-वेद उनियाल-
जिन ओम थानवी को इमर्जेंसी की पदचाप सुनाई दे रही है वह जनसत्ता में एक तानाशाह आत्ममुग्ध और अंहकारी व्यक्ति की तरह थे। हम इनके बारे में जितना जान पाए।
1- दफ्तर में किसी पत्रकार से बात करना इन्हें अपनी तोहीन लगता था। ये समझते थे कि जिस मुंह से मंत्री से बात करके आया उससे इन पत्रकारों से क्या बात करू। इनके बात करने के तौर तरीकों में सामंतीपन झलकता रहा।
2- ये अखबार में दूसरे के लिखने लिखाने पर रोक लगाई हुई थी। जब मन आता था अपना आधा पेज का स्यापा लिखते थे। लेकिन क्या मजाल कोई दूसरा अपनी इच्छा से कुछ लिख पाए। भले अखबार मुश्किल से सात आठ हजार बिकता रहा हो , इनके रैकेट के ही लोग छपते रहे। हिंदी साहित्य को लेकर इनकी लाइजनिंग इतनी शानदार थी कि लोग इन्हें बिना किसी रचना के साहित्यकार भी कहने लगे।
3- इन्होंने किसी को चांदनी चौक जाकर भी रिपोर्टिंग करने की आजादी नहीं दी। अपने आप दुनिया घूमने का जुगाड बिठा देते थे।
4- पत्रकारिता में इस व्यक्ति ने केवल जुगाडूपन और चापलूसी को बढावा दिया। खुद भी यही काम करते रहे। अरविंद केजरीवाल की चापलूसी में इन्होने सारी सीमाओं को पार किया। जेएनयू के लिए अड्डेबाजी करते रहे। बहुत भद्दे ढंग से पत्रकार के बजाय राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ता की तरह बयानबाजी करते रहे। चापलूसी का आलम इतना कि एक बार एक पत्रकार का हाथ गलती से अरविंद केजरीवाल के कंधे पर पड गया। अरविंद केजरीवालजी की पत्नी तो नाराज नहीं हुई लेकिन ये बहुत दुखी हो गए। पूरी रात सो नहीं पाए। सुबह सुबह संवेदनाभरा बयान दे दिया। जाहिर है अरविंद को खुश करना था।
5- अजब था एक दिन जनसत्ता में चार लख छपे थे चारों केजरीवाल की प्रशंसा या पक्ष म। इनमें एक राजनीतिक लेख एक हिंदी की लेखिका का भी था जो जाहिर है केजरीवाल के लिए स्तुति गान की तरह था। और बाद में केजरीवाल ने उन्हें उपकृत भी किया।
6- इन्होंने कभी जनसत्ता के किसी रिपोर्टर सब एडिटर या किसी भी पत्रकार की किसी लेख या खबर की प्रशंसा नहीं की। लेकिन प्राइप टाइम में जुगाड के लिए रविश के आगे पीछे घूम रहे हैं। केजरीवाल का दौर पूरा हो गया अब रविश की स्तुति गान चल रहा है।
7- इनकी पत्रकारिता एकपक्षीय रही है। दिल्ली में क्या क्या नहीं हुआ , कभी सुना इनके मुंह से कोई बयान। क्या मजाल इनके मुंह से एक शब्द निकल जाए। लालू के राज में क्या हो जाए , इनकी चुप्पी महसूस कर सकते हैं। उत्तराखंड में क्या कुछ हो जाए इनकी बला से। लेकिन मोदी या भाजपा राज्यों में भाजपा सरकार की बात हो ये क्रांतिकारी हैं , भावुक हैं , चिंतक है, दूरदृष्टा हैं। और पता नहीं क्या -क्या है।
