एनडीटीवी का मालिक कभी टूटपूंजिया पत्रकार हुआ करता था. उसकी हैसियत मीडिया उद्योग स्थापित करने जैसी नहीं थी। पर एनडीटीवी जैसा उद्योग खडा करना. मीडिया कारपोरेट संस्था खड़ा करना कोई चमत्कार जैसा ही खेल है। एक आम पत्रकार अपने वेतन से सिर्फ अपना परिवार पाल सकता है. भारी-भरकम मीडिया चैनल. मीडिया उद्योग और मीडिया कारपोरेट संस्था खडा न कर सकता है. दिल्ली में रहने वाले पत्रकार यह सच्चाई जानते हैं। अपने चैनल में सरकारी नौकरशाहों और मंत्रियों के नालायक बेटे-बेटियों को नौकरी दी गयी ताकि सरकारी नौकरशाहों और मंत्रियों से सेटिंग बनायी जा सके। दूरदर्शन के टेप को अदल-बदल कर खेल खेला गया। पत्रकार विष्णुगुप्त का विश्लेषण –
-विष्णुगुप्त-
मीडिया-चिंतन : क्या सही में देश के अंदर आपातकाल जैसी स्थिति उत्पन्न हो गयी है?क्या सही में देश के अंदर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर संकट खडा हो गया है? क्या सही में नरेन्द्र मोदी सरकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोटने के रास्ते पर चल रही है? क्या सही में एनडीटीवी पर एक दिन का प्रतिबंध पूरे मीडिया को निशाने पर लेने की कार्रवाई मानी जानी चाहिए?क्या कांग्रेस की मनमोहन सरकार में इलेक्टोनिक मीडिया पर प्रतिबंध नहीं लगा था?आज शोरगुल मचाने वाले तथाकथित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हथकंडेबाज उस समय कहां थे जब मनमोहन सिंह सरकार ने लाइव इंडिया टीवी चैनल पर एक सप्ताह का प्रतिबंध लगाया था? एनडीटीवी के पक्ष में वैसे लोग और वैसी राजनीतिक पार्टियां क्यों और किस उद्देश्य के लिए खडी है जो खुद अभिव्यक्ति की आाजदी का गला घोटती रही हैं?जिनके अंदर लोकतंत्र नाम की कोई चीज ही नहीं है?ऐसी राजनीतिक पार्टियां क्या एक प्राइवेट कंपनी के रूप में नहीं चल रही हैं? क्या एनडीटीवी का अपराध अक्षम्य हैं?क्या एनडीटीवी ने रिर्पोटिंग करते समय देश की सुरक्षा की चिंता की थी? क्या एनडीटीवी ने हमलावर पाकिस्तान आतंकवादियों की मदद करने वाली रिपोर्टिंग नहीं की थी?क्या एनडीटीवी ने यह नहीं बताया था कि हमलावर उस जगह के नजदीक हैं जहां पर वायु सेना का भंडार है और जहां पर रौकेट लांचर से लेकर अन्य हथियार रखे हुए है?क्या एनडीटीवी को देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड करने का अवसर पर अवसर दिया जाना चाहिए? क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देश की सुरक्षा और सम्मान को ताक पर रखकर होनी चाहिए? क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देश की सुरक्षा से बडी होनी चाहिए? क्या अब यह समय नहीं आ गया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की लक्ष्मण रेखा तय कर दी जाये?क्या यह सही नहीं है कि मीडिया की गैर जिम्मेदार रिपोर्टिंग और गैर जिम्मेदार आलोचना से सेना का मनोबल प्रभावित होता है? अब तक खासकर इलेक्टोनिक मीडिया के लिए नियमन जैसी कोई व्यवस्था क्यों नहीं बनायी गयी है? क्या यह सही नहीं है कि अभिव्यक्ति की आजादी के शोर ने एनडीटीवी के अपराध पर आवरण डाल दिया है। जबकि एनडीटीवी के गैर जिम्मेदारना रिर्पोटिंग पर भी खुल कर बहस होनी चाहिए?
