न्यूज़ चैनलों की दुनिया में निशांत चतुर्वेदी जाना – पहचाना नाम है. बतौर एंकर उनकी अपनी एक खास पहचान है. दमदार आवाज़ और विश्वास से भरे निशांत तमाम एंकरों की भीड़ में अपनी अलग पहचान रखते हैं. लेकिन अब उनकी भूमिका बदल गयी है. अब वे देश के पहले एचडी समाचार चैनल ‘न्यूज़ एक्सप्रेस’ के चैनल हेड हैं. चुनौतियाँ उन्हें पसंद हैं. हार मानना जानते नहीं. तभी धराशायी हो चुके चैनल वीओआई के गर्त से न्यूज़ एक्सप्रेस के चैनल हेड तक का सफर तय कर पाए. युवा पत्रकारों पर भरोसा करते हैं. प्रयोगधर्मी हैं. उत्साह से भरे हैं. चैनल हेड वाला अहंकार अबतक उनपर चढ़ नहीं पाया है. ऊंचाई पर पहुंचकर जमीन की हकीकत का उन्हें अंदाज़ा रहता है. तभी बड़ी विनम्रता और कुछ हद तक बेफिक्री से कहते हैं कि आज चैनल हेड हैं, कल रहे ना रहे, क्या फर्क पड़ता है? कॉफी हाउस चलाएंगे, जहाँ वे खुद कॉफी बनाकर लोगों को पिलाना चाहते हैं. बहरहाल आजकल वे युवा पत्रकारों की टोली के साथ न्यूज़ एक्सप्रेस में ब्रेकिंग न्यूज़ और महाखबर के बीच ‘बड़ी खबर’ के लिए रास्ते तलाश रहे हैं. मीडिया खबर डॉट के संपादक पुष्कर पुष्प ने हाल ही में उनसे उनके पत्रकारिता जीवन और न्यूज़ एक्सप्रेस में उनकी भूमिका को लेकर बातचीत की. पेश है न्यूज़ एक्सप्रेस चैनल के चैनल हेड ‘निशांत चतुर्वेदी’ से मीडिया खबर.कॉम के संपादक ‘पुष्कर पुष्प’ की बातचीत.
दाल में तड़का हो, तड़के में दाल न हो – निशांत चतुर्वेदी
Media Khabar (MK) : चैनल हेड के रूप में आपकी पहली पारी है. न्यूज़ एक्सप्रेस के चैनल हेड के रूप में सात महीने हो चुके हैं. कितनी चुनौतीपूर्ण रही. क्या अंतर महसूस करते हैं?
Nishant Chaturvedi (NC) : देखिए इस पोस्ट के लिए नेट प्रैक्टिस अलग – अलग स्तर पर पहले ही हो चुकी थी. वीओआई चैनल मैं न्यूज़ एडिटर के रूप में पहले काम कर चुका हूँ. वहां भी लगभग यही जिम्मेदारियां थी. बहर हाल वह चैनल बाद में बंद हो गया लेकिन उस चैनल ने हमलोगों को बहुत कुछ सीखा दिया. वहां सबसे अच्छी चीज सीखने को ये मिली कि कम रिसोर्स में ज्यादा काम कैसे किया जाता है. जब ये चीज समझ में आ गयी तो ये अपने आप बहुत सारी चीजें समझ में आ गयी. इसके अलावा अलग – अलग चैनलों में काम का अनुभव भी काफी कुछ सीखा गया. चैनल हेड के रूप में मैन मैनेजमेंट (Men Management) बेहद महत्वपूर्ण होता है और मुझे शुरू से इसमें काफी दिलचस्पी रही है. हालांकि सामान्य रूप से किसी चीज को मैनेज करना और बतौर चैनल हेड के रूप मैनेज करने में काफी अंतर है. बहुत सारे लोगों को साथ लेकर चलना पड़ता है और कोशिश होती है कि वे अपना बेस्ट दें. मेरी कोशिश होती कि काम करने वाले अपना श्रेष्ठ दें और इसके लिए मेरी तरफ से छूट रहती है कि आप अपने मन का काम करो. वैसे मेरा मानना है कि ज्यादातर मामलों में लोग दो वजहों से अपना श्रेष्ठ नहीं दे पाते. पहला, काम में ही दिलचस्पी नहीं है. दूसरा, फायनेंसियल प्रॉब्लम है. काम में दिलचस्पी नहीं है तो मेरी कोशिश होती है कि आप ऐसा काम कर के देख लें जिसमें आपकी दिलचस्पी है. क्योंकि मेरा मानना है कि मन का हो तो अच्छा होता है. फायनेंसियल, हमलोगों ने सबसे पहले बोनस दिया और बढ़िया इन्क्रीमेंट भी दिया. यही वजह है कि हमारी टीम भी अच्छी तरह से रिसपौंड कर रही है.
