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ये च्यवनप्राश पत्रकारिता का काल है.

1. ये च्यवनप्राश पत्रकारिता का काल है. कोशिश है कि किसी तरह कड़ाके की ठंड के बीच गर्माहट पैदा हो. मेनस्ट्रीम मीडिया के लिए मोहन भागवत और आसाराम बापू जैसों के अंट-शंट बयान मुलेठी,दालचीनी का काम कर रहे हैं. इन सभी बुद्धि-दूहन में होड़ इस बात की है कि मुलेठी,अदरक से निकलकर अश्वगंधा कौन बने.

आप सबों से अपील है कि आजतक, जी न्यूज और एबीपी च्यवनप्राश के बजाए घर के बने च्यवनप्राश का सेवन करें. अर्थात् खबर अगर धंधा है तो प्लीज खबरों की कुटीर उद्योग की तरफ लौटिए और ऐसी वाहियात बयानबाजी से एफबी की दीवारें रंगने के बजाय इन्हें इग्नोर कीजिए. बिना वजह इन्हें जातिवाचक से व्यकितवाचक संज्ञा न बनाएं.

2.क्या मीडिया में व्यक्तिगत स्तर की ईमानदारी की कोई जगह नहीं होती ? मीडिया संस्थान अगर खुद ही इतने घोटालों,बेईमानी,धोखाधड़ी,चालबाजी और शोषण के अड्डे के रुप में आरोपों से घिर चुका है तो वहां साफ-सुथरी छवि के मीडियाकर्मी के होने-न होने के कोई खास मायने नहीं होते. आप सवाल करेंगे कि जब वो सिस्टम को सुधार ही नहीं सकता तो हम उनकी ईमानदारी का अचार डालेंगे ?

बीजेपी का मतलब टीआरपी

बेंगलुरु।। भारतीय जनता पार्टी का कहना है कि बीजेपी का मतलब टीआरपी है। बीजेपी के खिलाफ खबरें दिखाकर टीवी चैनल टीआरपी बटोर रहे हैं।

पार्टी की राष्ट्रीय प्रवक्ता निर्मला सीतारमण ने बताया कि 24 घंटे चलने वाले टीवी चैनलों के आने से मीडिया हमेशा राजनेताओं और कार्यकर्ताओं पर नजर रखता है। खासकर आप अगर बीजेपी नेता हों तो आप पर अधिक नजर रहती है।

कर्नाटक बीजेपी की ओर से आयोजित एक मीडिया कार्यशाला में निर्मला ने कहा, ‘मैं मीडिया की मौजूदगी में कहूंगी कि बीजेपी का मतलब टीआरपी है।

उनके मुताबिक बीजेपी के पक्ष में दिखाई जाने वाली खबरों को 30 फीसदी दर्शक देखते हैं जबकि पार्टी के खिलाफ दिखाई जाने वाली खबरों को शत प्रतिशत दर्शक देखते हैं।

निर्मला ने कहा कि बीजेपी से लोगों की उम्मीदें अधिक हैं इसलिए आम आदमी सोचता है कि बीजेपी कैसे खराब प्रदर्शन कर सकती है और गलत काम कर सकती है। उन्होंने यह भी कहा कि मीडिया को दोष देने के बजाय बीजेपी को सतर्क रहना चाहिए। (भाषा)

पुण्य प्रसून बाजपेयी 'आपातकाल' के असर से निकले, बीईए पर बरसे

aaj tak rape charges नव वर्ष में एक अच्छी खबर है. पुण्य प्रसून बाजपेयी आपातकाल से निकल आये हैं और तलवार खींच कर मैदान में भी आ गए हैं. आते ही बीईए की खबर ली. बीईए के स्वनियमन के पैटर्न से वे नाराज हैं और इसलिए दिल्ली सामुहिक दुष्कर्म मामले में न्यूज़ चैनलों के कवरेज को लेकर अपने लेख में संस्थान की खूब लानत – मलानत की है.

