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आशुतोष की नज़र में न्यूज़ चैनलों के संपादक हैं – ‘बेशर्म गला फाड़ संपादक’

आशुतोष का नेतागिरी वाला ट्वीट
आशुतोष का नेतागिरी वाला ट्वीट
आशुतोष का नेतागिरी वाला ट्वीट

आशुतोष जबतक मीडिया में थे तबतक मीडिया पवित्र गाय थी और उनके जाते ही भ्रष्ट हो गयी।पुराने साथी संपादकों पर उन्हें शर्म आने लगी है।सुन रहे हैं अजीत अंजुम(इंडिया टीवी),सतीश के सिंह(लाइव इंडिया)सुप्रिय प्रसाद(आजतक)……..

आशुतोष के ‘आप’ में जाते ही पवित्र गाय मीडिया भ्रष्ट हो गयी

पत्रकार से नेता बने आशुतोष आजकल मीडिया को ठिकाने पर लगाने में लगे हुए हैं.इसके लिए वे मीडिया के खिलाफ ट्विटर पर ताबड़तोड़ ट्वीट कर जहर उगल रहे हैं.इस अभियान में वे न्यूज़ चैनल के अपने पुराने साथियों को भी बख्श नहीं रहे और उनपर शर्म आ रही है. आशुतोष ट्वीट करते हुए लिखते हैं –
1-फ़र्ज़ी टेप चलाने वाले चैनलो को असली टेप वाली स्टोरी दिखायी नहीं देती। बहुत छोटे लोग संपादक बन गये हैं। शर्म आती है ऐसे संपादकों पर।

2-कल फिर यही बिके हुये संपादक किसी फ़र्ज़ी स्टोरी पर गला फाड़ेंगे।राष्ट्रवाद का सर्टिफ़िकेट बाँटेंगे। अपने आका का इंटरव्यू कर ख़ुश हो लेंगे।

3-और जब कोई असली स्टोरी होगी, आका से जुड़ी स्टोरी होगी तो दुम दबा कर अपने बिलों में छुप जायेंगे ये बेशर्म गला फाड़ संपादक।

4-Why shouting TV editors and anchors are silent on Essar Tapes? Are they sold ? #ModiMumOnEssarLeaks

5-Have just seen best PR interview of Mr Jaitley on a TV channel. Best question was is he sleeping well ?? Wow what a probing question !!

पत्रकारिता करते तो सहारा के पत्रकार आज यूँ अकेले न होते

sahara samay logo

सहारा की एक पूर्व पत्रकार ने रवीश के नाम खुली चिठ्ठी लिखी है और चाहती हैं कि सहारा के पत्रकारों के वेतन-भत्ते को लेकर दूसरे पत्रकार आंदोलन चलाये. लेकिन सवाल ये है कि जब सहारा प्रणाम करते हुए सहाराकर्मी मौज के दिन काट रहे थे तब डूब रहे चैनलों के पत्रकारों के लिए इन्होने कभी आंदोलन किया? VOI,P7,आज़ाद न्यूज़,एस1 समेत न जाने कितने चैनल बंद हुए और वहां के पत्रकार दर-बदर की ठोकरे खाते रहे.तब आपने कौन सा मरहम लगाया.अपनी पीड़ा सबको सबसे ज्यादा लगती है.काश अपने साथी पत्रकारों का आपने साथ दिया होता तो आज यूँ अकेले न होते।आपसे सहानुभूति के बावजूद ये कटु सत्य है।

@FB पुष्कर पुष्प

खुला पत्र लिखने वाले रवीश को पत्रकार निदा रहमानी का खुला पत्र

रवीश कुमार,संपादक,एनडीटीवी इंडिया
रवीश कुमार,संपादक,एनडीटीवी इंडिया

एनडीटीवी के रवीश कुमार की ब्रांडिंग सरोकारी पत्रकार की बनी है और न्यूज़रूम में रहते हुए भी अपने इस ब्रांडिंग को कायम रखने के लिए कभी वे टीवी स्क्रीन को काला करते हैं तो कभी पुलिस अधिकारियों को खुला पत्र लिखते हैं. लेकिन जब मामला अपनी बिरादरी का आता है तो अक्सर चुप्पी मार जाते हैं और यदि लिखते भी हैं तो स्पष्ट न लिखकर उसमें भाषाई कलाबाजी कर जाते हैं.इसी संदर्भ में रवीश कुमार की ही तर्ज पर उनको आईना दिखाते हुए सहारा की पत्रकार निदा रहमान ने फेसबुक पर उनको खुला पत्र लिखा है जिसमें पत्रकार बिरादरी के पत्रकारों के लिए आवाज़ उठाने के लिए कहा गया है. पूरा पत्र :