MK : आपकी पहचान एक एंकर के रूप में है. अब चैनल हेड हैं. दोहरी भूमिका में आप इंसाफ कर पाते हैं?
NC : मेरे लिए अब एंकरिंग हमेशा सेकेंडरी है. थोड़ी अजीब बात है लेकिन एंकरिंग अब मेरे लिए ब हुत – बहुत सेकेंडरी है.
MK : क्या दर्शकों के साथ ये नाइंसाफी नहीं है? आप बतौर एंकर अपना 100% नहीं दे पाते.
NC : वास्तविकता ये है कि जब मैं एंकरिंग करता हूँ तो उस वक्त सिर्फ एंकर होता हूँ. लेकिन मेरा मानना है कि दर्शकों के साथ कोई नाइंसाफी नहीं होती बल्कि एक एंकर के रूप में चीजों को देखने का नजरिया और व्यापक हो जाता है. यदि मैं ये सोंचू की हरेक कार्यक्रम की एंकरिंग मैं ही करूँ और दूसरे एंकरों को मौका न दूं तो ये नाइंसाफी होगी. वैसे सबसे बड़ी जस्टिस तो तब होगी जब हम अच्छा कंटेंट देंगे.
MK : ज़ी जिंदल विवाद प्रकरण के बाद चैनल हेड – संपादक की भूमिका पर सवाल उठे हैं? आप पूरे प्रकरण को किस तरीके से देखते हैं? क्या आपको लगता है कि संपादक की भूमिका बदल अब बदल गयी है? संपादकों को कंटेंट से साथ बिज़नेस को भी चाहे – अनचाहे देखना ही पड़ता है.
NC : देखिए मैं इसके साथ हूँ या विरोध में हूँ, इसपर कुछ नहीं कहूँगा. मैं चाहूँगा कि आप खुद ही समझें. लेकिन यदि परत – दर – परत इसका विश्लेषण करें तो काफी कुछ स्पष्ट हो जायेगा. चैनलों के लिए अगर कोई कंटेंट बनाते हैं तो व्यूअर को ध्यान में रखकर बनाते हैं. लेकिन सच ये हैं कि हम वही बनाते हैं जो हमें अच्छा लगता है. क्योंकि टीआरपी रेटिंग्स के बाद दर्शक क्या देखना चाहता है , इस बारे में हमें कुछ पता नहीं. क्योंकि इस संबंध में सही जानकारी देने वाली कोई संस्था नहीं. मसलन आपके घर में कोई खाना खाने आएगा तो आप निश्चित रूप से उसे अच्छा खाना ही खिलाएंगे. उसकी मनपसंद की चीजें ही खिलाते हैं. यदि हमें नहीं पता होता है तो हम फोन करके पूछ लेते हैं. यही काम दर्शकों के साथ भी करने की हमारी कोशिश होती है. क्या ये बिजनेस नहीं है कि हम दर्शकों को उनके हिसाब का कंटेंट दिखाएँ? यदि दर्शकों को उनके हिसाब का कंटेंट दिखायेंगे और दर्शक आपके चैनल को देखेंगे तो निश्चित तौर पर आपके विज्ञापन यानी बिज़नेस पर भी असर पड़ेगा. संपादक या चैनल हे ड का काम ऐसे ही कंटेंट को तैयार करना है. इस लिहाज से देखें तो चैनल हेड या संपादक बहुत पहले से ही प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर बिज़नेस में ही है. हाँ इसे लेकर अलग – अलग एडिटर का अलग –अलग विजन हो सकता है. दादा (कमर वहीद नकवी) का नजरिया बिलकुल अलग था और इसके लिए मैं उन्हें सैल्यूट करता हूँ. उन्होंने सबसे पहले ‘धर्म’ नाम का एक कार्यक्रम शुरू किया. उस वक्त कई लोगों को लगा कि ये क्या कर रहे हैं? तब तक धर्म को लेकर भी ख़बरें हो सकती है किसी ने सोंचा भी नहीं था. आज देखिए हरेक चैनल पर धर्म का एक न एक शो जरूर होता है. दूसरा