हे रीढ़विहीन संपादकों डूब मरो !

दिनकर श्रीवास्तव, पत्रकार,अमेठी

जिस मीडिया संस्थान को आप प्यार करते हैं जिस संस्थान के लिए आप जी तोड़ मेहनत करते हैं, जिस संस्थान के लिए ख़बर लिखते हैं, जिस संस्थान में रहकर आप लोगों के हक़ की लड़ाई लड़ते हैं, गरीबो को न्याय दिलाते हैं,बेसहारों का सहारा बनते हैं,आप की लेखनी और आप की बदौलत आपका संस्थान तरक्की करता है,ज्यादा से ज्यादा संख्या में लोग आपकी लिखी खबरों को पढ़ना चाहते हैं, वो संस्थान भी समय समय पर आपकी बदौलत ये लिखता है कि हमारी “खबर का असर”, सबसे पहले हमने उठाई थी ये आवाज, हमने दिलाया न्याय ,आदि आदि शब्दों के साथ वाहवाही लूटने वाले संस्थान क्या आपको पत्रकार मानते हैं……….इसका अंदाजा आपको तब होगा जब आप पर मुसीबत आएगी…….लानत है ….थू है…..ऐसे ब्यूरो प्रमुखों पर ऐसे रीढविहीन संपादकों पर ……..अपने को बड़ा तेज तर्राक और ख़बरों से समझौता न करने का दम भरने वाले संपादकों और ब्यूरों प्रमुखों तुम्हारी स्वामिभक्ति और चाटुकारिता पर हजारों बार थू है अगर तुम अपने पत्रकार भाइयों को न्याय दिलाने की लड़ाई नहीं लड़ सकते ………चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए ,शर्म आनी चाहिए तुम्हे कि तुम ऐसे संस्थान और नामवाले बड़े संस्थान में काम करते हो, तुमसे भले तो वो कम प्रसार वाले,जिन्हें आप की भाषा में छोटे अखबार कहा जाता है वो हैं जो कम से कम पत्रकार की इज्जत और उसका सम्मान रखते हुए पत्रकार उत्पीडन और उनके रोष की खबर तो छापते हैं| अरे पूंजीपतियों के हाथ के कठपुतली संपादकों तुम मुझे क्या पत्रकारिता सिखाओगे तुम मुझे क्या ख़बरें लिखना सिखाओगे तुम तो खुद अपना सम्मान भूल चुके हो

पूंजीपतियों के खरीदे हुए गुलाम तुम्हे खुद अपनी कलम की ताकत का अंदाजा नहीं है……हर पत्रकार को ये नाज होता है कि उसका संस्थान उसके पीछे खड़ा है उसके सुखदुख का साथी है…..अगर सम्पादक रीढ़ वाला हो तो उसके पत्रकार को कोई आँख नहीं दिखा सकता मार-पीट तो बड़ी दूर की बात है, लेकिन ऐ संपादकों तुमने तो अपनी कलम ही गिरवी रख दी,गुलामी कर रहे हो गुलामों की जिंदगी जी रहे हो,खुद मोटा माल कमाने में लग गए हो ,बड़े बड़े लोगों के साथ उठना बैठना होता है तुम्हारा…….कभी तुम भी एक छोटे से पत्रकार रहे होगे…..वो पीड़ा वो दर्द या फिर उस जुनून से गुजरे होगे ,कितने झंझावातों से लड़ना पड़ा होगा, सब भूल गये मालिक के चरणों में,कहते हैं इंसान को अपने पुराने दिन नहीं भूलने चाहिए और एक पत्रकार को तो संवेदनशील भी माना जाता है, फिर आप कैसे भूल गए …..या आपके मालिक ने आपको अपनी खातिर दलाली करने को सम्पादक बनाया है, उसी की एवज में मोटी रकम लील रहे हो आप , नेताओं को भला बुरा कहते हो उनके खिलाफ खबरे लिखते और लिखवाते हो …..नैतिकता की दुहाई देने वाली कुर्सी पर बैठे कभी अपने गिरेबान में भी झाँका है…..या क्या पता ब्रह्माजी ने तुम्हे उसी कुर्सी पर पैदा कर दिया हो…..जो अपने नीचे काम करने वाले पत्रकारों का दर्द तुम्हे दिखाई नहीं देता…….. अरे मेहनत का पैसा नहीं देते न सही…..पर उसका सम्मान भी छीन लेने पर क्यों तुले हो नमूनों……….जब उस पत्रकार का सम्मान जाएगा तो तुम्हारा और तुम्हारे संस्थान का भी तो सम्मान जाएगा…..पर तुम्हे क्या और तुम्हारी इज्जत का क्या तुममें इतनी शर्म होती तो एक आई कार्ड तो इश्यू करते……उसकी पीड़ा में तुम्हे अपनी पीड़ा नहीं नजर आती…..तुम्हारा और तुम्हारे मालिक का सीना और चौड़ा हो जाता होगा जब पता लगता होगा कि तुम्हारे संस्थान का पत्रकार मारा गया है…..तुम्हारा पत्रकार मारा जाता है और तुम्हारे अखबार में हरकत तक नहीं होती…….लानत है तुम पर…..और खुद के पत्रकार होने पर जो ऐसे संस्थान में काम करता है……एक पत्रकार…..( ये लानत उन ब्यूरो प्रमुखों और संपादकों को समर्पित है जिन्हें अपने ही संस्थान में काम कर रहे पत्रकार को पत्रकार कहने और लिखने में शर्म आती है)

(दिनकर श्रीवास्तव,इलेक्ट्रोनिक मीडिया पत्रकार,अमेठी)

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