मीडिया की विश्वसनीयता किस प्रकार गिरी है?मीडिया किस प्रकार भ्रष्ट हुआ है? मीडिया किस प्रकार अराजक हुआ है?मीडिया किस प्रकार गैर जिम्मेदार हुआ है?इसका एक उदाहरण टिवटर का एक सर्वे निष्कर्ष है। टिवटर ने एक सवाल पूछा था कि भारत में लोकतंत्र का कौन खंभा सबसे भ्रष्ट?सबसे अविश्वसनीय- सबसे गैर जिम्मेदार है? इस सर्वे में 17000 हजार लोगों ने भाग लिया था। पचास प्रतिशत से अधिक लोगों का जवाब चौथा खंभा यानी मीडिया था। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संविधान की धारा 19 ए में निहित है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अभिप्राय यह है कि देश के नागरिकों को अपनी बात रखने या विरोध दर्ज करने की आजादी होनी चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अक्षुण रखने में मीडिया की भूमिका सर्वश्रेष्ठ और निर्णायक रही है। मीडिया भी एक समय जिम्मेदार और सजग था। तब इलेक्टॉनिक मीडिया का उतना शोर नहीं था। खासकर प्रिट मीडिया की भूमिका लगभग संयम और देश की सुरक्षा की कसौटी पर चाकचौबंद हुआ करती थी। निसंदेह तौर पर जब से इलेक्टानिक मीडिया का शोर देश में हुआ है तबसे मीडिया की विश्वसनीयता घटी है. मीडिया को अविश्वसनीय माना जाने लगा है। इसलिए कि इलेकटोनिक मीडिया के नियमन की कोई सरकारी व्यवस्था ही नहीं बनी है. जबकि प्रिट मीडिया के नियमन के लिए प्रेस परिषद जैसी संस्था है। जब कोई नियमन की व्यवस्था ही नहीं होगी तो फिर जिम्मेदारी- अनुशासन का भाव कहां से आयेगा? डर कहां से उत्पनन होगा। यही कारण है कि इलेकटानिक मीडिया पूरी तरह से अराजक और अनियंत्रित रिपोटिंग की प्रतीक बन गयी। कई फर्जी घटनाओं को दिखाना- पैसे वूसली के लिए फर्जी स्टिंग आपरेशन करने जैसे खेल खेले गये है। फर्जी स्टिंग आपरेशन का कोई एक नहीं बल्कि अनेकों खेल खेले गये हैं। खबर बनाने के लिए आत्महत्या करने और आत्मदाह करने के लिए उकसाने के आरोप इलेक्टानिक मीडिया पर लगे हैं।
जहां तक एनडीटीवी की बात है तो उसकी सच्चाई कौन नहीं जानता है। एनडीटीवी का मालिक कभी टूटपूंजिया पत्रकार हुआ करता था. उसकी हैसियत मीडिया उद्योग स्थापित करने जैसी नहीं थी। पर एनडीटीवी जैसा उद्योग खडा करना. मीडिया कारपोरेट संस्था खड़ा करना कोई चमत्कार जैसा ही खेल है। एक आम पत्रकार अपने वेतन से सिर्फ अपना परिवार पाल सकता है. भारी-भरकम मीडिया चैनल. मीडिया उद्योग और मीडिया कारपोरेट संस्था खडा न कर सकता है. दिल्ली में रहने वाले पत्रकार यह सच्चाई जानते हैं। अपने चैनल में सरकारी नौकरशाहों और मंत्रियों के नालायक बेटे-बेटियों को नौकरी दी गयी ताकि सरकारी नौकरशाहों और मंत्रियों से सेटिंग बनायी जा सके। दूरदर्शन के टेप को अदल-बदल कर खेल खेला गया। एनटीवी सिर्फ अभी ही नहीं चर्चे और विवाद में आयी है. अपनी गैर जिम्मेदार भूमिका के कारण पहली बार ही निशाने पर नहीं रही है. इसके पहले भी एनडीटीवी विवाद में रही है. उसकी भूमिका बदबूदार रही है. उसकी भूमिका सेंटिगबाज की रही है, उसकी भूमिका सरकार को प्रभावित करने की रही है। तथ्य भी चाकचौबंद है, तथ्य पूरे देश के सजग नागरिकों को मालूम है। याद कीजिये टू जी स्पेक्टरम घोटाला और ए राजा की कहानी और आपको पता चल जायेगा कि एनटीवी की कैसी बदबूदार भूमिका थी, उसकी भूमिका पत्रकारिता को गति देने की थी या फिर सेंटिग