उदाहरण सुप्रिय प्रसाद का ले सकते हैं. एडिटर अमूमन अपने कमरे में ही रहते हैं. लेकिन वे एक ऐसे एडिटर हैं जो पीसीआर में घुस जाते हैं. सुप्रिय सर से पहले एक एडिटर को पीसीआर में मैंने कभी इमेजिन ही नहीं किया था. लेकिन उनका पीसीआर में घुसना मैन मैनेजमेंट का उदाहरण है. अपने अनुभव के आधार पर इन्हें दर्शकों की रूचि का अंदाज़ा है. एक ही चैनल के दो एडिटरों का मैंने आपको उदाहरण दिया. दीपक चौरसिया का उदाहरण लें तो दीपक की मॉस कम्युनिकिटी इतनी हाई है कि दर्शक उनसे आसानी से जुड़ जाते हैं. विनोद जी (विनोद कापड़ी) आप उनको एक छोटा सा विजुअल दे दीजिए. वह उसकी स्टोरी आपको ऐसे बताएँगे कि कोई वैसे बता ही नहीं सकता. ये वो लोग हैं जिन्होंने अपना एक बैंचमार्क सेट किया. कहने का मतलब है कंटेंट के माध्यम से ही सही लेकिन हर कोई अपने – अपने तरीके से बिज़नेस को हिट कर रहा है. हाँ जहां तक सवाल ये है कि एडिटर को सीधे – सीधे बिजनेस रोल में उतरना चाहिए की नहीं तो ये पूरी तरह से मैनेजमेंट पर निर्भर करता है. अगर ग्रुप ऐसा करना चाहता है तो वो करेंगे और उसी हिसाब से वो अपने चैनल के संपादक या चैनल हेड के नाम पर विचार करेगा.
MK : लेकिन पत्रकारीय दृष्टिकोण से क्या ये ठीक होगा कि संपादक और बिज़नेस हेड एक ही हो. ज़ी न्यूज़ के रूप में एक बड़े चैनल में ये प्रयोग हुआ और उसका नतीजा हमारे सामने है. यदि ज़ी – जिंदल प्रकरण में एक बिज़नेस हेड ऐसा करता तो शायद इतने सवाल नहीं उठते?
NC : इंडिया टीवी जब मैं छोड़ रहा था तब रजत जी से मेरी बात हुई. उस दौरान कोई इंडिया टीवी में विज्ञापन देना चाहता था और उसी सिलसिले में बात करना चाहता था. यही बात मैंने रजत जी से कही. लेकिन उन्होंने जो कहा वह मेरे लिए थोड़ा चौकाने वाला रहा. उन्होंने कहा कि निशांत हमारी जो सेल्स और मार्केटिंग टीम है, उसपर ये काम छोड़ दो. ये रजत शर्मा कह रहे थे जो इंडिया टीवी के मालिक भी हैं. उन्होंने चीजों को अलग – अलग करके रखा हुआ है. लेकिन हर जगह सबकुछ अलग –अलग नहीं होता. अभी जबकि हमारी शुरुआत ही हुई है और प्रारम्भिक दौर से ही हम गुजर रहे हैं तो इस बारे में व्यक्तिगत तौर सही – गलत पर तो टिप्पणी नहीं कर सकता. लेकिन इतना जरूर कह सकता हूँ कि इसमें ग्रुप की पॉलिसी सबसे महत्वपूर्ण है. यदि ग्रुप चाहेगा तो चैनल हेड को ऐसा करना ही पड़ेगा. फोकस क्या करना है , ये स्पष्ट होना जरूरी है तो काम बिलकुल ठीक होता है. लेकिन ये बात सही है कि दो नावों पर एक साथ सवारी नहीं की जा सकती.
MK : चैनल के युवा संपादकों में आपका नाम भी शुमार है. न्यूज़ एक्सप्रेस में बतौर चैनल हेड के रूप में काम करते हुए तक़रीबन छह महीने आपको हो चुके हैं. आपने क्या देखा – समझा और अपनी राय कायम की ? आगे चैनल के कंटेंट और रूपरेखा को लेकर किस तरह की योजना है? सबसे बड़ी चुनौती क्या मानते हैं ?