निदा रहमानी

रवीश कुमार के नाम खुला पत्र…….

आदरणीय रवीश जी

मुझे नहीं मालूम इस पत्र की शुरुआत कहां से करूं, बहुत दिन सोचने के बाद अब रहा नहीं गया इसलिए आपको ये खुला पत्र लिख रही हैं। खुला पत्र इसलिए क्योंकि आपके लिखे खुले पत्र पढ़ने के बाद मुझे यही सही तरीका लगा अपनी बात परेशानी और दर्द बयां करने का। आपको ये पत्र इसिलए भी लिख रही हूं क्योंकि आपसे उम्मीद कि आप दूसरे शोषित, परेशान,तबके की तरह हमारी समस्या के लिए भी आवाज़ उठाएंगे । मथुरा में जवाहर बाग कांड के बाद आपने ने पुलिस अधिकारियों- कर्मचारियों के नाम खुला पत्र लिखा तो उम्मीद जगी कि आप मीडिया संस्थान से जुड़े लोगों पर चुप नही रहेंगे। मैंने अपने तथाकथित पत्रकारिता जीवन के 12 साल एक राष्ट्रवादी संस्था सहारा इंडिया परिवार को दे दिए लेकिन आज मैं वहीं खड़ी हूं जहां से शुरुआत की थी, मैं बल्कि संस्था के सैंकड़ो कर्मचारी मेरे जैसे हालात में हैं । राष्ट्रीय सहारा को इस बरस 25 साल पूरे हुए हैं। लेकिन यहां अपनी ज़िंदगी देने वाले कर्मचारी आज राष्ट्रीय सहारा कैंपस के बाहर अपने बारह महीने का वेतन लेने के लिए धरने पर हैं। आप ही की तरह मुझे भी पत्रकारों और मीडियाकर्मियों की खामोशी कचोटती है जिन्हें अपने ही तरह के लोगों का दर्द दिखाई नहीं दे रहा है। इतना भयंकर सन्नाटा और अंधेरा है कि डर लगता है कि हमने कहां अपना जीवन स्वाहा कर दिया। दूसरे के हक की बात करते करते हम अपने हक के लिए समर्थन नहीं जुटा पा रहे है।

एक हज़ार से ऊपर करे कर्मचारी दो सालों से परेशान हैं, वेतन नहीं मिलने के वजह से भूखे मरने की नौबत आ गई है,साथ काम करने वालों के बच्चों के नाम कट गए, कुछ अपना परिवार गांव छो आए , दर्जनों लोग लाखों रुपए के कर्ज में डूब गए और अब उनका कर्ज खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। कोई हार्ट अटैक से मर गया किसी को लकवा मार गया । किसी ने बेटी की शादी के लिए घर बार बेंच दिया तो कोई अपने बच्चे की फीस नहीं दे पाने की वजह से स्कूल नहीं भेज रहा है। बच्चों की टाफी, खिलौने तो दूर उनका दूध तक बंद करना पड गया है। 12 महीने की वकाया वेतन के इंतजार में लोग समय से पहले बूढे हो गए हैं। प्रबंधन बार बार आश्वाससन देता है अब तो नौबत ये आ गई प्रबंधन कह रहा है काम करना है तो ऐसे ही करो वरना बाहर बैठो। सैंकड़ों कर्मचारी नौकरी छोड़ कर जा चुके हैं और जो हैं वो जून में खुले आसमान के नीचे बैठे हैं।

