नेटवर्क 18 की छंटनी और जबरन इस्तीफा कांड के शिकार पत्रकारों को और उन्हैं विद्रोह न करने की सलाह देनेवालों को मैं एक शख्स के बारे में बताना चाहूंगी जिसने मैनेजमेंट को बताया कि पत्रकार क्या चीज़ है .1996 में टाइम्स समूह ने अपनी जबरदस्त लोकप्रिय पत्रिका ‘धर्मयुग’ को अचानक बंद कर दिया और वो भी गहरी साजिश के साथ. एक सुबह धर्मयुग के पत्रकार और टैकनिकल टीम के कई कर्मचारी दफ्तर पहुंचे तो दरवाजे पर रोक दिया गया .बता दिया गया कि आपकी पत्रिका दिल्ली के एक प्रकाशन को बेच दी गयी है (जो कि फर्जी प्रकाशन था ) अब आने की जरूरत नहीं है.
सब परेशान थे तो उनमें से दो दलाल पत्रकार (उनमें एक महिला थी) मैनेजमेंट से बात करने गये और बाहर आ कर खुशी से बोले सबको एक-एक लाख तो दिला देंगे. सब खामोश थे लेकिन एक शख्स था जिसने कहा कि नहीं इससे ज्यादा तो हमारी सालभर की सैलरी ही होगी .उसका नाम था आलोक श्रीवास्तव .
उन्होंने बौबे यूनियन औफ जर्नलिस्ट के साथ मिलकर टाइम्स औफ इंडिया समूह के खिलाफ केस फाइल किया .ये सिर्फ उस पत्रकार की मेहनत और अन्याय के खिलाफ ज़िद थी कि करीब डेढ़ साल के अंदर लेबर कोर्ट ,मुंबई हाइकोर्ट डिवीजन बैंच और सुप्रीम कोर्ट में फैसला कर्मचारियों के फेवर में आया .
टाइम्स जैसे समूह को करीब 17 -18 कर्मचारियों द्वारा इतने कम वक्त में इतने कानूनी स्तरों पर पछाड़ना कल्पना से परे की बात थी वर्ना कई केस दसियों सालों तक चलते रहते हैं .टाइम्स समूह को कोर्ट के आदेश के बाद सारे लोगों को नवभारत टाइम्स में एब्जौर्ब करना पड़ा और पूरे अंतराल की सैलरी देनी पड़ी.वो क्रिमिनल लौयर हायर न कर पाने के लिये पैसों की कमी ही थी कि साजिश में शामिल ,उस फर्जी सौदे पर दस्तखत करनेवाला संपादक जेल जाने से बच गया .उन बेरोजगार पत्रकारों में से सभी ने कहीं न कहीं काम खोज लिया था लेकिन ये पत्रकार मुंबई में बेरोजगारी के साथ टाइम्स समूह के खिलाफ ये केस लड़ रहा था.
वकीलों का ज्यादातर काम तो आलोक ने किया .इस दौरान उनके घर की EMI भी जाती थी और ये एक मघ्यम वर्ग से ताल्लुक रखते थे .केस के खर्च के लिये उसमें शामिल पत्रकारों में से कुछ ने ही मदद की लेकिन टाइपिस्ट जैसे टैकनिकल टीम के लोगों ने साथ दिया.
ये शख्स अपना भविष्य ,अपनी सेहत और हर चीज दाव पर लगा कर लड़ा और जीता .अगर ये केस न जीतते तो इसके आधार पर कई प्रकाशनों में ऐसा होना था. छोटे से कद के हिंदी माध्यम से पढ़े इस पत्रकार के दफ्तर में आने से टाइम्स ग्रुप का मैनेजमेंट कांपता था .वो बाद में भी कई साल तक टाइम्स में काम करते रहे.
आज मेरा इससे कोई संपर्क नहीं लेकिन मीडिया में वो एक शख्स है जिससे सीखा जा सकता है कि अपने हक के लिये लड़ना क्या होता है. आज भी तमाम शहरों से लोग अपने साथ नाइंसाफी होने पर आलोक श्रीवास्तव से सलाह लेते हैं जिन्होंने बताया कि ‘बीच का रास्ता नहीं होता.’
(एक महिला पत्रकार की टिप्पणी)
पुष्कर, चूडियां पहन ली प्रयोग से मुझे गहरी आपत्ति है. चूडी शब्द का इस्तेमाल इस तरह से लाचारी और कमजोरी के रुप में आखिर क्यों इस्तेमाल किया जाए ?