पत्रिका भले माँ-भाभी के नाम पर आती थी,लेकिन पिताजी भी बड़े चाव से पढते थे

विकास मिश्र, पत्रकार,आजतक

यात्रा वृत्तांत : गोरखपुर से दिल्ली लौट रहा था। मन भारी था, थकान थी, ट्रेन भी करीब घंटे भर लेट। बुक स्टॉल पर गया, खोजबीन कर जो पत्रिका निकाली और खरीदी जानते हैं वो कौन सी थी-बिंदिया। महिलाओं की खास पत्रिका। दो वजहें थीं एक तो ये कि उसकी संपादक गीता जी हैं। देखना चाह रहा था कि स्वतंत्र कार्यभार में वो क्या करिश्मा दिखा रही हैं। दूसरी वजह थी कि मन हल्का करने के लिए कुछ हल्का फुल्का ही पढ़ना-देखना चाह रहा था। खैर ट्रेन का इंतजार भी कट गया। कुछ देर पढ़ा भी और फुरसत में बाकी पढ़ने के लिए रख भी दिया।

अगर आप पुरुष हैं तो मैं पूछना चाहूंगा कि कभी महिलाओं की पत्रिका पढ़ी है..। अगर नहीं तो पढ़कर देखिएगा। बचपन में मेरे घर में मनोरमा और गृहशोभा आती थी। उसमें कार्टून का एक पन्ना और कुछ स्थायी स्तंभ- छींटे और बौछार, फुहार, हाय मैं तो शर्म से लाल हुई, मंडप के नीचे..फूल भी कांटे भी..बहुत मजेदार होते थे। कहानियां भी छोटी और बिना ज्यादा दिमाग लगाए समझ में आने वाली थीं और हर हाल में सुखांत। सब पढ़कर बहुत मजा आता था।

पत्रिका भले ही मां और भाभी के नाम पर आती थी, लेकिन पिताजी भी बड़े चाव से पढ़ते थे। एक बार मौसा ने उनसे पूछा- भइया आप ये क्या महिलाओं वाली पत्रिका पढ़ते रहते हैं। बाबूजी बोलेे- भाई महिलाओं को समझने का ये फाउंडेशन कोर्स है।

खैर, मनोरमा बंद हो गई, गृहशोभा चलती रही। कभी कभार दर्शन होते थे। दैनिक जागरण गया तो वहां की पत्रिका सखी मिलने लगी, लेकिन ईमानदारी से कहूं तो उसमें चकाचौंध ज्यादा थी, लज्जत कम। बरसों से वो सिलसिला भी बंद था। पत्नी को महिला पत्रिकाओँ में कोई रुचि नहीं है।

बरसों बाद गीता जी की बिंदिया मिली, किसी बिछड़े दोस्त से मिलने जैसा एहसास हुआ। अभी फेसबुक पर देखा तो हमारे मित्र अमरेंद्र किशोर उसमें बाकायदा लिख भी रहे हैं। अच्छा है। गीता जी को मैं बढ़िया पत्रिका निकालने के लिए बधाई भी देना चाहता हूं।

(स्रोत-एफबी)

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