पत्रकार रिम्मी शर्मा की ज़बानी सेनारी नरसंहार की कहानी

रिम्मी शर्मा,पत्रकार
रिम्मी शर्मा,पत्रकार

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बिहार में नब्बे का दशक खूनी संघर्ष का रहा है.रणवीर सेना और नक्सलियों/माओवादियों की खूनी झड़प में गाँव के गाँव उजड़ गए. खानदान खत्म हो गए और जो घाव लगे उसपर अबतक मरहम नहीं लग सका. ये बात अलग है कि घाव पर मरहम लगाने के बहाने राजनीतिक दलों ने इसपर खूब रोटियां सेंकी और इसे रोकने की बजाए ऐसे नरसंहारों को और हवा दिया. ऐसा ही एक नरसंहार सत्रह साल पहले जहानाबाद के सेनारी गाँव में हुआ था. 17 मार्च 1999 को एमसीसी के सैंकड़ों नक्सलियों ने सेनारी गाँव को घेर लिया और घरों से जबरन निकालकर कुल 34 किसानों की गला रेतकर हत्या कर दी. हत्या का तरीका इतना वीभत्स था कि कोर्ट ने भी इसे रेयरेस्ट ऑफ द रेयरेस्ट केस माना. न्याय का तमाशा देखिये कि सत्रह साल पहले हुए इस हत्याकांड पर फैसला गत दो दिन पहले आया जिसमें 10 लोगों को फांसी की सजा दी गयी और तीन को आजीवन कारावास. इसी फैसले पर हत्याकांड की भुक्तभोगी पत्रकार रिम्मी शर्मा ने लेख लिखा है जिसे मीडिया खबर के पाठकों के लिए हम यहाँ पेश कर रहे हैं. गौरतलब है कि इस नरसंहार में पत्रकार के परिवार के छह लोग मारे गए और आज भी उस घटना को याद कर उनके रोंगटे खड़े हो जाते है. पढ़िए एक पत्रकार की ज़बानी सेनारी नरसंहारी की कहानी-

एक पूरी पीढ़ी को मिटा देने वाला नरसंहार और उसपर फैसला…

रिम्मी शर्मा,पत्रकार
रिम्मी शर्मा,पत्रकार

बिहार के बहुचर्चित सेनारी नरसंहार मामले में कल जहानाबाद सेशन्स कोर्ट ने 15 दोषियों को सजा सुनाई. 10 को फांसी की सजा मिली 3 को उम्रकैद. 2 लोग फरार हैं इसलिए उनके लिए कोई सजा मुकरर्र नहीं की गई. ये हत्याकांड 17 मार्च 1999 को हुआ था. इसी शाम लगभग साढ़े सात के आसपास, नक्सलियों ने हमारे गांव में अपना कहर बरपाना शुरु किया था. अगली सुबह जब हम सोकर अलसाई आंखों से पूरे दिन में क्या करना है ये तय कर रहे थे, तब तक उस गांव की तस्वीर बदल चुकी थी. 34 लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था.

कल मैंने जैसे ही खबर सुनी की सजा सुना दी गई है मुझे पापा का ख्याल आ गया. इस वक्त अगर वो होते तो क्या करते. दिन भर टीवी के आगे चिपके रहते और फिर सभी को फोन करके खबर देते कि सबको फांसी का सजा मिल गया.

मैंने और मेरे परिवार ने इस हत्याकांड में अपने घर के 5 सदस्यों को खोया है. आंखों के सामने सबकुछ खाक होते देखा है. इस नरसंहार में टारगेट हमारा घर ही था. किस्मत देखिए कि मेरे बोर्ड एक्जाम की वजह से पापा को गांव जाना था पर जा नहीं पाए थे. और जो वहां थे वो बचे नहीं.एक झटके में ही हमारा पूरा परिवार खत्म हो गया. सारा गांव श्मशान बन गया था.उस वक्त गांव में बिजली नहीं थी. शाम ढलते ही लालटेन जल जाती थी. मेरे बाबा (दादा जी) पांच भाई थे इसलिए जाहिर है हमारा कुनबा भी बड़ा ही होगा और है भी. कुल मिलाकर मेरे 23 चाचा और फुआ हैं! खैर मेरे घर से दाहिनी तरफ परीक्षित काका का घर है और बायीं तरफ नंदलाल काका का घर है. हम तीनों घरों की छतें मिली हुई हैं और बचपन में हम एक घर से दूसरे घर उनके छत के सहारे ही चले जाया करते थे.

जब नक्सलियों ने हमला किया तब परीक्षित काका और नंदलाल काका नवरात्री का पाठ कर रहे थे. दो लोगों ने उन्हें उठाया और हाथ पीछे बांध दिए. फिर मेरे दूरा (द्वार) पर वो आए. यहां मेरे सबसे फेवरेट और कट्टर दुश्मन रामनाथ काका की चलती थी. उनकी एक कड़क आवाज और हम बच्चे अपनी मांओं के पल्लू में दुबके पाए जाते. हालांकि, उनका घर तो परीक्षित काका के पास में था पर उनका एक कमरा हमारे दूरा पर बना हुआ था. यहां पर ही नहीं पूरे घर में बस उनकी चलती थी. किसी की हिम्मत नहीं होती की रामनाथ काका की बात को काट दे. नक्सली जब उन्हें उठाने आए तो उन्होंने विरोध किया. पर 8 लोगों के सामने वो अकेले क्या कर लेते.

