जिया खान अगर ग्लैमर की दुनिया से न होकर राजनीति से होती तो अब तक शहीद करार दे दी जाती और देश के किसी हिस्से में उसके नाम पर सड़क,चौक या पार्क बनाने या नाम बदलने की घोषणा हो जाती. लेकिन जिया खान क्या कोई भी शख्स जब आत्महत्या करता है तो तमाम मानवीय पहलुओं और संवेदना के छूते जाने के बावजूद अपराध का हिस्सा होता है. ऐसा करते हुए कोई बच जाए तो जो सजा,जिल्लत और जलालत झेलनी पड़ती है वो मौत से भी बदतर हो सकती है. चैनलों को चाहिए कि वो इसे ग्लैमराइज करने के बजाय आत्महत्या,उसकी कोशिशें कितनी तकलीफदेह है इस पर बात करे. कानूनी प्रावधानों को शामिल करे औऱ बताए कि ऐसा करना कितना बड़ा अपराध है न कि उसकी फिल्मों की फुटेज काट-काटकर अपराध की इस घटना को सास-बहू और साजिश जैसी पैकेज बनाए. अभी टीवी पर इसे लेकर जिस तरह की खबरें चल रही है वो दर्शकों में फैंटेसी पैदा करती है, वो भाव नहीं कि जिंदगी कितनी खूबसूरत चीज है और इस 25 साल की लड़की ने अपने आत्मविश्वास की कमी के पीछे कैसे दो मिनट में खत्म कर लिया.
चैनलों को लग रहा है कि ऐसा करके वो एक मानवीय पहलू पर बात कर रहे हैं लेकिन यकीन मानिए ये न सिर्फ तमाशा का हिस्सा है बल्कि एनबीए,बीइए( जिन पर कभी यकीन ही नहीं होता फिर भी) और आइबी मिनस्ट्री की मीडिया मॉनिटरिंग सेल गौर करे तो किसी के आत्महत्या की खबर को इस तरह दिखाना किसी भी एंगिल से सही नहीं ठहराया जाएगा. मुझे हैरानी हो रही है- स्क्रीन पर महिला वक्ताओं की कतार लगी है लेकिन कोई भी इस एंगिल से बात नहीं कर रहीं कि आप जिया खान की आत्महत्या के बहाने जो मेल चाउज्म परोस रहे हो,ये गलत है. इस दुनिया से गुजर चुकी एक अदकारा को आप इस मसाले के साथ पेश कर रहे हो ये स्त्री के खिलाफ जाकर चीजों को पेश करना है, लेकिन नहीं..कुछ भी नहीं.
जिया खान जैसी लाखों लड़कियां है जिनके ब्रेक अप होते हैं, जिनका ब्ऑयफ्रैंड डिच करता है, इन्डस्ट्री में काम क्या, मुफ्त में मीडिया,मेडीकल और कार्पोरेट में इन्टर्नशिप तक करने को नहीं मिलती. आप चले जाइए नोएडा फिल्म सिटी. किसी भी न्यूज एंकर, प्रोड्यूसर की जिंदगी को करीब से देखिएगा तो आपको लगेगा इनकी जिंदगी में फ्रस्ट्रेशन के अलावे कुछ बचा ही नहीं है. नौकरी तो छोड़िए, लाखों लड़कियां सिर्फ पढ़ना चाहती है, उसकी हसरत जींस पहनने की है, वो पड़ोस के लड़के से बात करना चाहती है लेकिन सब पर पाबंदी है. इस देश में करोड़ों लड़कियों के एकमुश्त आत्महत्या करने के सहज बहाने उपलब्ध हैं, खोजने नहीं पड़ेंगे. लेकिन वो जी रही हैं..लड़ रही हैं, जद्दोजहद कर रही हैं क्योंकि जिंदगी के आगे कुछ भी ऐसा नहीं है कि जिसके लिए इसे खत्म कर दिया जाए.
टेलीविजन पर जिया खान की आत्महत्या पर खबरों और पैनल डिस्कशन की ओवर सप्लाय देखकर मुझे अपने एम ए के शिक्षक प्रो. नित्यानंद तिवारी की बात बार-बार याद आ रही है. भक्तिकाल औऱ अज्ञेय का इनसे बेहतर शिक्षक मुझे कभी नहीं मिले. पद्मावत पढ़ाते हुए नागमति के विरह वर्णन जिसमे कि राजा रत्नसेन सिंघलद्वीप की राजकुमारी पद्मावत के लिए नागमति को छोड़कर चला जाता है, वे कहते- जिंदगी हर हाल में जिया जा सकता है..इसी बात को वो मैला आंचल पर लिखते हुए दूसरे ढंग से कहा है- किसी का मरना सार्थक होता है और किसी की जीना. भगतसिंह मरकर सार्थक हुए और गांधी जीवित रहकर. असल चीज है जीवन की सार्थकता. मुझ जैसे मीडिया और पॉपुलर कल्चर के छात्र के लिए सार्थकता अक्सर गले में अटकती रही है लेकिन उनकी ये बात अक्सर याद आती है.
अब देखिए न, जिया खान ने चाहे जिस भी मजबूरी में आत्महत्या की हो लेकिन नित्यानंद सर का ये कथन इस सवाल की तरह ले तो जाता ही है न कि क्या किसी भी हाल में जिया नहीं जा सकता था. तमाम सहानुभूति के बीच कानून इसकी व्याख्या अपराध के रुप में करेगा लेकिन न्यूज चैनल ने इस अपराध से काटकर इसे न केवल हायपर इमोशनल मामला बना दिया है बल्कि सीधे-सीधे बॉलीवुड पर भी सवाल खड़े किए हैं. यहां परिस्थितियां ऐसी है कि कोई भी कभी भी आत्महत्या कर ले. मेरे ख्याल से तब तो अनुराग कश्यप जैसे लोगों को ये काम बहुत पहले कर लेना चाहिए था. मुझे जिया खान क्या किसी के भी मौत का अफसोस होता है, दिमाग पर असर भी होता है लेकिन इस खबर की रुख इस तरह भी क्या कर देना कि आत्महत्या एक एडवेंचरस और ग्लैमरस इवेंट लगने लगे. जिया खान के आत्महत्या किए जाने की बात अभी तक पूरी तरह साबित नहीं हुई है, जांच चल रही है .क्या इसे हम हाय डेफिनेशन( HD) मीडिया ट्रायल कह सकते हैं ?