1-स्त्री सवारी की भूमिका में जब सुरक्षित नहीं है तो वो चालक की भूमिका में ? सवारी स्त्री की सुरक्षा पर तमाम चैनलों पर दुनियाभर की बातें हो रही हैं लेकिन चालक स्त्री की सुरक्षा पर कोई बात नहीं.. ऐसे में चैनल चाहे जितनी प्रो वीमेन एप्रोच होने की कोशिश करे लेकिन वो शुरू से अंत तक एक सवारी स्त्री से आगे नहीं जा पाता. इनके लिये ये पेशा या चालक की भूमिका वजूद ही नहीं रखती… समाज जितना तंग है, मीडिया उससे कम तंग नहीं.
2-वैसे तो तमाम चैनलों पर फर्राटेदार ढंग से गाडी चलाती स्त्रियां विज्ञापनों के मार्फ़त दिखाए जाते हैं लेकिन उबर रेपकांड मामले में स्त्री सुरक्षा को लेकर उठाये जानेवाले सवाल में वो सिर्फ सवारी है. क्या सवारी स्त्री को आगे ले जाकर चालक स्त्री तक ले जाकर बात करें तो बहस का दायरा नहीं बढ़ेगा? क्या ट्रैफिक में स्त्री सिर्फ चालक की भूमिका में होती है ? गाडी ड्राइव करनेवाली हज़ारों स्त्रियों में से एक भी स्त्री की बाइट नहीं ली गयी जो गाडी के भीतर अकेले होते हुये भी सुरक्षित नहीं. एक्सीडेंट कर देने की हद तक पीछा किया जाता है, जान पर बन आती है.
3-आज से कुछ साल पहले हेडलाइंस टुडे की सौम्या विश्वनाथन की आधी रात को विडियोकॉन टावर ऑफिस से लौटते हुये चैनल की कैब में हत्या कर दी जाती है. चैनल घंटों एक लाइन तक की खबर तक नहीं चलाता. क्या उस टैक्सी सर्विस को बैन कर दिया गया या फिर अगर ये कैब चैनल की थी तो क्या चैनल की कैब में सुरक्षित है महिला पत्रकार ?
4-शाम होते ही नॉएडा फ़िल्म सिटी में बड़े-बड़े सरोकारी चैनलों की स्टिगर लगी गाड़ियां कारोबार में तब्दील हो जाती है. यानी कार में खुला बार. माहौल कुछ ऐसा बनता है कि कोई भी महिला पत्रकार इन सड़कों पर अकेले चलने से हिचकती हैं. जो रिक्शे से मेट्रो के लिये आती- जाती हैं, चेहरे लपेटकर गुजरती हैं ? सवाल है कि उन्हें किससे दर लगता है ? इस इलाके में दिल्ली की सड़कों की तरह मनचले तो घूमते ही नहीं, तो फिर ? मनीषा( Manisha Pandey) ने अपनी fb timeline पर 2-3 दिन पहले एक वाकया का जिक्र किया है और चैनल तक का नाम लिया है, देखियेगा उसे…अजीब नहीं है कि महिला पत्रकार उससे डरती हैं जो टीवी स्क्रीन पर उन्हें निडर बनने को लेकर पीटीसी कर रहे हैं..
इंडिया टुडे की फीचर एडिटर ‘मनीषा पांडेय’ की आपबीती –
कल शाम की ही घटना है। करीब नौ बजे के आसपास। ऑफिस के बाहर एक चाय वाले के पास खड़ी स्मोक कर रही थी। थोड़ा कॉर्नर में खड़ी होकर। तीन लड़के खड़े थे। एक ने कॉर्नर में मुझे खड़े देखा। कोना था। हल्का अंधेरा था। एकांत था। उसने दो चीजें कीं। पहले कुछ दूर से किस उछालने वाले अंदाज में अपने सूअर जैसे होंठ गोल किए। ये चूमे जाने का इशारा था। मैं थोड़ा चौंकी। और फिर बाईं आंख दबाई।
मेरे कान गर्म हो गए। ये क्या कोई इलाहाबाद का दधिकांदो का मेला है या बनारस की विश्वनाथ वाली गली कि कोई भी आकर कुछ भी इशारे करके चला जाएगा। ये फिल्म सिटी है। यहां सारे मीडिया हाउस हैं। सामने मेरा ऑफिस है। और ये कमीना इंसान मेरे ऑफिस के सामने मुझे आंख मार रहा है। मैंने वहां से निकलकर उसके सामने आई।
क्या है। क्या कर रहा था। पता नहीं, ये कौन सी जगह है। तुम्हारा मुहल्ला है क्या ये।
उसके चेहरे का रंग उड़ गया। लगा मिमियाने। उसके साथ खड़े लड़के ने बीच-बचाव किया। क्या हुआ मैम। आपको कुछ गलतफहमी हुई होगी।
अच्छा, गलतफहमी। अंधी हूं मैं। तुमने भी पिटना है क्या, उसको डिफेंड कर रहे हो। मैंने पूछा, है कौन तू। नाम क्या है। यहीं काम करता है।
चाय वाला पूछने लगा। क्या हुआ दीदी। मैंने पूछा, ये आदमी कौन है। उसने कहा, शायद आईबीएन 7 में है। कन्फर्म नहीं है। नाम उसे भी नहीं पता था। मुझे बात बढ़ानी नहीं थी। मैंने डांटकर, वॉर्निंग देकर छोड़ दिया।देखिए जनाब, बात सिर्फ इतनी सी है कि एक बाल बराबर मौका मिलते ही वो आदमी आंख दबाने से नहीं चूका। और मौका हो तो कुछ और भी करने से काहे चूकेंगे। और उसके साथ खड़े दोनों लड़के उसका बचाव करने से भी नहीं चूके। बात आगे बढ़ती, बात से बात निकलती तो यहां तक भी पहुंच सकती थी कि मैं झूठ बोल रही हूं। या कि मैं ही दरअसल बात का बतंगड़ बना रही हूं। या कि आंख ही तो मारी। ऐसा कौन सा पहाड़ टूट पड़ा। तुम मुंह घुमा लेती। चुपचाप चली जाती। वैसे कोने में खड़े होने की क्या जरूरत थी। लड़की कोने में खड़ी होकर सिगरेट पिए तो उसका क्या मतलब होता है। इसका मतलब, उसका मतलब। ऐसे हजार मतलब निकाले जाते और उन सारे मतलबों में असली मतलब तो कहीं छिप ही जाता।
और जरूर ही इस तरह पब्लिकली बोलने से वो लड़का खुद को बहुत अपमानित महसूस कर रहा होगा। जाहिर बात है। बस जो नहीं महसूस करेगा वो और आसपास के तमाम लोग कि मुझे देखकर आंख दबाना दरअसल मुझे अपमानित करना था।