इसके बाद बारी आई मेरे घर के बायीं तरफ रहने वाले ज्वाला काका की. उनको भी घर से उठाकर ले गए. ज्वाला काका अपने जमाने में इलाके के नामी पहलवान हुआ करते थे. पर नक्सलियों के आगे वो भी बेबस ही हो गए. इस बीच पूरे गांव में भगदड़ मच चुकी थी. लोग इधर-उधर जान बचाने के लिए भागना शुरु हो गए थे. जिसे जहां जगह मिल रही थी वो वहीं घुस जा रहा था. ऐसे ही मेरा चचेरा भाई और कुंदन, छोटू और कुछ बच्चे बगल के घर में घुस गए. नक्सली उनको खोजते हुए पीछे गए और जानवरों के चारे के लिए रखे गए पुआल में आग लगाने लगे. उन्हें आभास हो गया था कि कोई उस पुआल में है. ये सुन कुंदन बाहर आ गया और बाकी भाईयों को अंदर ही रहने के लिए कह गया. उस वक्त पुआल में कुंदन समेत 5 लड़के थे. एक कुंदन के निकल आने से बाकी सभी की जान बच गई. कुंदन उस समय 13 साल का था.

इन सभी को उठाकर नक्सली हमारे गांव के दूसरे छोर पर बनी ठाकुर बाड़ी के पास ले गए. गांव से चुन-चुनकर मर्दों को उठाकर ले जाया गया. औरतों ने जब विरोध किया तो उनको बंदूकों के बट से, लात-घूंसों से मारा. औरतों ने जब उनसे मिन्नत की कि उन्हें भी साथ ले जाएं और मार डालें तो नक्सलियों ने जो जवाब दिया वो अंदर तक हिलाकर रख देता है. ‘अगर तुम लोगों को भी मार दिया तो रोने के लिए कौन रह जाएगा! याद कौन रखेगा कि कैसा मौत दिए हैं, तुम्हारे घर वालों को!’

सभी को ठाकुरबाड़ी के पास जमा किया गया और लाइन में लगाकर मौत का इंतजार करने को कहा गया. एक बंदा चबूतरे पर बैठा था और एक-एक कर आदमियों को उसके गोद में रखा जाता. पहले वो उनका पेट चीर देता फिर उनकी गर्दन रेत देता. उसके बाद जानवरों के जैसे उन्हें एक कोने में तड़पता छोड़ दिया जाता. इतना वीभत्स, इतना भयावह वो मंजर सोच कर रुहें कांप जाती हैं.

अगली सुबह हर जगह हंगामा मच चुका था. चारों तरफ आग की तरह ये खबर फैल चुकी थी. उस समय ना तो इंटरनेट था ना ही फोन की इतनी पहुंच थी. केबल टीवी अभी आया ही था. दूरदर्शन पर हम समाचार देखा करते थे. हमने भी सुबह सात बजे के बुलेटिन में ये खबर सुनी. घर में मातम छा गया. हाहाकार मच गया. हम बच्चे क्या रोते मम्मी, पापा बच्चों की तरह दहाड़ें मार रहे थे. एक साथ चार भाईओं को खोना, इस दर्द को सिर्फ वही समझ सकते थे.

आलम ये हुआ कि इस नरसंहार ने हमारे गांव को पूरी एक पीढ़ी को पीछे ढकेल दिया. पूरा एक जेनरेशन खत्म हुआ. लोगों का डर से गांव जाना बंद हो गया. जो गांव में रहते थे उन्होंने गया, जहानाबाद, पटना जहां जगह मिली वहां डेरा डाल लिया. मेरे पापा जिनका साल में तीन बार गांव जाना तय हुआ करता था, वो भी अगले दस सालों तक डर से गांव नहीं गए. अपनी मिट्टी छूट गई. इस नरसंहार ने पूरी एक पीढ़ी को पीछे ढकेल दिया.

आज मैं गांव की तस्वीर भी भूल चुकी हूं. 20 साल के बाद 2015 में मैं अपने गांव जा पाई. बचपन की वो यादें कुछ लोगों की सियासत के भेंट चढ़ गई. गांव में डोल पत्ता खेलना, धान के बदले बरफ (आइसक्रीम खाना), गेंहूं चुराकर सोनपापड़ी खाना, केवाल की मिट्टी से अपना घर बनाना, घर के सोफे, बर्तन यहां तक की कार का मालिक बन जाना. गुड़िया की शादी के भोज में पूरे गांव को बुलाना. ये सब हमने फिर भी जी लिया पर हमारे बाद के बच्चे अब इन यादों और इस जिंदगी से वंचित रह गए. उन्हें ये सुख कभी नहीं मिलेगा.

17 साल बाद आए इस फैसले ने हमारे कलेजे को ठंडक तो दी पर अंग्रेजी में एक कहावत है ना- Justice delayed is Justice denied. आज मेरे पापा इस दुनिया में नहीं हैं. जिन्हें सबसे ज्यादा खुशी होती. यहां तक की घटना के मुख्य गवाह की भी मौत हो चुकी है. इस फैसले ने और कुछ किया या नहीं पर हमारे जख्मों को फिर से जरूर कुरेद दिया. एक बार फिर मेैं अपने गांव के गलियारों में घूम रही हूं, उसकी त्रासदी को सोच रात भर सो नहीं पाई. ये दर्द हमारे लिए किसी सजा से कम नहीं.

2 COMMENTS

  1. सेनारी से 5 किलोमीटर उत्तर दिशा में गाँव है बंशी वहीं से हूँ घटना के वक्त 7 साल का था कुछ यादें ताजा है ….एक बार मिलने की इच्छा है आपसे

  2. Mai sachai gaon se hu us time mai 12 saal ka tha. M. C. C walo ke dar se koi muh nahi kholta tha. aur dahshat to 2005 tak rhi

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