वो बगावत याद है न जब विनोद कापड़ी, संजय पुगलिया के सामने अड़ गए !

नेटवर्क 18 में भारी संख्या में छंटनी के बाद इंडिया टीवी के मैनेजिंग एडिटर विनोद कापड़ी की टिप्पणी :

Vinod Kapri
विनोद कापड़ी, मैनेजिंग एडिटर, इंडिया टीवी

नौकरी से निकाला जाना कोई अभिशाप नहीं है..एक मौका है लड़ने का…पाश के शब्दों में कहें तो हम लडेंगे साथी.. क्योंकि लड़े बगैर कुछ भी नहीं मिलता….ऐसा होता है….और जब भी होता है…बहुत कुछ देकर जाता है…जरूरत है बस खड़े रहने की.. और जरूरत है बस परिस्थितियों से लडते रहने की….हवा में नहीं लिख रहा हूं….खुद भी इस लड़ाई को ससम्मान लड़ चुका हूं…..इसे पढ़िए और समझिए कि लड़ना किसे कहते हैं……..(अभिषेक उपाध्याय)

Vinod Kapri India (विनोद कापड़ी, मैनेजिंग एडिटर, इंडिया टीवी) : आज मौका ऐसा है कि कुछ पुराने दिन याद आ रहे हैं…और उसको आपसे साझा कर रहा हूं…ताकि कुछ हो, कोई रास्ता निकले…हिम्मत बढ़े, हौसला बने…बात अगस्त 2001 की है..Zee न्यूज़ में एक ”सर्वे” के बाद ये तय पाया गया था कि चैनल में 50-60 लोग ज्यादा हैं…जिनकी छंटनी की जानी चाहिए…उन दिनों मैं एक ब्रेक फास्ट शो morning zee करता था…जिसे अचानक बंद कर दिया गया…और उस सर्वे में ये भी तय पाया गया कि मेरी टीम के 16 लोग भी किसी काम के नहीं रहे..लिहाज़ा वो भी उस लिस्ट में आ गए थे…मुझे एचआर ने बुलाया और इसकी सूचना दे दी…मेरे उन 16 साथियों को ये याद होगा कि मैं एचआर और अपने संपादक संजय पुगलिया के सामने अड़ गया…लड़ गया कि ये ग़लत है…ये नहीं हो सकता…जब तक मैं ज़ी न्यूज़ में हूं ये नहीं होने दूंगा..मुझे ये ताक़त मिली थी एक विश्वास से…और वो विश्वास था अपनी मेहनत और ईमानदारी का…मुझे लगा कि ज़ी में मेरी बात सुनी जाएगी…मुझे बुलाया गया और नया ”ऑफर” दिया गया…कि देखो वैसे तो तुम्हारी नौकरी भी खतरे में है…अगर तुम चुप रहोगे तो तुम्हारी नौकरी बच जाएगी…तुमने अभी-अभी वाजपेयी और परवेज़ मुशर्रफ़ की आगरा शिखर वार्ता की अच्छी कवरेज की है (ये जुलाई में हुआ था शायद)… इसलिए तुम्हें न्यूज़ में एडजस्ट कर लेंगे…लेकिन तुम्हारी टीम के 16 लोगों को जाना होगा…मेरी शादी तय हो चुकी थी…दिसंबर में शादी थी…ऐसे वक्त में नौकरी का ना होना बड़ी मुश्किल में डाल सकता था…बड़ा धर्म संकट था…लेकिन मैंने तय किया और साफ़ कह दिया कि मुझे ये छंटनी मंज़ूर नहीं, किसी भी कीमत पर…नतीज़ा ये हुआ कि ठीक एक महीने बाद सितंबर के महीने में (शादी से दो महीने पहले) ज़ी न्यूज़ से मेरी छुट्टी कर दी गई…पर मेरी टीम के 16 लोगों में से 7-8 लोग बच गए…एक साल तक एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ी…किसी 29-30 साल के लड़के के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि वो विवाह के मंडप में बेरोज़गार बैठा था…विवाह के बाद महीनों बेरोज़गार रहा…पर वो लड़ाई ज़रूरी थी…वो संघर्ष ज़रूरी था…वो एक बड़ी परीक्षा थी…और मुझे खुशी है कि में उस इम्तेहान में पास हुआ…पास नहीं होता तो जीवन भर अपनी नज़रों में गिरा रहता…आज भी ऐसी स्थिति अगर आती है तो मैं बार-बार नहीं हज़ार बार वही करुंगा, जो मैंने 2001 में किया था…

मैंने तब भी खुद से और अपने साथियों से कहा और आज भी कहूंगा… दुखी होना लाज़मी है लेकिन एक पल भी अपने अंदर निराशा मत आने देना…ये कठिन वक्त है निकल जाएगा…और सच में एक साल बाद वो वक्त निकल गया… मेरा भी और मेरे उन 9-10 साथियों का भी..बस हिम्मत नहीं हारनी है…वो तमाम साथी आज अच्छा और बेहतर काम कर रहे हैं…अच्छी पोज़िशन पर हैं…और अक्सर कहते हैं कि (मैं तो अक्सर बोलता हूं कि) अच्छा हुआ कि हमें निकाला गया वरना इतना अच्छा नहीं कर रहे होते।

ज़ी न्यूज़ के मेरे दोस्तों.. क्या आपको अब भी याद है वो बगावत????

(साभार – फेसबुक)

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