बाज की थी? एनडीटीवी की पत्रकार बरखा दत और टू जी घोटाले के मुख्य आरोपी ए राजा के बीच हुई बातचीत का टेप मौजूद है। बरखा दत ने ए राजा को दूरसंचार मंत्री बनवाने की विसात विछाई थी और फायदे की विसात विछायी थी। तब मीडिया में बरखा दत के खिलाफ ऐसे-ऐसे चुटकूुले चले थे जो लिखने योग्य नहीं थे। अगर एनडीटीवी में ईमानदारी होती, अगर एनडीटीवी में नैतिकता होती तो फिर एनडीटीवी तुंरत बरखा दत्त को अपने चैनल से निकाल बाहर कर देती। बरखा दत्त आज भी एनडीटीवी की स्टार बनी हुई है। एनटीवी टीवी में महिला पत्रकारों का यौन शोषण भी मीडिया में चर्चा का विषय रहा है। एनडीटीवी का एक नामी स्टार पत्रकार का सेक्स वीडियों कई महीनों तक मीडिया में घूमा-फिरा था।
तथाकथित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन में यह तथ्य, यह सच्चाई दबायी जा रही है कि पहली बार मीडिया को निशाना बनाया जा रहा है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोटा जा रहा है, लोकतंत्र पर प्रहार किया जा रहा है। जबकि कांग्रेस जमाने की बात छिपायी जा रही है, कांग्रेस जमाने की बात कोई कर ही नहीं रहा है। याद कीजिये लाइव इंडिया टीवी प्रकरण को। कांग्रेस की मनमोहन सरकार ने लाइव इंउिया टीवी चैनल पर कोई एक दिन का नहीं बल्कि एक सप्ताह का प्रतिबंत लगायी थी। लाइव इंडिया टीवी के एक रिपोर्टर ने एक शिक्षिका को ब्लैकमेल करने की झूठी कहानी गढी है और उस कहानी में उस शिक्षिका की जान जाते-जाते बची थी। लाइव इडिया के रिपोर्टर पर मुकदमा भी दर्ज हुआ था। जब कांग्रेस सरकार ने लाइव इंउिया टीवी पर एक सप्ताह का प्रतिबंध लगाया था तब कहीं शोर तक नहीं मचा था। आज शोर मचाने वाले लोग तब चुप्पी साध रखे थे। यह भी सही है लाइव इंउिया टीवी चैनल ने उसी तरह की लक्ष्मण रेखा पार की थी जिस प्रकार की लक्ष्मण रेखा एनडीटीवी ने पार की है।
आज सिर्फ प्रिंट और इलेक्टानिक मीडिया का ही दौर नहीं है। आज सोशल मीडिया और वेव मीडिया का भी दौर है। जनमत बनाने के नये-नये तकनीक अस्तित्व में आये हुए हैं। इसलिए प्रिंट या इलेक्टानिक मीडिया अपने आप को भगवान न समझे, प्रिंट और इलेक्टानिक मीडिया अपने आप को कानून और संविधान से उपर न समझे, प्रिंट और इलेक्टानिक मीडिया अपने आप को देश की सुरक्षा से उपर न समझे। प्रिंट और इलेक्टॉनिक मीडिया को यह खुशफहमी छोड़ देनी चाहिए कि सिर्फ वे ही जनमत बनाते हैं। जनमत बनाने वाले और भी है। सोशल मीडिया और वेब मीडिया आज एनडीटीवी के खिलाफ खडा है। सोशल मीडिया ने एनडीटीवी के काले कारनामों की तह पर तह खोल रखी है। सोशल मीउिया में प्रमाण के साथ है कि कैसे एनडीटीवी ने देश की सुरक्षा को ताक पर रख कर आतंकवादियों को मदद करने वाली रिपोर्टिग की थी। इस लिए तथाकथित एनडीटीवी के समर्थक हथकंडे बाज खुशफहमी छोड दे कि वे ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर है। सरकार का यह कदम सीधे तौर पर देश की सुरक्षा और देश के जवानों के सम्मान व मनोबल से निकला हुआ है। मीडिया को आज विरोध का हथकंडा बनने की जगह आत्म चिंतन करने की जरूरत है और विश्वसनीयता सुरक्षित, संरक्षित करने की होनी चाहिए। प्रणव रॉय से यह भी हिसाब मांगना चाहिए तुमने टूटपूजियां पत्रकार से कैसे एनडीटीवी मीडिया हाउस उद्योग का मालिक बन गया?
(लेखक ‘विष्णुगुप्त’ वरिष्ठ पत्रकार हैं)