आपको ये पत्र लिखने का मकसद सिर्फ इतना कि शायद मीडियाकर्मियों , पत्रकारों के कानों पर जूं रेंगे। वैसे उम्मीद किसी से नहीं करनी चाहिए फिर भी आपकों ये खुला पत्र लिख रही हूं क्योंकि आप शायद चुप ना रहें। मुझे नहीं पता कि आपको हमारे साथियों की बदहाली के बारे में पता है या नहीं लेकिन एक कोशिश कर रही हूं आप तक अपनी बात पहुंचाने की । हम दूसरों के खबर बनाते रहे दिखाते रहे लेकिन देखिए ना हमने ज़िंदगी में ये कमाया कि कोई न्यूज़ चैनल हमारी खबर सुपर फीफ्टी या वीएसटी तक में नहीं चला रहा है, अखबारों में हम सिंगल कॉलम खबर तक नहीं हैं। जैसे आपको दो पुलिस अधिकारियों की शहादत पर बाकी पुलिस अधिकारियों की चुप्पी कचोट रही थी वैसे ही मझे भी मीडिया मेंकाम करनेवाले साथियों की खामोंशी काट रही है। क्योंकि जिन्होंने अपनी ज़िंदगी पत्रकारिता के नाम कर दी वो आज गुमनाम अंधेरे में मरने को हैं।

आदरणीय रवीश जी सवाल सिर्फ हमारे मुद्दे पर खामोशी का नहीं है बल्कि तमाम मीडिया संस्थानों में काम करने वाले कर्मचारियों पत्रकारों के शोषण का भी है, दूसरों के हक का झंडा बुलंद करने वाले मीडिया कर्मी को कब कोई न्यूज़ चैनल या अखबार प्रबंधन बाहर का रास्ता दिखा देगा पता ही नहीं चलता है, जीवन में इतना डर तो फिर हम कैसे दूसरों को अधिकार दिलाने का दम भरतेहैं, जो अपने ही साथियों की बदहाली पर चुप है। किसी को फर्क नहीं पड़ रहा है कि हज़ारों कर्मचारी सड़क पर आ गए है। डर इस बात का है कि ये चुप्पी हम सबको एक एक कर निगल रही है। बिहार, उत्तराखंड, यूपी या किसी अन्य प्रदेश में पत्रकार या संवाददाता की हत्या पर तो बवाल मचता है, कुछ बड़े पत्रकार सोशल मीडिया पर भड़ास निकालते हैं, मामला ज्यादा बड़ा हो तो दिल्ली में विरोध प्रदर्शन हो जाता है लेकिन जब तमाम बड़े न्यूज़ चैनल और अखबार बिना किसी वजह के बेड पर्फोर्मेंस का हवाला देकर दर्जनों कर्मचारियों को एक साथ निकाल देते हैं तो ऐसा हंगामा क्यों नहीं होता है। आखिर इस चुप्पी की वजह क्या है,क्या रसूखदार मालिकों के सामने बोलने की हिम्मत आपमें और किसी और बड़े पत्रकार में नहीं है।

मुझे नहीं पता कि मेरा ये खुला पत्र आपके लिए या किसी और के लिए मायने रखता है या नहीं लेकिन हम सब उम्मीद लगाए हैं इस चुप्पी के टूटने की, क्योंकि लोगों ने जिस मीडिया को अपनी ज़िदगी दे दी वही मीडिया उनको अनसुना कर रहा है। हमारा होना ना होना किसी के लिए मायने नहीं रखता है शायद आपके लिए भी ना हो लेकिन जब आप मथुरा वाले मामले पर पुलिस अधिकारियों को उनकी चुप्पी पर खुला पत्र लिखते हैं तो मुझसे भी रहा नहीं गया, मैं एक छोटी सी मीडियाकर्मी जो अपने साथियों के साथ जूझ रही है अपने हक के लिए।

आशा है कि कोई ना कोई ये खुला पत्र आप तक पहुंचा ही देगा और तब शायद आप भी हमारी हिम्मत और हौसला बढ़ाए क्योंकि हम जो लड़ाई लड़ रहे हैं वो कल किसी और की भी हो सकती है।

