मीडिया कोई समाज से कटा हुआ टापू तो नहीं कि वहां पितृसत्ता नहीं होगी:मनीषा पाण्डेय

manisha-pandey-interview
मनीषा पाण्डेय , फीचर एडिटर, इंडिया टुडे

महिलाओं से जुड़े मसलों पर वैसे तो कई लोग लिखते रहे हैं लेकिन इन सबके बीच एक नाम ऐसा भी है जिन्हें लड़कियों के फूल और गज़रे वाली छवि बिलकुल नहीं सुहाती और वो नाम है ‘मनीषा पाण्डेय’ का। मनीषा चाहती हैं कि स्त्रियां मज़बूत बने और निर्णायक भूमिका निभाएं। सोशल मीडिया में भी वो काफी सक्रिय हैं और अपने कलम की जादू से हज़ारों लड़कियों को प्रेरित कर रहीं हैं, उन्हें सपने देखने का हौसला दे रहीं हैं! पत्रकारिता जगत में मनीषा पाण्डेय अपनी खास शैली और खनक के लिए जानी जाती हैं! पढ़ना, लिखना और घूमना यही इनकी ताकत है। कामकाजी महिलाएं चाहे वो मीडिया में हो या समाज में मनीषा को एक रोल मॉडल के रूप में देखती हैं। आधी आबादी पत्रिका के सम्पादक ‘हिरेन्द्र झा ‘ने उनसे बातचीत की। प्रस्तुत है बातचीत के कुछ अंश…

स्त्रियां मज़बूत बने और निर्णायक भूमिका निभाएं – मनीषा पाण्डेय, फीचर एडिटर, इंडिया टुडे (हिंदी)

हिरेन्द्र- संक्षेप में अपनी यात्रा के बारे में बताएं।
मनीषा- यात्रा बहुत सीधी है। ज्यादा घुमावदार नहीं। पैदाइश इलाहाबाद की है और बचपन कई शहरों में बीता। फिर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन करने के बाद मैं मुंबई चली गई। आगे की पढ़ाई, शुरुआती नौकरी और घर से दूर अपनी आजाद, अकेली जिंदगी को ढूंढने की शुरुआत भी वहीं हुई। शायद मेरे बौद्धिक विकास का काफी सारा क्रेडिट भी उस शहर को ही जाता है। वो हिंदी प्रदेश के बंद समाज से अलग खुली और बेखौफ दुनिया थी, जिसने मुझे खुद को जानने-समझने और अपनी जिंदगी का मकसद ढूंढने में मदद की।

हिरेन्द्र- कामकाजी महिलाओं की चुनौतियों को कैसे देखती हैं?
मनीषा- कामकाजी महिलाएं समाज में औरत की स्थिति को बदल रही हैं, लेकिन उन्हीं के ऊपर जिम्मेदारियों का दोहरा बोझ है। औरतें तो घर से बाहर निकलकर काम तो करने लगीं, लेकिन पुरुषों ने घर के भीतर के काम और जिम्मेदारियों को साझा करना नहीं सीखा। न्यूक्लियर फैमिली ढांचे के कारण घर चलाने से लेकर बच्चों को संभालने तक का सारा बोझ औरतों के सिर पर डाल दिया है। घर के बाहर एक पुरुष प्रधान दुनिया है, जहां स्त्रियों की बौद्धिकता और उनके श्रम को पुरुष गंभीरता से नहीं लेता। वहां भी दोहरी चुनौती है। और घर के भीतर पुरुष की अहंकारी परवरिश औरत को बराबरी की जगह देने के लिए तैयार नहीं। ऐसे में स्त्रियों का स्वाभिमान तो हर कदम पर आहत हो रहा है।

हिरेन्द्र- अकेले रहती हैं, परेशानी भी होती होगी।
मनीषा- एक ऐसी दुनिया में, जो पुरुषों की, पुरुषों के द्वारा और पुरुषों के लिए है, वहां तयशुदा नियमों को तोड़कर अपने तरीके का आजाद जीवन चुनने वाली औरत की जिंदगी में परेशानी नहीं होगी, ये कैसे मुमकिन है। शहर चाहे कोई भी हो, किराए पर घर लेने में दिक्कत होती है, मकान मालकिन अपना पवित्रतावादी लेंस हर वक्त ताने आपकी गतिविधियां रिकॉर्ड करती रहती हैं। अपनी कॉलोनी, गली, मुहल्ले और बिल्डिंग में हर घड़ी खुद को अच्छी लड़की साबित करने की चुनौती है। वो िकतनी सीधी-सुशील है, , मुंह फाड़कर हंसती नहीं, ज्यादा तू-तड़ाक नहीं करती, कॉलोनी के लड़कों को देखकर सिर झुकाकर निकल जाती है और जाने क्या-क्या? यहां हर सेकेंड हर कोई कैरेक्टर सर्टिफिकेट देने के लिए तैयार बैठा है। दिक्कतें तो एक हजार हैं, लेकिन एक समय के बाद लड़कियां इन सबका सामना करने का टैलेंट विकसित कर लेती हैं।

