1. जिस देश में दो सौ रुपये के एक रुपा थर्मॉकॉट बेचने के लिए नेहा,स्नेहा जैसी कुल छह लड़कियों को स्वाहा करने की जरुरत पड़ जाती हो. 60-70 की चड्डी पहनते ही दर्जनों लड़कियां चूमने दौड़ पड़ती हो, सौ-सवा रुपये की डियो के लिए मर्दों के मनबहलाव के लिए आसमान से उतरने लग जाती हो. कंडोम के पैकेट हाथ में आते ही वो अपने को दुनिया की सबसे सुरक्षित और खुशनसीब लड़की/स्त्री समझने लग जाती हो..वहां आप कहते हैं कि हम मीडिया के जरिए आजादी लेकर रहेंगे. आप पलटकर कभी मीडिया से पूछ सकते हैं कि क्या उसने कभी किसी पीआर और प्रोमोशनल कंपनियों से पलटकर सवाल किया कि बिना लड़की को बददिमाग और देह दिखाए तुम मर्दों की चड्डी,डियो,थर्मॉकॉट नहीं बेच सकते ? हॉट का मतलब सिर्फ सेक्सी क्यों है,ड्यूरेबल का मतलब ज्यादा देकर टिकने(फ्लो नहीं होने देनेवाला) क्यों है और ये देश स्त्री-पुरुष-बच्चे बुजुर्ग की दुनिया न होकर सिर्फ फोर प्ले प्रीमिसेज क्यों है ? तुम अपना अर्थशास्त्र तो बदलो,देखो समाज भी तेजी से बदलने शुरु होंगे..
2. टेलीविजन के विज्ञापन और उनका कंटेंट दो अलग-अलग टापू नहीं है. इस पर बात करने से एडीटोरिअल के लोग भले ही पल्ला झाड़ ले और मार्केटिंग वालों की तरफ इशारा करके हम पर ठहाके लगाएं लेकिन दर्शक के लिए वो उसी तरह की टीवी सामग्री है जैसे उनकी तथाकथित सरोकारी पत्रकारिता. उस पर पड़नेवाला असर भी वैसा ही है..अलग-अलग नहीं. आप दो सरोकारी खबरे दिखाकर दस चुलबुल पांडे हीरो उतारेंगे तो असर किसका ज्यादा ये कोई भी आसानी से समझ सकता है. ऐसे में सवाल सरोकारी खबरों की संख्या गिनाकर नेताओं की तरह दलील पेश करने का नहीं है, सवाल है कि आप जिस सांस्कृति परिवेश को रच रहे हैं क्या उसे संवेदनशील समाज का नमूना कहा जा सकता है..क्या आपके हिसाब से स्त्री देह को रौंदने,छेड़ने,मजे लेने की सामग्री के बजाय एक अनुभूति और तरल मानवीय संबंधों की तरफ बढ़ने की खूबसूरत गुंजाईश भी है. अस्मिता और पहचान की इकाई भी है ? आप जो इसके जरिए फोर प्ले की वर्कशॉप चला रहे हैं, उससे अलग तरीके से भी समाज सोचता है ? ये कौन सा उत्तर-आधुनिक मानवीकरण है जहां गाड़ी से लेकर थर्मॉकॉट तक स्त्री देह होने का आभास कराते हैं और जिसके पीछे मर्द दिमाग पिल पड़ता है ? माफ कीजिएगा, इस सहजता के साथ अगर आप काम कर रहे होते तो आप खुद भी कटघरे में खड़े नजर नहीं आते ?
3. इस कड़कड़ाती ठंड में भी क्या आप सचमुच इतनी गर्मी चाहते हैं कि आपके आगे नेहा,स्नेहा सहित पीले स्कार्फवाली प्रिया, ट्रेडमिलवाली त्रिशा, प्रीति,स्वीटी, पोल्का डॉट अम्ब्रेलावाली अनन्या और लेबेंडर लैपटॉप वाली अनन्या सब इसके आगे स्वाहा हो जाए. आप इन सभी लड़कियों की तस्वीरें देखिए…हमारे आसपास हजारों-लाखों ऐसी ही लड़कियां. मां-बाप जब अपनी बेटियों को आत्मनिर्भर बनाने के सपने देखते हैं तो इन्हीं सबों की छवि ध्यान में आते होंगे..जो पढ़ी-लिखी,आजाद, बहादुर होगी..इस विज्ञापन ने इन लड़कियों की छवि क्या बना दिया जो एक लंपट मर्द के आगे स्वाहा. आप करेंगे, गांधी की तरह मैनचेस्टर कपड़े की जगह रुपा थर्माकॉट को आग लगा देंगे, विज्ञापन को तत्काल रोकने की मांग करेंगे या फिर उस टीवी की शीशा फोड़ देगे जिस पर इस विज्ञापन के ठीक बाद गैंग रेप पर जोरदार बहस होगी ? (विनीत कुमार के फेसबुक वॉल से )
विष्णुगुप्त का लेख मार लिया अखबार ने और क्रेडिट भी नहीं दिया
हिन्दी के अखबारों में अनपढ़ और अपराधी टाइप के लोगों का आधिपत्य हो गया है। सरकारी विज्ञापन हासिल कर धनवान बनने की इच्छा से कुकुरमुत्ते की तरह अखबारों की बाढ़ आ गयी।
अखबारों न तो संपादक होता है और न ही संपादकीय टीम होती है। चोरी और बिना ऐडिट के समाचार-लेख प्रकाशित करते हैं। एक ऐसा ही अखबार है जिसका नाम है ‘जगतक्रांति‘। यह अखबार हरियाणा के जींद से निकलता है।
जगतक्रांति अखबार ने एक जनवरी 2013 को ‘तेलंगाना पर आग-पानी का खेल‘ नामक शीर्षक मेरे लेख को किसी दूसरे के नाम से छाप दिया और खंडन भी नहीं छाप रहा है।
क्या ऐसे अखबारों और उनके मालिकों के खिलाफ सरकारी कार्यवाही नहीं होनी चाहिए, क्या प्रेस परिषद जैसे नियामकों को स्वयं संज्ञान नहीं लेना चाहिए? (पत्रकार और स्तंभकार विष्णुगुप्त के वॉल से)