वेद उनियाल,वरिष्ठ पत्रकार
अगर आप बेरोजगार है तो उत्तराखंड आइए । एक कैमरा और एक माइक लेकर। आपको सवा करोड रुपए का विज्ञापन मिल सकता है।
एक बडे अखबार के पत्रकार को जब उसके संस्थान ने हटाया तो वह अपने गांव नहीं गया। वह उत्राखंड में ही जम गया। क्योंकि उसकी कामधेनु तो यहीं थीं। उसने जुगाड लगाया और छोटे से टीवी चैनल में चला गया । चला क्या गया उसे वहीं से शुरू किया। अब सुनने में आया है कि एक विज्ञापन का कमीशन उसे इतना मिल गया कि तीन पुश्त पाल लेगा।
हाल इसके ऐसे हैं कि देहरादून में एक घंटाघर है इसके अलावा ये पहाड के बारे में कुछ नहीं जानता। पिछला पत्रकारिता का इतिहास कुछ नहीं। केवल देहरादून इनके लिए आमदनी कमाने का ससुराल है।
केदारनाथ की आपदा आई तो इन लुटेरों के हाथ पांव फूल गए थे। पहाडों से आई खबरों पर विश्लेषण नुमा पेंबद लिखते थे। हाल ये है कि न उत्तराखंड की संस्कृति का पता , न राजनीति का पता न खान पान का पता, न संस्कृति का पता, लेकिन बडे बडे पद हथियाए हुए हैं। या लाइजनिंग करके पाए हुए हैं। न जाने पहाड़ के पत्रकार कहां चले गए। कुछ तो चिंता करते अपने पहाड़ की। कुछ ही मैदानी पत्रकार हैं जो गरिमा के साथ अपना काम कर रहे हैं। पत्रकारिता का धर्म निभा रहे हैं। बाकि यहां अधेंर गर्दी मचाने आए हैं।
दस साल पहले इनके पास साइकिल में हवा भरने के लिए पंप खरीदने का पैसा नहीं होता था। आज आलीशीन गाडियों में घूम रहे हैं। सब कमीशन का खेल है।
उत्तराखंड में तबाही मची है लेकिन लूटने वालों के लिए समुंदर हैं। कोई पूछने वाला नहीं। पिछले पांच दस साल में कई पत्रकार यहां डेरा जमाकर बैठ गए हैं। हर आदमी यहां मीडिया संस्थान में नौकरी करने खासकर ब्यूरों मीडिया में जाने के लिए लालायित है। सब गौरखपुर कानपुर इलाहाबाद के बजाय देहरादून में ही धूनी रमाना पसंद कर रहे हैं।
कुछ पत्रकार घरों में अपने लोगों को फोन करते हैं , बस जरा चुनाव निपट जाएं फिर यहां से आते हैं। जाहिर है नेताओं के जरिए चुनाव में वो धीरू भाई अंबानी बनना चाहते हैं। उत्तराखंड की जितना सर्वनाश मीडिया और छद्म किस्म के पत्रकारों के जरिए हो रहा उतना किसी और के जरिए नहीं। ऐसे पत्रकार जो एक पैरा नहीं लिख पाते हैं , जिन्हें न्यूज विश्लेषण लेख किसी चीज की समझ नहीं। यहां तक कि पेज बनाने का भी शहूर नहीं। लेकिन चापलूसी जुगाडबाजी गुटबाजी से बडे पदों पर बैठे हैं।