हिरेन्द्र- जीवन के प्रति क्या नजरिया रखती हैं?
मनीषा- जीवन बहुत कीमती है, अपनी तमाम विद्रूपताओं, दुखों और निराशा के बावजूद। क्योंकि जो जीवन अवसाद और अकेलापन है, वहीं जीवन खुशी, उम्मीद, और लोगों का साथ भी है। मुझे लगता है कि हर लड़की को अपने जीवन का मकसद खोजने की जरूरत है और उस मकसद को नकारने की भी, जो हमारे परिवार, समाज, संस्कारों से लेकर सिनेमा और विज्ञापन तक लड़कियों के दिमागों में ठूंस रहे हैं यानी शादी, परिवार, बच्चे। अच्छी बहू, पत्नी, बेटी और मां बनना ही जीवन का अंतिम लक्ष्य है।

हिरेन्द्र- क्या परिवार और शादी के खिलाफ हैं।
मनीषा- नहीं। मैं परिवार और शादी के खिलाफ नहीं, उसके मौजूदा ढांचे के खिलाफ हूं। पुराने फैमिली स्ट्रक्चर में औरतें घर के बाहर तो काम नहीं करती थीं। अब कर रही हैं। अगर घर के बाहर की दुनिया बदली तो घर के भीतर की दुनिया भी तो बदलनी चाहिए। बच्चा पालना अकेले औरत की जिम्मेदारी क्यों है। डाइपर चेंज करना मर्दानगी के खिलाफ क्यों? पुरुष क्यों नहीं खाना बना सकता या घर की सफाई कर सकता है। और दूसरे जाति और संपत्ति आधारित विवाह अपने आप में एक क्रूर बात है। दो लोगों का रिश्ता आपसी प्रेम और समझदारी से नहीं, बल्कि जाति, धर्म, अच्छी नौकरी और संपत्ति की जमीन पर बन रहा है। ये गलत नहीं है क्या?

हिरेन्द्र- सपनों की क्या अहमियत है हमारी जिंदगी में।

मनीषा- पाश की कविता पढ़ी है न – सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना। सपने नहीं तो जिंदगी नहीं। औरतें जब तक अपने लिए बेहतर जिंदगी, प्रेम, सुख और आजादी के सपने नहीं देखेंगी तो उन्हें पूरा करने के लिए कदम कैसे उठाएंगी। सपने ही तो बदलाव की बुनियाद हैं। लेकिन फिर वही समस्या – लड़कियों के दिमाग उतने ही और वैसे ही सपने देखते हैं, जैसा उन्हें सिखाया गया है। सफेद घोड़े पर आने वाले राजकुमार के सपने, यूएस में रहने वाले अमीर पति के सपने। उन सपनों की कोई गारंटी नहीं है। इसलिए अब अपने लिए सपने देखने की शुरूआत करनी चाहिए। मेरा जीवन, मेरा फैसला, मेरे सपने।

हिरेन्द्र- ईश्वर पर कितनी आस्था है?
मनीषा- बिलकुल भी नहीं। मैं नास्तिक हूं। ईश्वर के अस्तित्व में मेरा कोई विश्वास नहीं। हिरेन्द्र- ताकत और कमजोरी। मनीषा- इस सवाल का जवाब मुझसे ज्यादा शायद मेरे करीबी लोग दे पाएं। देखिए, जिन चीजों को लोग मेरी ताकत समझते हैं, वो वक्त के साथ धीरे-धीरे आई है। ना बोलने की ताकत, पुरुषों के आधिपत्य का विरोध करने की ताकत, अकेले अपने बूते अपना जीवन बना सकने की ताकत, औरताना कमजोरियों से मुक्त होने की ताकत – ये तो हासिल की हुई चीजें हैं। कमजोरियां बहुत सारी हैं। दुनिया के साथ मीजाज बिठाने में दिक्कत होती है, ये मेरी सबसे बड़ी कमजोरी है। मेरे जीवन में शायद कोई डिसिप्लिन नहीं है। पढ़ रही हूं तो पढ़ती ही जाऊंगी, घूम रही हूं तो घूमती ही रहूंगी। सबकुछ एक्सट्रीम पर होता है। बीच का कोई रास्ता नहीं।

हिरेन्द्र- पारिवारिक मूल्यों की बहुत बात होती है।

मनीषा- पारिवारिक मूल्यों से आपका क्या आशय है। मतलब कि प्यार, एक-दूसरे का सम्मान, एक-दूसरे का ख्याल रखना, अच्छे-बुरे वक्त में हाथ पकड़ना। प्रेम और साझेदारी। बहुत अच्छे मूल्य हैं, लेकिन सोचने वाली बात है कि क्या ये बातें सचमुच हैं या ये हमारे खामख्याली हैं। स्त्रियों के जिस त्याग, सेवा और समर्पण भाव को पारिवारिक मूल्यों का नाम देकर इतना महिमामंडित किया जाता है, वो दरअसल दबी-कुचली, हजारों सालों से उत्पीडि़त और हाशिए पर ढकेल दी गई औरतों की मजबूरी है। जो औरत आत्मनिर्भर नहीं, जिसके पास चुनने के लिए कोई और विकल्प नहीं, वो सेवा ही करेगी। औरतें तो पति, बच्चों, परिवार के लोगों की इतनी सेवा करती हैं, लेकिन औरतों की सेवा कौन करता है। इसका मतलब कि ये बराबरी का रिश्ता तो नहीं ही है। जब तक दो स्वतंत्र व्यक्तियों के बीच बराबरी के संबंध नहीं होंगे, तब तक सेवा-समर्पण जैसी बातें गुलामी के अलावा और कुछ नहीं।