आपकी लेखनी और पत्रकारिता को नमन करने वाली निदा रहमान

बिहार के फर्जी टॉपरों पर भी भारी पड़ेंगे उत्तराखंड के पत्रकार

बिहार में वहां के कथित टापर और बच्चा सिंह को लेकर हैरान मत होइए।

वेद उनियाल

उत्तराखंड के कई मान्यता प्राप्त पत्रकारों का टेस्ट ले लेंगे तो आप और चौंक जाएंगे। छोटे से देहरादून में करीब दो हजार पत्रकार है। सात सौ से ज्यादा पत्र पत्रिकाए। राष्ट्रीय टीवी चैनलों ने बिहार के टापरों का इंटरव्यू तो ले लिया। लेकिन किसी दिन समय निकाल कर उत्तराखंड के कई मान्यता प्राप्त पत्रकारों के इंटरव्यू ले लीजिए। आप चौंक जाएंगे कि उत्तराखंड का सूचना विभाग जिन माननीय पत्रकारों को तमाम भारी भारी सुविधाएं दिए हुए हैं उनमें कइयों को ये पता नहीं उत्तरकाशी कहां हैं, गौरा देवी कौन थी। लैंसडाउन क्यों प्रसिद्ध है। मसूरी पर्यटन के अलावा किस खनिज के लिए प्रसिद्ध है। शिवालिक पर्वतमाला कहां है। भावर किसे कहते हैं। डा पीताम्बर दत्त बर्तवाल कौन थे। चंद्र कुवर बर्तवाल कौन थे। चंद्र सिंह राही, केशव अनुरागी, बाबू गोस्वामी का संस्कृति में क्या योगदान रहा है। कबोतरी देवी कौन है। बिनसर महादेव कहां हैं। जागेश्वर क्यों प्रसिद्ध है। माधो सिंह मलेथा क्यों प्रसिद्ध है। तीलू और कफ्फू चौहान तथा गबर सिंह जसवंत सिंह का योगदान क्या है। सुमित्रानदन पंत कौन थे। तिलाडी कांड क्या था। श्रीदेव सुमन का बलिदान किसलिए था।

उत्तराखंड का सबसे सयाना कोई महकमा है तो सूचना विभाग है। इसे ठीक कीजिए आधा उत्तराखंड अपने आप ठीक हो जाएगा।
क्या आप यकीन करेंगे कि छोटे से देहरादून में 2000 पत्रकार हैं सात सौ से ज्यादा पत्र पत्रिकाएं। इनमें नब्बे प्रतिशत पत्र पत्रिकाएं आपको कहीं नजर नहीं आएंगी। लेकिन उन्हें मोटे सरकारी विज्ञापन दिए जा रहे हैं। और ऐशो आराम की तमाम सुविधाएं। उत्तराखंड का सूचना विभाग बेशर्मी और हेवानियत के साथ इन कथित मान्यता प्राप्तों के साथ उत्तराखंड को रौंद रहा है। इसे जर्जर बना रहा है। खत्म कर दिया पूरे राज्य को। नष्ट कर दिया पूरे राज्य को।

कई मान्यता प्राप्त पत्रकार ऐसे है जो अपने गांव पर आधा पेज की स्टोरी नहीं लिख सकते। पूछ लीजिए वो उत्तराखंड के तेरह जिलों का नाम नहीं बता सकेंगे। बिल्कुल बिहार के टापर और बच्चा सिंह वाली हालत है। लेकिन सूचना विभाग उनके लिए बिछा है। सूचना विभाग और मुख्यमंत्री को सूचना की सलाह देने वाले चंद सलाहकार सबने रौंलंपपौं मचा रखी है। कोई देखने वाला नहीं कोई सुनने वाला है। ऐसे ऐसे किस्से हैं पत्रकरिता और सूचना विभाग के कि आप हैरत में पड जाएंगे।

हम वर्तमान मुख्यमंत्री श्री हरीश रावतजी से निवेदन करते हैं कि कफली झंगोरा फाणु खाने की फिलहाल हमारी इच्छा नहीं। सूचना विभाग को ठीक कीजिए। अगर ऐसा कर पाए यह आपकी बहुत बड़ी सेवा होगी। इसके लिए ही आप याद किए जाएंगे। अब तक जो हुआ सो हुआ। आगे ठीक कीजिए। बहुत लुटा उत्तराखड।