पुण्य प्रसून लंबे समय से चुप्पी साधे हुए थे. तब भी चुप थे जब उगाही मामले में ज़ी न्यूज़ पेड न्यूज़ के सबसे बड़े दलदल में धंस चुका था और जब बोले तो उगाही के आरोपी संपादक की गिरफ्तारी को आपातकाल करार दिया और अंतर्ध्यान हो गए. मानों आपातकाल में वे खुद ही भूमिगत हो गए हों. हो – हल्ले के बाद भी उनकी तरफ से एक लाइन का कमेंट तक नहीं आया. लेकिन अब जब उन्होंने पत्रकारिता से संबंधित लेख लिखा है तो बीईए की लानत – मलानत की है और ब्लैकमेलिंग के आरोपी सुधीर चौधरी की एक तरह से तारीफ़ की है.

अगुआ बने अनुरंजन झा !

शीर्षक देखकर चौंकिये नहीं. वाकई में अनुभवी टेलीविजन पत्रकार अनुरंजन झा अगुआ बन गए और अब शादियाँ करवाएंगे. लेकिन वे परंपरागत तरीके से अगुअई नहीं करने वाले हैं. बल्कि टेलीविजन के माध्यम से शादियाँ करवाएंगे. कंवारे और शादी के इच्छुक लोगों के लिए जल्द ही देश का पहला ‘वेडिंग चैनल’ लॉन्च होने वाला है जिसका नेतृत्व अनुरंजन झा करेंगे. चैनल का नाम ‘शगुन’ है.

द संडे गार्डियन में छपी खबर :

India to get matrimonial TV channel

You will soon be able to broadcast your dream wedding on television. Shagun, India’s first 24-hour wedding channel will feature everything to do with weddings. The channel that goes live next month will provide wedding related solutions such as wedding planning guides and advertising wedding alliances.

न्यूज़ चैनलों को फैक्ट्री का दर्जा मिले

न्यूज़ चैनल खोलना है तो सबसे पहले एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी और बड़ी पूँजी की जरूरत होती है. इस पूँजी की व्यवस्था मालिक करता है. ऐसे में मालिक की नज़र बैलेंस शीट पर पहले होती है और मीडिया एथिक्स पर बाद में.

लाभ कमाना और अपनी लागत को वसूलना उसका पहला ध्येय होता है. प्रणव रॉय से लेकर राघव बहल और सुभाष चंद्रा तक ने यही किया और बड़ा मीडिया एम्पायर खड़ा किया.

बाकी भी यही कर रहे है. लाभ कमाना सर्वोपरि है और एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के लिहाज से इसमें कुछ भी गलत नहीं है.

कोई भी कंपनी सरोकार के इरादे से बाजार में नहीं उतरती. वह बिजनेस करने और अपने ब्रांड को टॉप लेवल तक ले जाने के ईरादे के साथ आता है.

न्यूज़ भी अब एक प्रोडक्ट की तरह है जिसका उत्पादन न्यूज़ चैनल नाम के फैक्ट्री में होता है. सो इसे उतने ही अधिकार दिया जाना चाहिए जितनी किसी फैक्ट्री और प्रा.लि.कंपनी को मिलते हैं. इससे नैतिकता की बहस को विराम मिलेगा.

वैसे भी नीरा राडिया प्रकरण से ब्लैकमेलिंग प्रकरण तक , साख और नैतिकता बची कहाँ?

रही बात संपादक की तो उसका संपादकीय प्राइवेट लि.कंपनी के निर्देश के दायरे में ही सीमित होकर रह गया. नौकरी के आगे उसका स्टैंड गौण है. ऐसे में ये जरूरी है दोराहे पर चलने की अपेक्षा न्यूज़ इंडस्ट्री एक राह पर चले. या तो नैतिक रास्ते पर चले या फिर पूँजी के रास्ते पर.

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