हिरेन्द्र- फैशन के प्रति जो आकर्षण है, लड़कियों में उसके बारे में क्या कहेंगी।
मनीषा- खूबसूरत दिखने में कोई बुराई नहीं, लेकिन खूबसूरती के पैमाने बाजार तय करे तो ये गलत है। बाजार भी औरत को शरीर में रिड्यूस कर रहा है। उसकी बुद्धि को नकार रहा है। इसलिए आत्मविश्वास, बुद्धिमत्ता और साहस ही वो सबसे कमाल के कॉस्मैटिक हैं, जिसे पहनकर औरत सबसे खूबसूरत नजर आएगी।

हिरेन्द्र- मीडिया में महिलाओं के लिए कैसा माहौल है।
मनीषा- जैसा समाज में है, घरों के अंदर है, परिवारों में है, पूरी दुनिया में है। मीडिया कोई समाज से कटा हुआ टापू तो नहीं कि वहां पितृसत्ता नहीं होगी। मर्दों का आधिपत्य हर जगह है। मीडिया में भी।

हिरेन्द्र- सिनेमा देखती हैं। जिस तरीके से फिल्मों और विज्ञापनों में महिलाओं को पेश किया जाता है, उसे आप कैसे देखती हैं।
मनीषा- सिनेमा और विज्ञापन बनाने वाला भी मर्दवादी दिमाग ही है। पुरुषों के अंडरवियर से लेकर उनकी शेविंग क्रीम और ट्रक के टायर तक बेचने के लिए औरत का शरीर चाहिए। हर पुरुषवादी व्यवस्था स्त्री को सिर्फ देह समझती है, क्योंकि उसे बनाने वाला और उसका खरीदार, दोनों ही पुरुष हैं।

हिरेन्द्र- घूमती बहुत हैं आप।
मनीषा- घुमक्कड़ी जिंदगी की सबसे पहली किताब है। आखिर स्त्रियों में वैकल्पिक समझ आएगी कहां से। क्योंकि परिवार तो नहीं सिखा रहे, धर्मग्रंथ भी नहीं, टीवी, विज्ञापन, अखबार कोई भी तो स्त्रियों के दिल -दिमाग, आजादी की बात नहीं कर रहे। ये समझ तो किताबों और दुनिया की बेहतरीन फिल्मों और घुमक्कड़ी से ही हासिल होगी।

हिरेन्द्र- प्रेम पर क्या कहेंगी।

मनीषा- प्रेम जीवन को सहने और जीने लायक बनाता है, बशर्ते वो सचमुच प्रेम हो। फिलहाल इस देश की लड़कियों को एक पुरुष के साथ रिश्ते में प्रेम से ज्यादा इज्जत की जरूरत है। प्रेम का मायाजाल तो बहुत फैला हुआ है, लेकिन स्त्रियों के दिमाग और काम की रिस्पेक्ट कोई नहीं करता। पहले सम्मान करना सीखो, फिर प्रेम की बात करेंगे।

हिरेन्द्र झा,सहायक संपादक,आधी आबादी
हिरेन्द्र झा,सहायक संपादक,आधी आबादी

हिरेन्द्र- आज की युवतियों के लिए कोई संदेश।
मनीषा- जीवन का मकसद बढि़या पति पाना नहीं है। जीवन का मकसद है कुछ होना, बनना, अपने होने के मायने तलाशना। आजादी और बराबरी के साथ अपनी शर्तों पर जीवन जीना। फिलहाल लड़कियों को अपनी पढ़ाई और कॅरियर को बहुत गंभीरता से लेना चाहिए। आर्थिक आत्मनिर्भरता पहला लक्ष्य हो। 18 साल की उम्र में प्रेम करें, लेकिन प्रेम को ही अंतिम मंजिल न मान लें। उसके लिए सबकुछ न्यौछावर न करें। याद रखें, ये मेरा जीवन है और इस पर हक है मेरा।  प्रेम करें, लेकिन प्रेम को ही अंतिम मंजिल न मान लें। उसके लिए सबकुछ न्यौछावर न करें। याद रखें, ये मेरा जीवन है और इस पर हक है मेरा।

(मूलतः आधी आबादी पत्रिका में प्रकाशित. आधी आबादी से साभार. इंटरव्यू आधी आबादी के सहायक संपादक ‘हिरेन्द्र झा’ ने लिया)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.