वर्तिका नंदा
कई सरकारी पत्रिकाओं की हालत देख कर शर्म आती है और दुख होता है कि जनता के पैसे पर बोरियत भरे दस्तावेज जमा किए जा रहे हैं। ऐसी कई सरकारी पत्रिकाएं हैं जो अब तक नए जमाने से अछूती आंखें बंद किए बस यूं ही छपती जा रही हैं। आज ही एक सरकारी पत्रिका को कई बरसों बाद देखा तो मुझे यही नहीं सूझ रहा था कि कहूं क्या। मैं समझती हूं कि यह जनता के पैसे के साथ निंदनीय खिलवाड़ है। क्या इन पत्रिकाओं का मेकओवर हो सकता है। और एक सवाल और। इतनी सरकारी पत्रिकाएं हमें क्यों चाहिए। सरकार के पास अपने बहुत से प्रचारक तो हमेशा से ही रहते हैं। शब्दों और पन्नों को उसमें क्यों घसीटा जाए।
Sushant Jha
न सिर्फ सरकारी पत्रकाओं के लिए बल्कि सरकारी होर्डिंग्स, सरकार द्वारा दिए गए अखबारी विज्ञापन और सरकार द्वारा लगवाई जा रही मूर्तियों के नियमन के लिए एक संविधानिक आयोग बने जिसकी जवाबदेही संसद के पास हो। ये अरबो का घोटाला है और ये हमारा पैसा है।
Devendra Yadav
साहित्य का सरकारीकरण करने से मूल साहित्य का विलोपन हो जाता है। उस भाषा पर भी संकट मंडराने लगते हें। कदाचार का घुन भी लगने लगता है। जो किसी भी साहित्य के लिए खतरनाक है।
Madhup Mohta
कई पत्रिकाएं इस लिए छापी हैं ताकि सरकती उपक्रम अपने ग्राहकों या कर्मचारियों से संपर्क में रहे . संभवतः यह प्रक्रिया अंतरताने के विकास के साथ धीरे धीरे समाप्त हो जायेगी . सरकारी क्षेत्र में साहित्यिक और समाचार पत्रिकाएं न छापें तो बेहतर है
Sanjay Kumar
ऐसा नहीं है इस खेल में गैरसरकारी पत्र-पत्रिकायें ज्यादा शामिल है …जनता पैसे खर्च कर पत्र-पत्रिकायें खरीदती है ….पत्र-पत्रिकायें इम्पैक्ट फीचर और अपने हाउस के आयोजनो को एक नहीं कई पन्नो में देते है ।
(डॉ. वर्तिका नंदा के एफबी वॉल से )