गंभीर विषयों पर सस्ता उपन्यास रचते समाचार चैनल
आशीष नंदी के ‘विचारों का गणतंत्र’ पर अपनी बात रखने के बाद शुरू हुए प्रतिबंध के पखवाड़े में मीडिया का उत्साह देखने लायक था। उन्होंने भ्रष्टाचार और जातिगत अवधारणाओं को लेकर जो कुछ कहा, आनन-फानन में वह ‘बयान’ हो गया और उसे देश के दर्शक-श्रोता के सामने इस तरह पेश किया गया कि जैसे आशीष नंदी ने एक समाजशास्त्री के नाते प्रबुद्ध समाज के सामने विमर्श नहीं, बल्कि किसी चुनावी रैली को संबोधित किया है।फिर शाहरुख खान के लेख पर ऐसा ही माहौल बनाने की कोशिशें हुर्इं। उस लेख के लिए भी ‘बयान’ शब्द का इस्तेमाल किया गया। कमल हासन की फिल्म ‘विश्वरूपम्’ पर प्रतिबंध लगाए जाने की घटना तक आते-आते तो चैनलों की सक्रियता चरम पर थी।
चैनलों के इस रवैए पर छिटपुट तरीके से जो भी प्रतिक्रियाएं आर्इं, उनमें टीआरपी और मुनाफे का खेल जैसी बातें प्रमुखता से शामिल हैं। वैसे टीआरपी का खेल मीडिया विमर्श का गंभीर मुद्दा बनने से पहले ही जुमले के रूप में इतना घिस गया है कि बिना तकनीकी समझ के कोई भी बहुत आत्मविश्वास के साथ इस शब्द का इस्तेमाल कर जाता है। यह तो ठीक है कि टीआरपी का खेल है, क्योंकि चैनलों के दूसरे खेल को समझने के लिए हमारे पास कोई दूसरा तरीका नहीं है, लेकिन साथ में यह भी है कि वे इस खेल के अलावा कुछ ऐसे बड़े खेल भी कर रहे हैं, जिसके आगे टीआरपी का खेल आने वाले समय में बहुत बौना नजर आएगा।
जिन चैनलों का साल भर अता-पता नहीं होता, वे कुंभ और चुनाव में अचानक कैसे अवतरित हो जाते हैं! जिन चैनलों के पास मीडियाकर्मियों को वेतन देने तक के पैसे नहीं होते, उनके संवाददाता किस बूते और किसके खर्चे पर कॉरपोरेट सम्मिलन की खबर करने विदेश चले जाते हैं! जो चैनल पांच- छह सौ करोड़ रुपए के कर्ज में डूबा हो, रातोंरात कैसे देश के सबसे बड़े क्षेत्रीय चैनल नेटवर्क को अपने अधीन कर लेता है? ये ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब तलाशें तो यह बात स्वाभाविक रूप से सामने आएगी कि इस देश में टीवी चैनलों का एक बड़ा जखीरा है, जिसे न तो टीआरपी से बहुत फर्क पड़ता है और न ही उसके जरिए मिलने वाले विज्ञापन से। मुनाफे की गली कहीं और खुलती है।
चुनावी मौसम में पेड न्यूज भले राष्ट्रीय समस्या बन जाते हों, लेकिन यह चैनलों के धंधे का स्वाभाविक तरीका है। प्रतिबंध के पखवाड़े में आशीष नंदी, शाहरुख खान, कमल हासन और अब प्रगाश बैंड को लेकर चैनलों ने जिन भाषा का प्रयोग किया, उसकी एक व्याख्या यह है कि भाषिक स्तर पर ये बहुत तंग और खोखले हैं। लेकिन अपने इस खोखलेपन को वे न केवल ढंकते, बल्कि उसे ही अपना शास्त्र मानते हैं।
मीडियाकर्मी हजार-बारह सौ शब्दों में होने वाली इस पत्रकारिता पर बाकायदा किताब लिखते हैं और नामवर आलोचक की ओर से प्रमाण-पत्र जारी किया जाता है। सवाल है कि जब देश और दुनिया की सारी घटनाएं इन्हीं निर्धारित शब्दों में व्यक्त की जानी हैं तो हर विमर्श और लेख को बयान बनने में कितना वक्त लगेगा? क्या इन हजार-बारह सौ शब्दों में तमाम तरह की गतिविधियों की पेचीदगी और संश्लिष्टता व्यक्त हो जाती है?