NC : हाँ न्यूज़ एक्सप्रेस में चैनल हेड के रूप में मेरे सात महीने पूरे हो चुके हैं जो इस काम के लिहाज से बहुत कम हैं. लेकिन इतने समय में एक बात का मैं और अधिक पक्षधर हो गया कि दर्शकों का सम्मान होना चाहिए . दूसरी महत्वपूर्ण बात कि दर्शक बेवकूफ नहीं होता. यदि मैंने आज कुछ बेवकूफी की खबर दिखाई तो दर्शक तत्काल चैनल बदल देगा और वापस लौटेगा की नहीं, पता नहीं. उस दृष्टिकोण से न्यूज़ एक्सप्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती है कि दूसरे चैनलों की कॉपी किए बगैर दर्शकों को कैसे अपने चैनल पर रोके रखे. इसलिए हमने एक इन्टरनल मैकेनिज्म बनाया है और जिसके तहत इन हाउस हरेक दो घंटे पर दस नयी ख़बरें हम जेनरेट करते हैं. इसका उद्देश्य ये होता है कि चैनल एक आइडियोलॉजी पर चल रहा है और हम ये कर रहे हैं . ये मेल इनपुट – आउटपुट से लेकर डेस्क पर बैठे एडिटर तक जाता है. अगले छह महीने में हमारी यही योजना है कि प्रेजेंटेशन के साथ अच्छा कंटेंट तैयार करना. ‘दाल में तड़का हो, तड़के में दाल न हो.’ इसके अलावा हमारी कोशिश होगी कि दूसरे चैनलों की अपेक्षा हम ज्यादा तेजी से ख़बरों को लेकर एक खास एंगल लें.
MK : अक्सर अपेक्षाकृत नए और छोटे चैनलों की शिकायत होती है कि उन्होंने अमुक खबर पहले दिखाई, लेकिन बड़े चैनल ने क्रेडिट मार लिया. अफजल गुरु के मामले में एक अपेक्षाकृत छोटे चैनल का दावा था कि फाँसी की खबर उसने ब्रेक की , लेकिन बड़े चैनल ने ‘सबसे पहले’ की पट्टी लगाकर उसका हक मार लिया. इस संदर्भ में आप की क्या राय है?
NC : मैं सिर्फ एक बात कहूँगा. छोटे चैनल यदि अच्छा कंटेंट दिखा रहा है, ख़बरें पहले दिखा रहा है तो उसकी मार्केटिंग क्यों नहीं करता? आपको अपने चैनल की मार्केटिंग करनी पड़ेगी. इंडिया टीवी इसका बेहतरीन उदाहरण है. उसने शुरू से अपनी मार्केटिंग की. ठीक इसी तरह जब आजतक शुरू हुआ तो उसने बड़ा ही तेज चैनल है, से अपनी मार्केटिंग की. फिर सबसे तेज टैगलाइन बनाकर मार्केटिंग की गयी. यानी कंटेंट के अलावा उसकी मार्केटिंग के लिए आपको नए आइडियाज डेवलप करने होंगे.
MK : आपने इंडिया टीवी का जिक्र किया. पहले लोग कहते थे कि भले टीआरपी में वह टॉप पर पहुँच जाए. लेकिन मार्केट उसके कंटेंट और ब्रांडिंग को ख़ारिज कर देगा. मगर ऐसा हुआ नहीं. मार्केट में उसकी स्वीकार्यता बढ़ी. आपकी नज़र में कैसे संभव हुए ये?
NC : ये सब एक शख्स के इमेजिनेशन की वजह से संभव हो पाया. ये शख्स रजत शर्मा हैं. मुझे याद है कि एकबार मैंने भी ये सवाल उनसे पूछा था. उन्होंने जवाब दिया था कि जब सारे मार्केटिंग वाले कहीं मीटिंग में बैठा करते थे तो विज्ञापनदाता से कहते थे कि हम इंडिया टीवी नहीं, हम इंडिया टीवी नहीं हैं. विरोधी मार्केटिंग वाले ही इंडिया टीवी का इतना नाम ले लेते थे कि सामने वाला सोंच में पड़ जाता था कि देखो इसके विरोधी ही इसका इतनी बार नाम ले रहे हैं. ये एक वजह थी और उन्होंने काफी ज्यादा धैर्य भी दिखाया. न्यूज़ के बिज़नेस में बहुत ज्यादा धैर्य की जरूरत होती है.
MK : लेकिन रजत शर्मा ने इंडिया टीवी के माध्यम से पूरे न्यूज़ के स्ट्रक्चर को तोड़ दिया और उसे गलत दिशा दे दी.
NC : देखिए मैं उनको न तो डिफेंड कर रहा हूँ और न उनकी तरफदारी. मैं यहाँ बात कर रहा हूँ मेंजेरियल स्किल्स और नेतृत्व क्षमता की. इसी की बदौलत उन्होंने इंडिया टीवी को खड़ा किया. ठीक इसी तरह अरुण पूरी और उदय शंकर ‘सर’ ने भी किया. टेलीविजन के ये तीन लीजेंड्स हैं. इनको हम कहीं से भी इग्नोर नहीं कर सकते. तीनों ने अपने –अपने तरीके से नए मापदंड तय किए. उदय शंकर जी ही वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सबसे पहले दिल्ली में हुए बम ब्लास्ट की कवरेज के लिए चप्पे – चप्पे पर अपने एंकर – रिपोर्टरों को खड़ा कर दिया. हेलिकॉप्टर से मुंबई फ्लड की कवरेज की. ये उनका विजन था. लेकिन इन सब में कॉमन है उनका गजब का धैर्य और किसी भी परिस्थिति में समान गति से काम करने की अदभूत क्षमता. न्यूज़ इंडस्ट्री में इन चीजों का बड़ा महत्त्व है.
