हमारे जो अक्लमंद साथी हमेशा से इस मुगालते में रहते आए हैं कि न्यूज चैनल गंध मचाते हैं लेकिन प्रिंट मीडिया अच्छा काम कर रहा है, वो टेक्नीकली कितने गलत है ये अलग से बताने की जरुरत नहीं है. एक मीडिया हाउस जो अखबार भी निकालता है औऱ चैनल भी चलाता है, वो ऐसा कभी न करेगा कि एक में टीआरपी के बताशे बनाए औऱ दूसरे को द इकॉनमिस्ट जैसे स्तर पर ले जाएगा.
आज देखिए दैनिक भास्कर की बैनर स्टोरी औऱ शीर्षक. ये अखबार कितना एसटी,एससी और ओबीसी के हित में खबरें करता है, आप सब जानते हैं. रॉबर्ट बाड्रा,डीएलएफ प्रकरण में चुप्पी,राडिया-मीडिया प्रकरण में 15 दिनों की चुप्पी के बाद सोलहवें दिन एक्सक्लूसिव स्टोरी इसकी विशेष उपलब्धि रही है.
मध्यप्रदेश में ठेकेदारी, रीयल इस्टेट के धंधे में लिप्त इस अखबार की सामाजिक समझ प्रॉपर्टी डीलर से आगे है ? भाषा देखिए, हिन्दी में लिखे की नहीं, अंग्रेजी में कॉन्ट्रोवर्सी रिटर्न जैसे कि किसी टीवी रियलिटी शो के बारे में बात कर रहे हैं. ये जेएलएफ का मीडिया पार्टनर बनता आया है, मतलब कार्पोरेट जेएलएफ का पैरोकार..अब देखिए इस पैरोकार की भाषा और खबरों की समझ- शर्म आती है.
आज की सुबह दैनिक भास्कर दलितों,वंचितों और अन्य पिछड़े वर्ग के लिए मसीहा बनकर अवतरित हुआ है. आप फ्रंट पेज पर छपी इसकी इस स्टोरी को काटकर रख लीजिए, सॉफ्ट कॉपी फोल्डर में डाल लीजिए. जब सड़क की ठेकेदारी,खादानों की ठेकेदारी,मॉल बनाने के क्रम में वो इसी वंचित समाज की जमीने कब्जाएगा,उनकी जिंदगी उजाड़ेगा तो इसकी स्कैन कॉपी चारों तरफ साटकर याद दिलाइएगा- भूल गए दलित मसीहा. तुम तो मंडोला से भी गए बीते निकले. सरोकार का नशा इत्ती जल्दी उतर गया. जिस अखबार के डिस्ट्रीब्यूटरों ने खुलआम गुंडागर्दी की, चायपत्ती-मग्गा-बाल्टी मुफ्त देखकर सर्कुलेशन बढ़ाए हैं, उसका सरोकार…
(मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार की दो टिप्पणी. संदर्भ – आशीष नंदी के बयान के बाद उपजा विवाद और उसपर दैनिक भास्कर की रिपोर्टिंग)