क्या रोमन लिपि अपनाने से ही हिंदी बचेगी

हिंदी के बहाने अंग्रेजी से प्रेम
हिंदी के बहाने अंग्रेजी से प्रेम

डॉ.परमानंद पांचाल

हाल ही में दिल्ली के एक हिंदी दैनिक में प्रकाशित चेतन भगत का लेख ‘रोमन लिपि अपनाओ हिंदी बचाओ’ पढ़कर आश्चर्य हुआ। जहां एक और सभी लोग नागरी लिपि की वैज्ञानिकता और उसकी श्रेष्ठता की दुहाई दे रहे हैं और इसे कम्प्यूटर के लिए सर्वाधिक उपयुक्त लिपि मान रहे हैं, वहीं कुछ लोग इसे छोड़कर रोमन जैसी अवैज्ञानिक लिपि अपनाने की सलाह दे रहे हैं। उनके विचार से यदि हिंदी ने रोमन लिपि नहीं अपनाई तो वह मर जाएगी। शायद भगत जी यह भूल जाते है कि हिंदी का अस्तित्व लगभग एक हजार वर्ष से है। उसने अनेक उतार चढ़ाव देखें, किंतु उसका अस्तित्व, शेष रहा। अब से करीब 700 वर्ष पहले अमीर खुसरो (1265-1325) अपनी मसनवी “नूर-सिपहर“ में कहते हैं, हिन्दवी“ बूद अस्त दर अय्यामे कुहन“ अर्थात् हिन्दवी (हिंदी) प्राचीन काल से ही चली आ रही है। अनेक घात- प्रतिघात के बावजूद भी हिंदी जीवित रही। क्योंकि वह जनभाषा है, उसे कोई मार नहीं सकता। इस देश में कई सौ वर्षो तक फारसी राजभाषा रही, फिर भी हिंदी अपनी लिपि के साथ जीवित रही। सभी जानते है कि मुगल काल में हर पढ़ा लिखा व्यक्ति फारसी जानता था, जिसकी साक्षी यह कहावत है- “हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फारसी क्या?“

कालांतर में उस फारसी का क्या हुआ। वह तो नहीं रही। हिंदी फिर भी रहीं। हिंदी तो जनभाषा है। वह मरे भी तो कैसे? अंग्रेजी काल में, अंग्रेजी राजभाषा रही। किंतु वह हिंदी का स्थान नहीं ले सकी और हिंदी आज भी जीवित है। हिंदी परिवर्तनशील है। इतिहास के हर मोड़ पर हिंदी के जीवित रहने और लोकप्रिय बने रहने का कारण इसका लचीलापन तथा उसकी वैज्ञानिक और ध्वन्यात्मक लिपि ‘देवनागरी’ ही है, जिसे नकारने का दम भरने वाले भूल जाते है कि देवनागरी लिपि विश्व की सर्वश्रेष्ठ और वैज्ञानिक लिपि है, जिसकी प्रशंसा आधुनिक काल के अनेक पष्चिमी विद्वानों ने भी की है। स्वर विज्ञान (फोनो ग्राफी) के अनुसंधानकर्त्ता आइज़ेक पिटमैन का कहना है कि संसार में यदि कोई पूर्ण अक्षर हैं तो देवनागरी के हैं। प्रो. मोनियर विलियम्स ने कहा था ‘देवनागरी अक्षरों से बढ़कर पूर्ण और उत्तम अक्षर दूसरे नहीं हैं।’ जॉन क्राइस्ट तो यहां तक कहते हैं कि मानव मस्तिष्क से निकली हुई नागरी की वर्णमाला ही पूर्ण है। रोमन लिपि के सबसे बड़े समर्थक सर विलियम जॉन्स को भी कहना पड़ा था कि हमारी भाषा अंग्रेजी की वर्णमाला तथा वर्तनी अवैज्ञानिक तथा किसी रूप में हास्यास्पद भी हैं।

जार्ज बर्नाड शॉ जैसे अंग्रेजी के विद्वान रोमन लिपि से खिन्न्ा थे। डॉ आर्थर मैक्डानल ने अपनी लिपि रोमन को हास्यास्पद बताते हुए लिखा था, ‘हम यूरोपियन लोग इस वैज्ञानिक युग में 2500 वर्ष बाद भी उस वर्णमाला को गले से लगाए हुए हैं, जिसे ग्रीकों ने पुराने सैमेटिक लोगों से अपनाया था जो हमारी भाषाओं के समस्त ध्वनि समुच्चय का प्रकाशन करने में असमर्थ है तथा तीन हज़ार साल पुराने अवैज्ञानिक स्वर व्यंजन मिश्रण का बोझ अब भी पीठ पर लादे हुए हैं।’