सूचना सलाहकारों की टीम को दुरस्त कीजिए कि वह राज्य के खर्चे पर कराई जाने वाली अनाप शनाप मेहमानवाजी से बचे। बहुत चीजें अपने आप ढर्रे पर आ जाएंगी। क्या आप तैयार हैं। सूचना विभाग सयाना है तो स्वास्थ्य विभाग शातिर।

– पता नहीं ये सब मिलकर मुझे जीने भी देंगे या नहीं । पर जय उत्तराखंड जय भारत।

@fb

मीडिया का मुंह काला हुआ, तो सफेद किसका बचेगा?

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की व्यक्ति के रूप में मीडिया सदैव प्रशंसा करता रहा है, उनकी सरकार द्वारा संचालित की जा रही विकास योजनाओं और कार्यक्रमों को प्रमुखता से जनता के बीच पहुंचाता रहा है। समाजवादी पेंशन योजना, लोहिया ग्रामीण आवास योजना, डेयरी योजना, कृषक दुर्घटना बीमा योजना, एम्बुलेंस सर्विस, स्वास्थ्य/जननी सुरक्षा योजना, निराश्रित महिला, किसान, वृद्धावस्था और विकलांग पेंशन, महिला हेल्पलाइन, कृषि विभाग से संबंधित तमाम योजनाओं के साथ कौशल विकास मिशन और मुफ्त चिकित्सा योजनाओं को मीडिया सफल बताता रहा है, इसके अलावा आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे, मेट्रो रेल परियोजना, चकगंजरिया फार्म को सीजी सिटी के रूप में विकसित करने पर मीडिया द्वारा उनकी विशेष सराहना की जाती रही है।

उत्तर प्रदेश में बिगड़ी कानून व्यवस्था और भ्रष्टाचार लगातार प्रमुख मुददा बने हुए हैं, लेकिन मीडिया लगातार अखिलेश यादव को निर्दोष साबित करता रहा है, इस सबके लिए मीडिया समाजवादी पार्टी की परंपरागत राजनीति को जिम्मेदार बताता रहा है। मीडिया परोक्ष, या अपरोक्ष रूप से संकेत करता रहा है कि प्रदेश में जो भी अच्छा हो रहा है, उसके पीछे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की सोच है और जो भी गलत हो रहा है, उसके पीछे सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव और शिवपाल सिंह यादव की दखल है। कुल मिला कर मीडिया ने अखिलेश यादव की एक आदर्श युवा नेता के रूप में छवि स्थापित की है, जिसे प्रदेश के ही नहीं, बल्कि प्रदेश के बाहर के लोग भी स्वीकार करते हैं।

मीडिया अखिलेश यादव के व्यवहार और भाषणों की खुल कर प्रशंसा करता रहा है। अखिलेश यादव विपक्षी दलों और विरोधी नेताओं पर कभी अभद्र टिप्पणी नहीं करते, इस पर मीडिया अखिलेश यादव की विशेष रूप से सराहना करता रहा है, लेकिन अखिलेश यादव की सोच मीडिया के प्रति नकारात्मक नजर आती है, क्योंकि हमेशा शालीन रहने वाले अखिलेश यादव सार्वजनिक रूप से मीडियाकर्मियों को अपमानित कर रहे हैं। सैफई महोत्सव पर हुए बवाल को लेकर अखिलेश यादव ने प्रेस कांफ्रेंस कर जनवरी 2014 में मीडिया पर हमला बोला था। उन्होंने महोत्सव की आलोचना करने वाले एक अखबार और एक अंग्रेजी चैनल के रिपोर्टर को लताड़ा था, जिससे अधिकांश मीडियाकर्मी स्तब्ध रह गये थे, पर उस घटना को मीडियाकर्मी यह सोच कर भूल गये कि अखिलेश यादव में अभी गंभीरता और धैर्य की कमी है, जो उम्र और अनुभव के साथ बढ़ जायेगी। उत्तर प्रदेश के हालात उस समय तो भयावह ही थे। दंगा पीड़ित शरणार्थी शिविरों में ठहरे हुए थे, ऐसे में सत्तासीन परिवार द्वारा सरकार की मदद से महोत्सव आयोजित कराने पर सवाल उठना स्वाभाविक ही था।

