी प्रकार से सरकारी मिशनरी का दुरुपयोग आपको अभी नहीं दिख रहा है और इसकी तुलना आप प्रशांत कनोजिया जैसे जहरीले संपोलों से कर रहे है तो आपकी मानसिकता भी परलोकागमन के लिए तैयार हो चुकी है।
कायदे से वामपंथी गिरोह के कामरेडों का इलाज उसी टाइम हो जाना चाहिए था जब सुपारी दुर्बुद्दिजीवियों की आधी जमात का बड़े से बड़ा मठाधीश #Metoo कैम्पेन में धराएं गए थे। समय से इलाज हो गया होता तो मौजूदा पत्रकारिता में गलाकाट प्रतियोगिता के तहत वामपंथी खेमा अर्नब की गिरफ्तारी नहीं करवा पाता।
वैसे आज दक्षिणपंथी खेमे के पत्रकार अर्नब की गिरफ्तारी से कम से कम भाजपा की राज्य सरकारों से भी वो मनोवैज्ञानिक दबाव खत्म हुआ होगा जिसमें पत्रकारों की गिरफ्तारी से पहले सोचना पड़ता था क्योंकि इस तरफ अर्नब के पाप देखे जा रहे है तो दूसरी तरफ क्विंट, वायर, Alt, NDTV, THE PRINT और बेनामी दर्जनों सुपारी लेकर बैठे वेबसाइट्स आदि के अपराध भी कम नहीं हैं।
बधाई हो!
अन्तोगत्वा पत्रकारों का खेमा बंट चुका है और इसका फायदा समय-2 पर वामपंथी और दक्षिणपंथी सरकारों को ही होगा क्योंकि जिस बेलगाम प्रेस पर लगाम लगाने की दिल में तमन्ना लिए दोनों विचारधारा की सरकार घूम रही थी उनके हाथ अंधेरे में ही सही पत्रकारों के विभाजन से ब्रह्मास्त्र लगा है और पत्रकारों के हाथ में ….सच देखने के लिए…तेज देखने के लिए…पुष्ट खबरों के प्रकाशन के लिए यहां आए, दूसरों के यहाँ न जाये…की दौड़ हाथ लगी है।
यहाँ पर मुझे पंचतंत्र की वो कहानी याद आ रही है जिसमें दो बिल्लियों की लड़ाई का फायदा बंदर ले जाता है। दो बिल्लियों से मतलब दक्षिणपंथी और वामपंथी पत्तरकारों से है और बंदर से मतलब सरकार से जिसकी सिर्फ एक विचारधारा होती है ‘सत्ता’।
निष्कर्ष के रूप में कह सकते हैं कि , दक्षिणपंथी अर्नब की गिरफ्तारी ने वामपंथी खेमे के पत्रकारों की भी गिरफ्तारी के रास्ते खोल दिये है.