सर्वश्री एफ. एस. ग्राउसु, व्यूलर हार्नलें, हुक्स मैक्डानल थामस, जॉन शोर तथा आइजेक टेलर जैसे विद्वानों ने भी जी खोलकर नागरी लिपि की प्रशंसा की है। सभी जानते है कि रोमन में उच्चारण की दृष्टि से एकरूपता का होना कठिन है। स्वयं अंग्रेजी और फ्रेंच भाषाएं इसका जीवंत उदाहरण है। रोमन के कारण अंग्रेजी शब्दों के उच्चारण में सर्वत्र अराजकता है। स्वयं अंग्रेजी भाषी लोग भी रोमन लिपि के कारण शब्दों का उच्चारण भिन्न्ा-भिन्न्ा रूप से करते है। इसी कारण विभिन्न्ा क्षेत्रों और देषों में एक ही शब्द का उच्चारण भिन्न्ा-भिन्न्ा प्रकार से किया जाता हैं। बोलने से लिखने तक कहीं कोई समानता नहीं है।

पिछले दिनों ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में एक समाचार प्रकाशित हुआ था कि ब्रिटिश लायब्रेरी का रिसर्च इंस्टीट्यूशन लोगों से कुछ अंग्रेजी शब्दों के सही उच्चारण आमंत्रित कर रहा है क्योंकि भिन्न्ा-भिन्न्ा लोग एक ही शब्द का उच्चारण भिन्न्ा-भिन्न्ा प्रकार से कर रहे हैं जैसे टमाटर के लिए ज्वउवजव और कुछ लोग ज्वउंजंव कहते हैं। इसी प्रकार ळंतंहम को डंततपंहम के वजन पर बोला जाए या डपतंहम के वजन पर। म्ंज का भूतकाल ।जम हो या ंजज होगा। इस प्रकार रोमन के कारण एक अराजकता है। ये उदाहरण मैंने इसलिए दिए हैं कि हिंदी के लिए जिस रोमन लिपि की सिफारिश विद्वान लेखक ने की है, उसकी हकीकत स्वयं रोमन के प्रयोक्ताओं के मुंह से ही सुन ली जाए।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 343 में देवनागरी लिपि को भारत की राजभाषा हिंदी की आधिकारिक लिपि स्वीकार किया गया है। देवनागरी मात्र हिंदी की ही लिपि नहीं है, संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल संस्कृत, मराठी, डोगरी, बोडो, नेपाली, मैथिली, आदि भाषाओं की आधिकारिक लिपि भी है। संथाली, कोंकणी तथा सिंधी के अतिरिक्त अपभं्रश और प्राकृत भी नागरी में ही लिखी जाती हैं। भारत के संविधान निर्माता इतने नासमझ नहीं थे कि वे बिना सोचे समझे नागरी लिपि को राजभाषा हिंदी की अधिकृत लिपि स्वीकार करते। पर्याप्त विचार-मंथन के बाद ही नागरी को अपनाने का निर्णय लिया गया था। यह देष का दुर्भाग्य ही माना जाएगा कि उनके उत्तराधिकारी देश के कर्णधारों ने उसे सच्चे मन से कार्यान्वित करने में विशेष रूचि नहीं दिखाई और शिक्षा पद्धति में तदानुसार परिवर्तन नहीं किया गया। समय-समय पर गठित शिक्षा आयोग कहते रहे कि शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषाओं को बनाया जाए और बच्चे की प्राथमिक शिक्षा उसकी मातृभाषा में ही दी जाए, किंतु गुलामी की मानसिकता में पले और दीक्षित हुए सरकारी तंत्र के नौकरशाहों ने अपनी ढुलमुल कार्यप्रणाली के तहत इसे लागू ही नहीं होने दिया। स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े देशभक्त लोग धीरे-धीरे विदा होते गए और वह भावना भी मंद पड़ती गई जो राष्ट्र की एकता के लिए राष्ट्रभाषा हिंदी और भारतीय भाषाओं को समीप लाने वाली लिपि, देवनागरी को आवश्यक मानते थे। कहना न होगा कि बाद की पीढ़ी के नेता स्वार्थवश क्षेत्रीय राजनीति और संकीर्ण मानसिकता के शिकार होते गए। फलतः एकता के स्थान पर अलगाव के स्वर सुनाई देने लगे और राश्ट्रीय मुद्दे हाशिये पर चले गए। समाज में अपना वर्चस्व बनाए रखने की मानसिकता ने ब्रिटिश राज की दोहरी शिक्षा प्रणाली को ही जारी रखा। अंग्रेजी माध्यम के प्राइवेट स्कूलों की बाढ़ सी आ गई। शिक्षा एक उद्योग में तब्दील हो गई। अंग्रेजी माध्यम के निजी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाना सामाजिक प्रतिश्ठा का प्रतीक बन गया। फलतः अंग्रेजी और रोमन लिपि ही सर्वत्र छाती चली गई।