8- एनडीटीवी के प्रसंग पर राय अपनी अपनी हो सकती है। पर क्या ये रिटायर पत्रकार को इतनी समझ नहीं कि वह बताए कि पत्रकारिता के भी कुछ ऐथिक्स होते हैं। युद्ध, दंगे और विकट स्थितियों में पत्रकारों से अपेक्षा की जाती है कि वह रिपोर्टिंग करते समय सयंम बरते। प्रतिबंध लगने पर रविश वास्तविकता को छिपाकर भले कोई बयान दे, वह उनकी अपनी आत्मरक्षा के लिहाज से समझ में आता है , लेकिन ओम थानवी जैसे लोग इसे जन क्रांति पत्रकारिता का देवदूत नायक, ऐतिहासिक का तमगा दें यह हास्यास्पद है। यह विषय हो सकता है कि सरकार को एनडीटीवी पर प्रतिबंध लगाना चाहिए था लेकिन जो व्यक्ति अरविंद केजरीवाल के लिए समुद्र की रेत में लिपटासन करके आया हो उसके जरिए ऐतिहासिक , क्रांति , जैसे जुमले लोगों को मूर्ख समझने और बनाने का हथकंडा ही लगता है।
9 – सवाल यह भी है कि क्या ओम थानवी और रविश पत्रकारिता जगत के प्रवक्ता है। या ये जो कह दें वही पत्रकारों की बात। नहीं । क्यों इस देश की पत्रकारिता रविश और ओम थानवियों तक सीमित हो जाए। क्या कुछ अनोखा कर डाले हैं पत्रकारिता जगत मेें ये लोग। अकाल, युद्ध दंगे आगजनी, कहां की रिपोर्टिंग पत्रकारिता की है ओम थानवी ने । किन बीहडों में गए हैं। कौन से दूरस्थ गांव में गए हैं। किन बफीलें इलाको में गए हैं। किन हालात के सताए लोगों के बीच में रहे हैं। समाज के किन क्षेत्रों में इनका कोई खास लेखन हैं। दिल्ली में बैठकर सतना की बातें। दिल्ली में बैठकर कपूरथला की बातें। दिल्ली में बैठकर सांगली की बातें। जोशीमठ की बातें। नौटंकी है ये सब।
इनके आंखे हमेशा पुर्तगाल पेरिस वियना को ही टटोलती रहीं। नाटक क्रांति के। दिल्ली में मसाला डोसा खाकर बयान चटकाना बहुत आसान है। पत्रकारिता का जगत बहुत बडा है। वह गांव गांव के पत्रकारों को अपने में समाहित करता है। देश की हर पत्रकार की आवाज एक सामूहिक आवाज बनती है। ओम थानवी जैसे लोग हमारे ठेकेदार नहीं है। हमने अपनी जिंदगी के 25 वर्ष पत्रकारिता में इसलिए नही दिए कि कोई ओम थानवी हमारी ठेकेदारी करें। क्यों इनके बयान को इनकी बातों को पत्रकारिता जगत की आवाज माना जाए। पत्रकारिता जगत में देश भर में फैले गांव गांव में फैले पत्रकार हैं। पत्रकारिता ओम थानवी की बपौती नहीं।
वे न हम पत्रकारों के नेता हैं न हमारे प्रवक्ता। ये जहां चाहें अपनी दुकाने सजाएं। लेकिन अपनी हर बात को पत्रकारिता का जामा न पहनाए। इन्हें हक है तो देश के हर पत्रकार को भी हक है। कोई इनसे छोटा नहीं। इनसे भी सवाल होंगे। इन थानवियों को हमने घोर चापलूसी करते देखा, अपनी दुकान सजाते देखा। हमें इनके जरिए तय नहीं करना कि एनडीटीवी पर सरकार का रुख सही या गलत। एनडीटीवी चलते रहना चाहिए क्योंकि वहां हमारे पत्रकार बंधुओं की जीविका है। परिवार चलते हैं। और यह भी सच है कि हर विचार धारा कायम रहनी चाहिए। मगर यह भी जरूरी कि पत्रकारिता को बायस्ड नहीं होना चाहिए। और अपने निहित स्वार्थ के लिए तथ्यों से नहीं भटकना चाहिए। समाज हम पर विश्वास करता है। हम पहले ही एक सोच तय करके काम काज करेंगे तो सावन का अंधा बन जाएंगे। ऐसा कुछ हो भी रहा है दोनों तरफ । इधर भी उधर भी। मोदी क्या पसंद करेंगे लालू केजरीवाल क्या पसंद करेंगे राहुल सर क्या पसंद करेंगे इन दायरों से बाहर लिख पाए तो बात है। आखिर हम राजेंद्र माथुरजी को क्यों याद करते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)