पिछले कुछ दिनों से बलात्कार से सम्बंधित कानून को सख्त करने की मांग जोरो पर है। मांग की जा रही है कि बलात्कारियों को फांसी दी जाये। पर क्या वास्तव में बलात्कारियों को फांसी देकर और इससे सम्बंधित कानून को मजबूत करके हम बलात्कार जैसी अमानवीय घटनाओ को रोक सकते है ? जबकि बलात्कार जैसी विकृत मानसिकता आदमी के शैतानी दिमाग की उपज होती हैं जिसे वो कब और कहाँ और कैसे पूरा करेगा ये किसी को पता नहीं होता । ऐसी स्थिति में क्या सिर्फ सख्त से सख्त कानून बलात्कार की घटनाओ को रोक पायेगा। यह विचार करने योग्य प्रश्न है?
हालाँकि यह सही है कि कानून की कमजोरी के चलते इस तरह की घटनाये बढ़ी हैं पर सिर्फ कमजोर कानून की कसौटी पर हम बलात्कार जैसी घटनाओ को जस्टिफाई नहीं कर सकते क्योकि अगर सिर्फ सख्त कानून ही अपराध की पुनरावृति पर रोक लगाता है तो फिर हत्या, लूट और डकैती जैसी घटनाओ की पुनरावृत्ति क्यों होती है । इन अपराधो की सजा तो मौत और आजीवन कारावास है। फिर भी ये घटनाये आये दिन होती है। यानि ये घटनाये स्पष्ट करती है कि सिर्फ सख्त कानून ही अपराध की पुनरावृत्ति पर रोक नहीं लगा सकता। ऐसे में ये मानना कि कानून को सख्त कर देने से बलात्कार जैसी घटनाये रुक जायेंगी, समझ से परये है। हाँ इतना जरुर हो सकता है कि अंशकालिक तौर पर ये घटनाये कम हो जाये पर इसके दीर्घकालिक परिणाम काफी घातक होंगे क्योकि ये मानी हुई बात है की इस देश किसी भी कानून का सदुपयोग कम दुरूपयोग ज्यादा होता हैं । जिसके तीन कारण है हमारी कमजोर न्यायपालिका, विधायिका और हमारा समाज।
न्यायपालिका इसलिए कमजोर है क्योकि वो साक्ष्यों के आधार पर अपना फैसला देती है और साक्ष्य बनाये भी जाते हैं और बिगाड़े भी जाते हैं। ऐसे में पुलिस द्वारा अपराध के संदर्भ में पेश किया गया साक्ष्य कितना सही है और कितना गलत इसको तय करने का कोई भी पैमाना हमारी सम्मानित न्यापालिका के पास नहीं है। सिवाये इसके कि वो शक होने की दशा में दोबारा जांच के आदेश करें या उन्ही सबूतों के आधार पर अपना फैसला सुनाये। विधायिका इसलिए कमजोर है क्योकि आज की पूरी राजनैतिक व्यवस्था व्यक्तिगत हो गयी हैं। आज संसद में वही मुद्दे विचार के लिए रखे जाते है जिससे सत्ता पक्ष या विपक्ष को फ़ायदा हो। आम आदमी की बुनियादी अवाश्य्कताओ से न सत्ता पक्ष कोई सरोकार हैं और न विपक्ष का। आज दिल्ली बलात्कार कांड को लेकर विपक्ष जो भी आवाज़ उठा रहा है उसका उद्देश्य मात्र जनता की अंशकालीन आक्रोश का राजनैतिक फ़ायदा उठाते हुए सत्तापक्ष को बदनाम करना है क्योकि ऐसा हो नहीं सकता की आज जो विपक्ष उनके सत्ता में रहते हुए पूर्व के वर्षो में कोई बलात्कार घटना न हुई हो। ऐसे बड़ा सवाल ये है कि जब उनके शासनकाल में बलात्कार की घटनाये हुई तो उन्होंने बलात्कार पर क्यों नहीं कोई सख्त कानून बनाया। बात साफ़ है की आज विधायिका में बैठे हुए लोगो का आम आदमी से कोई लेना देना नहीं है, लेना देना है तो केवल उन मुद्दों से जिनसे व्यक्तिगत फ़ायदा मिलता हो। अब बात करते है दिल्ली बलात्कार कांड के उस कारण की जिसने इस पूरी घटना के घटित होने में एक अद्रीश्य्मन भूमिका निभाई यानि हमारा बहरा समाज। कल एक न्यूज चैनल से बात चीत में इस कांड के पीडिता के दोस्त ने जो कुछ बताया उसने यह सिद्ध कर दिया कि हमारा समाज आज भी मै, मेरा परिवार और मेरे लोग की मानसिकता से ग्रषित है। आज हर एक आदमी को दूसरे आदमी से कोई मतलब नहीं है। दूसरा क्या कर रहा है, किस मुसीबत में है इससे उसको कुछ भी लेना देना नहीं है। हाँ जब बात मोमबत्ती वाला मोर्चा निकालने की और हमें न्याय दो का नारा लगाने की आती है तो यही आम आदमी सबसे पहले निकलता है बिना ये सोचे कि कल जो घटना घटी, और जिसके लिए आज हम ये मोर्चा निकाल रहे, वो मेरे सामने ही घटी थी और उसके घटित होने का सबसे बड़ा जिम्मेदार मैं हूँ।
बात साफ़ है कि किसी भी घटना के घटित होने और उसके बढ़ने में उपरोक्त यही तीन कारण जिम्मेदार हैं। इसलिए अगर हमें बलात्कार जैसी किसी भी अमानवीय घटना को रोकना है तो हमें सबसे पहले इन तीनो जगहों पर सुधार की बात करनी चाहिए। जब इनमे सुधार होगा तो बिना कोई सख्त कानून बनाये हम मौजूदा कानून और उस कानून के मुताबिक दी जाने वाली सजा के दम पर ही अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा दे सकेंगे और अपराध को भी नियंत्रित कर सकेंगे। लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता तब तक बलात्कार जैसी घटना के लि
ए बनाये जाने वाला कोई भी सख्त कानून एक कठपुतली की तरह होगा जिसका हर स्तर पर ज्यादा से ज्यादा दुरुपयोग किया जायेगा। जैसा की आज जन सुरक्षा के लिए बने तमाम कानून में देखने को मिल रहा है।
अनुराग मिश्र
स्वतंत्र पत्रकार
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