अभिषेक श्रीवास्तव

कल नोएडा के श्रमायुक्त के पास मैं काफी देर बैठा था। एक से एक कहानियां सुना रहे थे मीडिया संस्थानों में शोषण की। अधिकतर से तो हम परिचित ही थे। वे बोले कि टीवी पत्रकारों की हालत तो लेबर से भी खराब है क्योंकि वे वर्किंग जर्नलिस्ट ऐक्ट के दायरे में नहीं आते, लेकिन अपनी सच्चाई स्वीकारने के बजाय कुछ पत्रकार जो मालिकों को चूना लगाने में लगे रहते हैं, वे इंडस्ट्री को और बरबाद कर रहे हैं। जो नए श्रम सुधार आ रहे हैं, उसके बाद स्थिति भयावह होने वाली है। कई दुकानें बंद होने वाली हैं। उनसे बात कर के एक चीज़ यह समझ में आई कि समाचार-दुकानों को बंद करवाने में जितना मालिक का हाथ होता है, उससे कहीं ज्यादा मालिक की जेब पर गिद्ध निगाह गड़ाये संपादकों की करतूत काम करती है।
दो ताज़ा उदाहरण हैं- एक है भास्कर न्यूज़ और दूसरा जि़या न्यूज़। भास्कर न्यूज़ के संपादकों-मालिकों ने उसकी भ्रूण हत्या कर दी। वहां काम ठप है, वेतन रुका हुआ है। उधर जि़या न्यूज़ चैनल तो बंद हो ही गया, उसकी ”जि़या इंडिया” नाम की पत्रिका के लॉन्च होने से पहले ही संपादक कृपाशंकर को हटा दिया गया। सुन रहा हूं कि 2 दिसंबर को यानी हफ्ते भर बाद नितिन गडकरी उसका लोकार्पण करेंगे, जो मुख्य संपादक एसएन विनोद के परम मित्र हैं। मेरे पास दोनों संस्थानों के कुछ घंटे के निजी अनुभव हैं। पिछले दिनों दोनों ही जगहों के संपादकों के झांसे में मैं अपनी परिस्थितिजन्य मूर्खता के चलते आ गया था। एक तो अपनी ही उम्र का रहा होगा, कोई समीर अब्बास, दिखने में काफी साफ-शुभ्र विनम्र आदमी, जो अंतत: बदमाश निकला। दूसरे मेरे पुराने जानने वाले थे, कृपाशंकर, जिन्होंने 10 साल के परिचय के बावजूद अकेले मुझे ही नहीं बल्कि ‘शुक्रवार’ पत्रिका की एक पत्रकार को भी मूर्ख बनाया।
वो तो दिल-ए-मजदूर से निकली सच्ची आह थी कि इन्हें लग गई वरना अब भी ऐसे तमाम लोग मार्केट में घूम रहे हैं। अभी दो दिन पहले ही ओडिशा में एक चैनल ऑन एयर करवाने के नाम पर मालिकों को ठगने वाला एक गिरोह पकड़ाया है। सोचिए, पूरा पी-7 सड़क पर है। फिर जिया और भास्कर के मजदूर सड़क पर होंगे। लाइव इंडिया, सहारा और न्यूज़ एक्सप्रेस का कोई भरोसा नहीं। मुझे समझ नहीं आता कि अगर मालिकान और संपादक लूट-खसोट के कारोबार में हमजोली हो सकते हैं, तो दस से तीस हज़ार के बीच 12 घंटे खटकर अपना परिवार उधारी में चलाने वाले इन मीडिया मजदूरों को एक होने से कौन सी चीज़ रोक रही है।
Mishra Vidya यह हक़ीक़त है कि दूसरों के लिए हाय तौबा मचाने वाले… ऐसे मकड़जाल या मालिकों के जाल में फंस जाते हैं जो ख़ुद पर हो रहे अत्याचार और शोषण के ख़िलाफ़ एक शब्द भी बोलने या कहने से मुंह चुराते हैं
Vivek Shukla अभिषेक भाई, पत्रकारों की हालत को बताने के लिए खराब से बढ़कर भी कोई शब्द हो तो उसका इस्तेमाल किया जा सकता है। कुछ दिन पहले अपने हिन्दुस्तान टाइम्स के एक पुराने साथी मिले। बताने लगे कि उन्हें हर माह 1400 रुपये पेंशन मिलती हैं। उससे पहले मुझे डीडीए के दफ्तर में एक माली मिले,जो वहां पर अपने साथियों से मिलने आए थे, बातों-बातों में बताने लगे कि उन्हें 1800 हजार रुपये पेंशन मिलती हैं।
Nitin Mathur मीडिया में तीन तरह के लोग हैं। पहले, मलाई खाने वाले। दूसरे, मलाई खिलाने वाले, और तीसरे इन दोनों का तमाशा देखते हुए खुद तमाशा बनने वाले। सब अपने-अपने नरक में जी रहे हैं।
@एफबी