MK : अब थोड़ा प्रोफेशनल से पर्सनल में आते हैं. पत्रकारिता के पेशे में कैसे आ गए? क्या शुरू से ही टेलीविजन एंकर बनना चाहते थे?
NC : नहीं. एंकर बनने के बारे में कभी सोंचा नहीं था. हाँ मुझे रेडियो का शौक था. पहले मैं ऑल इंडिया रेडियो एफएम में रेडियो जॉकी था. स्पोर्ट्स में भी अच्छा था. 100 मीटर लॉन्ग जंप में उस वक्त मैं नेशनल चैम्पियन था. बहरहाल ये सब करते हुए अचानक एक दिन मुझे पता चला कि आजतक लॉन्च हो रहा है. माने 24 घंटे का हो रहा है. उस वक्त ‘अल्टा –विस्टा’ नाम की वेबसाईट की मदद से अपना बायोडाटा बनाया और आजतक , ज़ी न्यूज़ और एनडीटीवी (उस वक्त स्टार के लिए ख़बरें बनाते थे) में एप्लाय कर दिया. मेरा कॉलेज उस वक्त तक खत्म हो चुका था और मैं अपने एमबीए के रिजल्ट की प्रतीक्षा कर रहा था. एक – दो जगह हुआ भी था. मगर कोर्स फी काफी महँगी थी. उसी वक्त ज़ी न्यूज़ में मुझे मौका मिल गया. फिर ट्रेनिंग शुरू हुई.उस वक्त सिद्धार्थ शर्मा भी वहीं थे और उनकी ट्रेनिंग खत्म हो चुकी थी. उनको मुझे ट्रेंड करने का ज़िम्मा दिया गया था. फिर मेरी ट्रेनिंग पूरी हुई और बतौर स्पोर्ट्स एंकर ज़ी न्यूज़ से सफर की शुरुआत. फिर पॉलिटिकल न्यूज़ भी करने लगे और उसके बाद वर्ल्ड न्यूज़. उस वक्त मेरी बॉस नीति हुआ करती थी और निधि कुलपति जी ने मुझे हायर किया था. इस दौरान 9/11 और संसद पर अटैक की घटना को कवर किया. एक बार जब रिपोर्टिंग शुरू हो गयी तो फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. ज़ी न्यूज़ के बाद डीडी न्यूज़ में मैं चला गया. वह मेरे करियर का टर्निंग पॉइंट था. 22 साल की उम्र में मेरे पास पीआईबी कार्ड था और 9/11 जैसी घटनाओं की कवरेज का अनुभव. डीडी न्यूज़ में जबरदस्त अंतर्राष्ट्रीय कवरेज का अनुभव मिला. उसके बाद आजतक में चला गया.
MK : लेकिन मुझे जहाँ तक याद है कि आप एक महीने के लिए स्टार न्यूज़ में भी गए थे? फिर उसके स्क्रीन पर एंकरिंग किए बिना ही वापस लौट गए.
NC : हाँ. स्टार न्यूज़ में मैं गया था. इस दौरान बाला साहब ठाकरे और शाहरुख खान का इंटरव्यू लिया. उस वक्त स्टार का हेड ऑफिस मुंबई में हुआ करता था. लेकिन कुछ व्यक्तिगत कारणों से मुझे दिल्ली लौटना पड़ा. सिर्फ बीस दिन ही मैंने वहां काम किया और फिर दिल्ली लौट गया. इसका मेरे करियर पर बुरा असर पड़ा और मैं कहीं टिकता नहीं, ऐसे ताने भी सुनने पड़े. मेरी इमेज ‘रोलिंग स्टोन’ की बन गयी. बहरहाल उसके बाद मैं सहारा में गया और वहां तीन साल से कुछ ऊपर समय तक रहा. फिर वीओआई में ………..(ये कहते हुए निशांत कुछ सोंचने लगते हैं).
MK : वीओआई का अनुभव कैसा रहा? इंडस्ट्री में लोग उस चैनल के पतन को ‘डिजास्टर’ की तरह देखते हैं. बहुत सारे पत्रकारों का करियर तबाह हो गया.