श्री सेम पित्रोदा की अध्यक्षता में गठित ‘ज्ञान आयोग’ की सिफारिश ने तो रही सही कमी को और पूरा कर दिया। अंग्रेजी को पहली कक्षा से अनिवार्य रूप से पढ़ाए जाने की सिफारिश ने बच्चों को मातृभाषा से बिल्कुल विमुख ही कर दिया। वे पहली और नर्सरी कक्षा से ही अंग्रेजी और रोमन लिपि सीख कर हिंदी और देवनागरी जैसी श्रेष्ठ वैज्ञानिक लिपि से दूर होने लगे। यही कारण है कि रोमन लिपि के अभ्यस्त छात्रों को नागरी लिपि पराई लगने लगी और रोमन सुविधाजनक। परिणामतः एस.एम.एस. पर उलटी सीधी हिंदी रोमन लिपि मंे लिखी जाने लगी, क्योंकि उन्हें नागरी का अभ्यास ही नहीं रह गया था। इसके लिए नागरी लिपि की कमजोरी नहीं, हमारी शिक्षा नीति उतरदायी है। सबसे बड़ी बात यह है कि शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर पहली कक्षा से ही शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी बनाया जा रहा है,जो सर्वथा अनुचित और अस्वाभाविक है। अंग्रेजी भाषा की शिक्षा के हम विरोधी नहीं, हम शिक्षा माध्यम के रूप में किसी विदेशी भाषा के प्रयोग को उचित नहीं मानते। गांधी जी तो अंग्रेजी माध्यम के बिल्कुल विरूद्ध थे। जो भाषा शिक्षा का माध्यम नहीं होती, वह एक बोली और कविता, कहानी आदि की भाषा के रूप में ही सीमित रह जाती है। ज्ञान-विज्ञान, प्रौद्योगिकी राजनय और व्यापार की भाषा नहीं बन पाती। अंग्रेजी माध्यम के कारण ही रोमन लिपि का प्रचलन बढ़ा है। इसे रोमन लिपि की श्रेष्ठता नहीं कहा जा सकता। क्या इसलिए हिंदी को भी रोमन लिपि अपना लेनी चाहिए। यह स्थिति नागरी लिपि में नहीं है। यहां उच्चारण की स्थिति निर्धारित और सुनिश्चित है। इसमें जैसा बोलोगे वैसा लिखोगे और जैसा लिखोगे वैसा पढ़ोगे। देवनागरी हिंदी के लिए एक वरदान है।

सभी जानते है कि उर्दू ने फारसी लिपि को अपनाया है। किंतु ज़मीनी हकीकत यह है कि आज का उर्दू साहित्य नागरी में ही सर्वाधिक लोकप्रिय हो रहा है। फारसी या रोमन में नहीं। पूर्वोत्तर भारत के अरुणाचल प्रदेश, मेघालय और नागालैंड जैसे राज्यों की बोलियांे की कोई लिपि नहीं हैं। वे अपनी बोलियों को जीवित रखने के लिए नागरी लिपि ही अपना रहें हैं, क्योंकि इस लिपि में ही उनका स्वाभाविक उच्चारण सुरक्षित रह सकता है, रोमन में नहीं।

विश्व के विद्वान अब यह मानने लगे है कि अपने ध्वन्यात्मक और वैज्ञानिक गुणों के आधार पर नागरी लिपि ‘विश्व लिपि’ बनने की क्षमता रखती है। लिप्यन्तरण और प्रतिलेखन की दृष्टि से भी यह सबसे उपयुक्त लिपि हैं, रोमन और फारसी आदि नहीं। कहने को रोमन लिपि में 26 अक्षर हैं, किंतु उनके ”कैपिटल और ”स्मॉल” अक्षर दो प्रकार होने से 26 गुना 4़ अर्थात् 104 प्रकार के अक्षर सीखने होते हैं। क्या यह कम पेचीदा काम हैं?

सभी जानते है, कि आज विश्व में हिंदी का प्रचलन बढ़ रहा है और इसे विश्व की दूसरी सबसे बड़ी भाषा माना जाता है। यह भी एक तथ्य है कि विश्व में हिंदी जहां गई, अपने साथ अपनी लिपि देवनागरी भी लेती गई। देखा जाए तो देवनागरी लिपि भारत की एक पहचान भी है। क्या हम अपनी इस पहचान को मिटा दें?

सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या रोमन में हिंदी की ध्वनियों को सुरक्षित रखा जा सकता है? क्या हिंदी के शब्दों का रोमन लिपि में सही उच्चारण भी हो सकता है? यदि नहीं, तो फिर ऐसी लिपि को ओढ़ने से क्या लाभ है? डॉ. सुनीति कुमार चाटुर्ज्या जैसे विद्वानों ने भी ऐसा सुझाव एक बार दिया अवश्य था, किंतु वह किसी के भी गले नहीं उतरा। नागरी लिपि में एक ध्वनि के लिए एक ही लिपि चिह्न है, इसमें जैसा लिखा जाता है वैसा ही पढ़ा जाता है। यह विशेषता रोमन और फारसी आदि लिपियों में हरगिज़ नहीं है। नागरी एक विकासशील लिपि है। आवश्यकतानुसार इसमें नए लिपि चिह्न भी शामिल होते रहे है। इसकी वर्णमाला बड़ी वैज्ञानिक है। इसमें ह्स्व और दीर्घ मात्राओं का भेद सुस्पष्ट है। रोमन में लिखे शब्द ज्ञंउंस को आप ही पढ़कर बताइए क्या कहेंगे ? “कमल“ ”कामल” कामाल या कमाल। रोमन की वकालत करने वाले अंग्रेजी लेखक चेतन भगत के नाम ब्ीमजंद का उच्चारण चेतन हो या केतन इसका निर्णय भी आसान नहीं होगा क्यांेकि ब्ी का उच्चारण ‘च’ ही नहीं ‘क’ भी होता है।

जहां तक विज्ञापन का प्रष्न है अब विज्ञापन की भाषा धीरे-धीरे हिंदी बन रही है। उसमें अंग्रेजी के शब्दों का बाहुल्य अवश्य बढ़ा है, किंतु वह नागरी में ही। अंग्रेजी शब्द को स्वीकार करता है, जैसे यह ”दिल मांगे मोर“ यहां “मोर“ नागरी में ही लिखा जाता है। रोमन में नहीं। अंग्रेजी माध्यम के पढ़े लिखे कुछ लोगों के कारण हिंदी की लिपि को नहीं बदला जा सकता। हिंदी के समाचार पत्र अंग्रेजी की अपेक्षा कई गुणा अधिक है। उनकी पाठक संख्या भी अंग्रेजी से बहुत ज्यादा है।

आज यूरोप और अमेरिका आदि के देशों में कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर के विकास में जो शोधकार्य हो रहा है, उसने भी नागरी लिपि की वैज्ञानिकता के प्रति विशेषज्ञों का ध्यान आकृष्ट किया हैं। स्वयं भारत में भी आज सूचना प्रौद्योगिकी के लिए प्रयुक्त होने वाले लगभग हर कम्प्यूटर, टैब, मोबाईल सहित हर इलैक्ट्रोनिक डिवाइस में देवनागरी का प्रयोग संभव है। यूनिकोड ने देवनागरी को दुनिया के हर कोने में उपयोगी बना दिया है।

इस सारे विवाद के पीछे असली कारण यह है कि विदेशी कम्पनियों का बढ़ता बाजार अपने स्वार्थ और माल की बिक्री के कारण हिंदी के बाजार पर नियंत्रण करना चाहता है। वह करोड़ों लोगों की भाषा हिंदी को तो बदल नहीं सकता, उसकी लिपि को बदलने के लिए अपना प्रभाव मीडिया के माध्यम से अवश्य डालना चाहता है। यहां रोमन लिपि का वातावरण बनाना चाहता है। हिंदी में अंग्रेजी के शब्दों की अनावश्यक भरमार से हिंदी का स्वरूप बदलने के प्रयास हो रहे है। इस बहाने यह प्रभाव बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है कि इन्हें रोमन में लिखना सरल होगा। इसलिए हिंदी को रोमन अपना लेनी चाहिए। प्रश्न यह उठता है कि यदि हिंदी को रोमन में लिखा जाए तो क्या वह हिंदी रह जाएगी? वह तो ”हिग्लिश” जैसी एक नई भाषा बन जाएगी। इतिहास साक्षी है कि जब हिंदी (हिन्दवी) को फारसी लिपि में लिखा जाने लगा तो वह ”उर्दू” बन गई। अब आप ही बताइए कि क्या हिंदी को अपनी श्रेष्ठ लिपि छोड़कर रोमन जैसी अपूर्ण लिपि अपना लेनी चाहिए,।

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