टीवी अपने को जिस लोकतंत्र को खड़ा करने की कोशिश में लगा है वहां इतने भर शब्द न केवल पर्याप्त, बल्कि इससे ज्यादा या तो कबाड़ हैं या फिर उसकी समझ से परे, जिसमें जाने की क्षमता उसने कभी विकसित नहीं की। जिस सरल, सहज और आमफहम भाषा की दलील देते हुए अपनी अक्षमता पर परदा वे सालों से डालते आए हैं, उसमें बौद्धिक विमर्श, संवेदनशील लेख और प्रतिरोध के स्वर की परणति बयान और प्रतिबंध में होती है तो आश्चर्य क्या।
दूसरी बात कि शब्दों और अभिव्यक्ति के अभाव में ये चैनल जो लोकतंत्र रचते हैं, वह आगे चल कर खुद कितना लोकतंत्र के विरोध में है, यह बात भी वे खुद बता जाते हैं। इस देश में जब समाचार चैनलों का दौर शुरू हुआ तो दूरदर्शन के जरिए अपनी पहचान कायम कर चुके मीडियाकर्मियों ने पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग का उपहास उड़ाते हुए कहा था- रेडियो और टेलीविजन सरकारी भोंपू नहीं हैं कि हर बुलेटिन ‘प्रधाननंत्री ने कहा है कि’ से शुरू हो। बात सही है, लेकिन किसने सोचा होगा कि अपने सोलह-सत्रह साल के इतिहास में टीवी का लोकतंत्र इस दिशा में विकसित होगा कि एक नागरिक उसी क्रूर सत्ता की तरह, कट्टर संगठनों की तरह व्यवहार करेगा, जिसके लिए अलग से सरकार के दमनकारी और साम्राज्यवादी माध्यमों को मेहनत न करनी पड़े?
आप गौर करेंगे कि जिस भी व्यक्ति या संगठन द्वारा विमर्श, लेख, सिनेमा या अभिव्यक्ति के दूसरे रूपों का विरोध किया जाता है, आमतौर पर उनका प्रशिक्षण इन अभिव्यक्ति में निहित तरलता और संवेदनशीलता को समझने की नहीं होती। संस्कृति रक्षा के नाम पर घूमफिर कर वही धार्मिक संगठनों और राजनीतिक मतों से जुड़े लोग टीवी के परदे पर हाजिर हो जाते हैं, जो संस्कृति को सनातन सत्य के बजाय रोजमर्रा का अभ्यास और एकरूपता के बजाय बहुलता में देखने को किसी भी स्तर पर तैयार नहीं हैं। ये मीडिया और राजनीति की वे फसलें हैं, जिन पर इन दोनों ने भारी पूंजी और समय निवेश किया है और इस लायक बनाया है कि वे लोकतंत्र की जमीन पर खड़े होकर इनकी जुबान बोल सकें। अब इन्हें अलग से क्रमश: दमनकारी और मुनाफे के पीछे भागने जैसी गतिविधि की जरूरत नहीं है। इस स्थिति में सरकार और उसके संगठनों को इतना उदार और मीडिया को इतना जनपक्षधर इसी करिश्मे के कारण देख पाते हैं।
यह कितनी खतरनाक स्थिति है कि जिस निर्मल बाबा को खुद चैनलों ने फर्जी करार दिया, मुकदमे हुए, अंधविश्वासी और समाजविरोधी बताया, उन्हें दुबारा प्रसारित करना शुरू किया। ज्योतिष के नाम पर उन पाखंडियों का प्रवचन अबाध गति से जारी है, जो व्यक्ति का ललाट और चेहरे का रंग देख कर नौकर रखने की सलाह देते हैं। स्त्री की आंख के हिसाब से बात करने की राय देते हैं। मतलब, चैनल के हिसाब से ये कभी संस्कृति के लिए खतरा पैदा नहीं करते, क्योंकि ये विज्ञापनदाता हैं चैनल के अर्थशास्त्र के नियंता, जबकि एक समाजशास्त्री, लेखक और कलाकार की अभिव्यक्ति इतनी खतरनाक मान ली जाती है कि उससे हजारों साल पुरानी संस्कृति संकट में पड़ जाती है!
टीवी के इस लोकतंत्र को नए सिरे से समझने की जरूरत है कि अपने कारोबारी संस्कार के बावजूद वह जिस जागरूकता की बात करता है और उससे प्रभावित होकर दर्शक सक्रिय भी होते हैं वही आगे चल कर उसे अपने लोकतंत्र से किस कदर कुचलता है। दामिनी के लिए दिल्ली में उमड़ी लाखों की भीड़ हो या फिर कश्मीर में प्रगाश बैंड की लड़कियों के समर्थन में जुटे लोग, चैनलों के लिए वह सब सामाजिक आंदोलन न होकर सियासी मसला ज्यादा हो जाता है। यहां आकर वह राजनीति और कॉरपोरेट की उस सामान्य नीति से अलग व्यवहार नहीं कर रहा होता है, जिसे लोकतंत्र की जमीन को स्याह-सफेद में बांटने की जल्दबाजी रहती है, क्योंकि इन दोनों के बीच की स्थिति में जिस चेतना के पनपने और बचे रहने की गुंजाइश बची रहती है, राजनीति, कॉरपोरेट और संभवत: मीडिया को भी अपने खतरे वहीं नजर आते हैं। (मूलतः जनसत्ता में प्रकाशित. जनसत्ता से साभार)
(विनीत कुमार- युवा मीडिया समीक्षक, टीवी कॉलमनिस्ट( तहलका हिन्दी) और मंडी में मीडिया किताब के लेखक.)