NC : करियर तबाह ही नहीं हो गया, बल्कि कई लोगों की जिंदगी बदल गयी. एक नाम आपको याद होगा ‘अशोक उपाध्याय’. उनकी चैनल के दफ्तर में मौत हो गयी थी.
(कुछ पलों की ख़ामोशी और फिर लंबी सांस लेते हुए निशांत कहते हैं)
आज भी हमलोग अशोक जी को याद करते हैं. दरअसल वीओआई खोलने का इरादा बहुत प्यारा था. लेकिन उसके उलट जो वीओआई में हुआ वह बहुत ‘सैड’ था. समय पर पैसे नहीं मिलना. कोई विजन नहीं. हाँ लेकिन वहां जो मेरे दोस्त बने वे मेरे जिंदगी भर के दोस्त हैं. वे मेरे दुख के दिनों के साथी हैं. आज हम सब अलग – अलग जगहों पर हैं लेकिन वीओआई ने हम सब को अपने करियर में पांच साल पीछे धकेल दिया. मैंने इंडिया टीवी पुरानी डेजिगनेशन और पुरानी सैलरी से भी कम सैलरी पर ज्वाइन किया. ऐसे हम सब अपने करियर में काफी पीछे चले गए. लेकिन उस अनुभव ने हमें बहुत कुछ सीखा दिया. बहुत मजबूत किया. मैं उस अनुभव को बहुत ही पॉजीटिव तरीके से लेता हूँ. हाँ लेकिन एक चीज जो पॉजीटिव नहीं थी वो अशोक जी की मौत …. उसने तोड़ दिया. दुःख की बात है कि वीओआई के मालिकों ने उस मामले में भी चीटिंग की. उनकी मौत के बाद जो – जो कमिटमेंट मैनेजमेंट ने किया था वो भी कभी पूरा नहीं किया. दुआओं में बड़ी ताकत होती है और बददुआओं में भी. इस लिहाज से वीओआई के मैनेजमेंट ने वो बहुत गलत किया.
MK : वीओआई के फ्लॉप होने की क्या वजह आप मानते हैं? पैसा तो उन्होंने शुरूआती दौर में भरपूर लगाया.
NC : दरअसल उन्हें (चैनल के मालिकों को) किसी के विजन में यकीन करना चाहिए था. ‘मधुर मित्तल’ (वीओआई के मालिक) को थोड़ा और धैर्य दिखाना चाहिए. क्योंकि लोगों का बहुत नुकसान हुआ. लोग तबाह हो गए. सोंचिये ‘वीओआई’ का ‘न्यूज एडिटर’ आपसे ऐसी बात कर रहा है. बाकियों का क्या हाल होगा. हमलोग दस – दस , पन्द्रह – पन्द्रह रूपये इकठ्ठा कर – कर के मैगी खाते थे. किसी के घर में बच्चा होने वाला है तो चुपके से कोई पैसा दे देता था कि दे देना और पता भी नहीं लगने देते. कई सीनियर लोगों के बीस – तीस हज़ार रूपये न्यूज़रूम में घूम रहे थे, आजतक वापस नहीं हुए. राहुल कुलश्रेष्ठ, विवेक बख्शी, जे पी दीवान, किशोर मालवीय आदि कई सीनियर्स ने वहां के पत्रकारों को हजारों रुपये दिए जो कभी वापस नही हुए. ये इनलोगों का बड़प्पन है. इसके अलावा मीडिया स्कूल के बच्चों का करियर भी बर्बाद कर दिया. बच्चों ने कितने ख्वाब से ज्वाइन किया था. आज उनमें से बहुत सारे बच्चे कॉल सेंटर में काम कर रहे हैं. उनके लिए जीवन में कुछ भी निश्चित नहीं कि उनका करियर कहाँ जाएगा. एक लाइन में कह सकता हूँ कि दरअसल वो तो नाईटमेयर भी नहीं था. इससे बुरा और क्या हो सकता है. हाँ अंदर से हमलोगों को मजबूत जरूर कर दिया. आज देखिए मीडिया में अपने करियर को लेकर जब भी चिंता होती है हमलोग कहते हैं कि ज्यादा – से – ज्यादा क्या होगा, वीओआई होगा. मतलब न्यूज़ इंडस्ट्री में ‘वर्स्ट’ की परिभाषा वीओआई बन गया है.
MK : आज आप एक राष्ट्रीय चैनल ‘न्यूज़ एक्सप्रेस’ के चैनल हेड हैं. लेकिन वीओआई में रहते हुए घोर निराशा के क्षणों में ऐसा कभी लगा कि अब वापसी मुमकिन नहीं. ऐसा कई पत्रकारों के साथ हुआ भी . आपकी न्यूज़ इंडस्ट्री में वापसी कैसे हुई?
