अमिताभ श्रीवास्तव
टीवी पर होने वाली चर्चाओं ( स्टूडियो में या बाहर किसी भी जगह ) का चरित्र और उनकी अनिवार्य परिणति कुछ ऐसी हो गयी है कि अंतिम विजेता चैनल का एंकर ही होता है. विमर्श के नाम पर सारा खेल कुल मिला कर हावी होने और सामने वाले को वज़नी तर्कों के बजाय ऊँची आवाज़ और आक्रामक भंगिमाओं से दबाने तक सिमट कर रह गया है. चूँकि लोगों में व्यवस्था से और नेताओं से भरपूर गुस्सा है और इस वजह से हर किसी को दर्शक मिल जाते हैं इसलिए मुकाबला ज्यादा से ज्यादा मजमेबाज़ी का ही होता है.
Ankit Muttrija
एकदम सटीक सर।ऊपर से आज कल तो पता नहीं क्या सोचकर आठ-आठ पैनेलिस्ट खिड़की में से कुछ ना कुछ साथ साथ बड़बड़ाते नज़र आते हैं।फर्ज़ कीजिये अगर एंकर और चर्चा में हिस्सा ले रहें लोग चेहरे से ख़ासी पहचान रखने वाला न हों तब तो ये तय कर पाना ही मुश्किल है कि एंकर कौन हैं और पैनल में विशेष तौर पर बुलाए गए मेहमान कौन।
Satyendra Prasad Srivastava
वो अर्जुन बन गया/गई है और हमेशा इस ताक में रहते हैं किसकी आंख पर निशाना साधा जाय। सामने वाला क्या बोल रहा है, इसे सुनने की जहमियत कम ही एंकर उठाते हैं। उनके मन में पहले से ही सवाल उमड़ते घूमड़ते रहते हैं और उसे तड़ातड़ दागने में उनका सारा ध्यान केंद्रित रहता है। ज्यादातर मामलों में ऐसा ही देखा है