NC : एक शख्स का इसके लिए मैं तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ. वह शख्स हैं इंडिया टीवी के मैनेजिंग एडिटर ‘विनोद कापड़ी’. माना इंडिया टीवी में जाने के बाद मेरी सैलरी – डेजिगनेशन कम हो गयी, लेकिन मुझे नौकरी तो मिली. विनोद जी के अलावा रजत जी (रजत शर्मा) ने भी मुझे विश्वास दिखलाया. ये एहसान मैं कभी नहीं भूलूँगा. रजत जी का बड़प्पन है कि उन्होंने मेरा नाम अप्रूव कर दिया.
MK : लेकिन इंडिया टीवी में जाकर आपको काफी बदलना पड़ा होगा. वहां एंकर को कभी हाथ में जलेबी की थाली लेकर बजट को पेश करना पड़ता है तो कभी तरबूज बम….?
NC : कुछ उदाहरणों को छोड़ दें तो ऐसा नहीं है. मैं इंडिया टीवी में भी इंडियन एक्सप्रेस पढता था. उनकी जो खबर होती थी उसपर मेरा भी अपना व्यू पॉइंट होता था. हाँ कई बार पेश करने के तरीके पर ये जरूर लगता था कि हम ये क्या कर रहे हैं. उदाहरणस्वरुप मैंने कभी मांस – मछली नहीं खाया, पर एक बार हाथ में मरी हुई मछली लेकर मैं एंकरिंग कर रहा था. बदबू भी आ रही थी लेकिन मेरा काम था सो करना ही करना था. लेकिन इंडिया टीवी की खासियत है कि उन्होंने पहले ही मुझे बता दिया कि आपको क्या करना है और क्या नहीं करना है? बदलाव के नाम पर मैंने इतना किया कि मुझे जितना बोला जाता था वो करता था. लेकिन बजट की खबर पेश करते समय हाथ में जलेबी की थाली लिए हुए भी मैं अपना इकोनोमिक टाइम्स का लीड आउट जरूर मारता था. डीडी ज्वाइन करने से पहले बीबीसी से एक महीने की मेरी ट्रेनिंग हुई. उसके बाद फोक्स स्टूडियो और स्काय न्यूज़ के दफ्तर भी गया. वहां देखा कि कैसे काम होता है. फिर इंडिया टीवी में देखा कि कैसे काम होता है. फिर आप देख रहे हैं कि आजतक में कैसे काम होता है. आजतक में हर कुछ बहुत अधिक सिस्टेमेटिक है. इतना अधिक सिस्टेमेटिक कि कई बार हैरत होती है कि कोई चैनल इतना अधिक व्यवस्थित कैसे हो सकता है? कहने का मतलब है कि हरेक चैनल का अपना एक प्लस पॉइंट है और उसी के हिसाब से उसका काम करने का तरीका. इंडिया टीवी की खासियत है कि वह सीमित संसाधनों में बेहतरीन काम करता है. सीमित संसाधनों में वे चैनल को कहाँ –से- कहाँ ले गए. ख़ैर अब तो वे भी न्यूज़ पर धीरे – धीरे आ रहे हैं. हाँ लेकिन परसेप्शन चेंज होने में अभी समय लगेगा.
MK : न्यूज़ चैनलों में कौन सा चैनल देखना आप पसंद करते हैं?
NC : सीएनएन मेरा फेवरेट चैनल है. हमेशा से रहा है. हिंदी चैनलों में आजतक को भी देखकर मजा आ रहा है. आजकल चैनल बहुत बढ़िया हो गया है. मेरी कोशिश होती है कि एक बार रात में कोई एक बुलेटिन देख लूँ. हां लेकिन सीएनएन देखना कभी मिस नहीं करता.
MK : आप खुद युवा हैं. लेकिन युवा पत्रकारों के बारे में बौद्धिक जगत में आम राय बन गयी है कि नए टेलीविजन पत्रकार पढते – लिखते नहीं और उसका सीधा असर गंभीर विषयों (आशीष नंदी प्रकरण, भारत – पकिस्तान के बीच संबंध) वाली ख़बरों में दिखाई देता है.
NC : देखिए मैं हरेक बात की तह में जाकर चीजों को देखता हूँ. नए टेलीविजन पत्रकार यदि पढते नहीं तो इसके जिम्मेदार एडिटर्स हैं. कारण ये है कि वे 12 घंटे नौकरी करते हैं. कम – से कम एक – डेढ़ घंटा ट्रैवल करता है. घर पर जाएगा – नहायेगा – खायेगा. यानी दो घंटे और…. मतलब साढ़े पंद्रह घंटे. यानी उसके पास लगभग नौ घंटे बचे. अब उस नौ घंटे में आप उम्मीद करते हैं कि वो बैठकर पढाई करे. पॉइंट ये है कि हमें ऐसा वर्क कल्चर देना पड़ेगा कि जहाँ पर हम उनको समय देते हैं अपने व्यक्तिगत विकास के लिए. आप बताइए किस चैनल ने अपने इम्प्लाई को बाहर भेजा है? लेकिन विदेशों में ऐसा होता है और वह अंतर इसलिए ख़बरों में भी दिखता है. युवा पत्रकारों को इम्पावर करना पड़ेगा. खाली – खाली उनसे ज़िम्मेदारी की अपेक्षा नहीं कर सकते. इसलिए स्थिति सुधारनी है तो सबसे वर्क कल्चर सुधारना होगा. एक ऐसा माहौल बनाना होगा जिसमें युवा पत्रकारों को अपने पर्सनल डेवलपमेंट का मौका मिले. कंटेंट इंसान डेवलप करता हैं.लेकिन इंसान का डेवलपमेंट कौन करेगा? लेकिन मेरा मानना है और मैं शर्त लगा सकता हूँ कि आज का युवा ज्यादा पढता है. सोशल मीडिया की वजह से उसके अध्ययन का दायरा और विस्तृत हो गया है. लेकिन वह क्या पढे, इसके लिए संपादकों को समय – समय पर एक गाइडलाइन देना पड़ेगा. दरअसल हम अपनी ज़िम्मेदारी निभाते नहीं और उनसे बहुत अपेक्षा रखते हैं.
MK : एक आखिरी सवाल जो न्यूज़ इंडस्ट्री और पत्रकारिता से इतर है. आपका कोई ड्रीम प्रोजेक्ट है? मान लीजिए आप न्यूज़ इंडस्ट्री में नहीं काम कर रहे और आपको मनचाहा काम का विकल्प दिया जाए तो आप क्या नया करना चाहेंगे?
NC : हाँ एक नहीं बल्कि दो – दो ड्रीम प्रोजेक्ट हैं (मुस्कुराते हुए). पहला तो एक स्कूल खोलने की चाहत है. ऐसा स्कूल जो वर्ल्ड का बेस्ट स्कूल हो और जरूरतमंद बच्चे वहां बिलकुल मुफ्त में पढ़ें. ऐसा करने की इसलिए इच्छा है क्योंकि हम सबकी एक सामाजिक ज़िम्मेदारी है जिससे हम मुंह नहीं मोड़ सकते. न्यूज़ इंडस्ट्री में कई ऐसे बहुत सीनियर लोग हैं जो चुपचाप अपनी सामाजिक जिम्मदारियों को निभा रहे हैं. मैं उनका नाम भी ले सकता हूँ. रजत शर्मा, ऋतू धवन, विनोद कापड़ी, सुप्रिय प्रसाद, अजीत अंजुम कैसे अंदर – ही – अंदर चैरिटी करते हैं , ये मैंने देखा है. इनकी चैरिटी की मैं दाद देता हूँ. दरअसल इनका नाम इसलिए ले रहा हूँ कि इनको मैंने देखा है. बहरहाल ये स्कूल खोलने की तब योजना है जब मैं रिटायर हो जाऊँगा या फिर थोड़ा बुजुर्ग हो जाऊँगा. हां उसके पहले यदि खुल जाए बहुत बढ़िया. दूसरी चाहत है कि अपने ‘कॉफी बुक कॉर्नर’ के साथ न्यूज़ इंडस्ट्री से रिटायर होऊं, जहाँ मैं अपने हाथ से कॉफी बनाकर कॉफी हाउस में आए लोगों को पिलाऊं. कॉफी हाउस के साथ ही छोटा सा बुक स्टोर भी हो जहाँ लोग आकर बैठे, बातचीत करें और फिर चले जाएँ. यही ड्रीम प्रोजेक्ट है. (फिर हँसते हुए. आज पहली बार किसी पब्लिक प्लेटफोर्म पर मैं अपने ड्रीम के बारे में बता रहा हूँ. )
MK : मीडिया खबर से बातचीत के लिए आपका धन्यवाद
Bhai Nishant Ji Aapka Purana Sathi Shyam rohira Aaj Aapka TV9 par program Dekha mRkaj ke upar kash Desh Ke Sabhi Ancor Aap se Kush sikhen Bhai Muje Ek pm Kosh ke Liye Aapko Mashwara Dena hai Aap se Phone Par Bata Sakta Hun
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