हालात आज भी कोई बहुत अच्छे नहीं हैं, लेकिन मीडिया अखिलेश यादव को फिर भी दोषी नहीं मान रहा। अन्य राज्यों की तुलना में यहाँ पेट्रोल-डीजल और अधिक महंगा बिक रहा है। बिजली, प्राथमिक शिक्षा और प्राथमिक चिकित्सा तक के लिए आम जनता तरस रही है। राज्य पर बैंकों का कर्ज बकाया है, ऐसे में राजस्व बढ़ाने की जगह सरकार फिल्मों को कर मुक्त करने का रिकॉर्ड कायम कर चुकी है। राज्य किसी भी क्षेत्र में संत्रप्त नहीं हुआ है। हर क्षेत्र में पात्र मुंह फैलाये सरकार की ओर निहार रहे हैं, लेकिन मीडिया सवाल नहीं उठा रहा, जबकि मीडिया को अखिलेश यादव की कार्यप्रणाली पर प्रश्न चिन्ह लगा देना चाहिए था, पर मीडिया व्यक्तिगत रूप से अखिलेश यादव के विरुद्ध लिखने से बचता रहा है, ऐसे में किसी बड़ी घटना पर मुख्यमंत्री होने के कारण मीडिया कभी अखिलेश यादव से सवाल कर दे और जवाब मांग ले, तो शालीनता की मिसाल कायम करने वाले अखिलेश यादव को यह बिल्कुल नहीं बोलना चाहिए कि तुम्हारा मुंह काला हो। आवेश में वे यह भूल गये होंगे कि सवाल मीडिया ने नहीं उठाया, बल्कि सांसद हुकुम सिंह ने उठाया है और अगर, सांसद का सवाल तथ्यहीन था, तो उस पर जाँच क्यों कराई?, साथ ही अखिलेश यादव को अब यह भी बता देना चाहिए कि मीडिया का मुंह काला हो गया, तो वो सिद्धांतवादी और आदर्श कौन लोग हैं, जिनका मुंह सफेद रह जायेगा?

सवाल यह भी उठता है कि अखिलेश यादव किसी संस्थान को विपरीत विचारधारा का मान चुके हैं और उसे पत्रकारीय संस्कारों से हीन कह चुके हैं, तो उसे बाद में सही क्यों मानने लगते हैं। विपरीत खबरों को लेकर वे जिस संस्थान की आलोचना कर चुके हैं, उसी संस्थान की अन्य खबरों का उदाहरण देकर वे सरकार की प्रशंसा भी करते रहे हैं, जिससे सिद्ध होता है कि उन्हें आलोचना और सवाल पसंद नहीं है, उन्हें सिर्फ प्रशंसा ही भाती है, ऐसी सोच को राजनीति में बहुत अच्छा नहीं कहा जाता।

नेता हो, या अफसर, मीडिया का स्वभाव नायक बनाने का होता है। अगर, कोई नेता, या अफसर बेहतर कार्य कर रहा है, तो रिपोर्टर कई बार उसकी प्रशंसा करने में अपनी छवि तक ही परवाह नहीं करता। रिपोर्टर सीमा से बाहर निकल कर आदर्श नेता और आदर्श अफसर को नायक बनाता है, इस पर उसे कई बार कठघड़े में खड़ा कर दिया जाता है। लखनऊ की एसएसपी मंजिल सैनी समाजवादी पार्टी की विरोधी नहीं हैं, जो मीडिया उनको लेडी सिंघम कहने लगा। वे आम जनता के हित में काम करती चली गईं और मीडिया लिखता चला गया। अभी तीन दिन पहले ही फोन पर एक महिला को बस में आधी रात में तत्काल राहत दिलाने वाले रामपुर के एसपी सुनील त्यागी को मीडिया ने नायक बना दिया। 23 मई को बरेली दौरे पर एंबुलेंस को पहले रास्ता देने पर मीडिया ने अखिलेश यादव की खुल कर प्रशंसा की थी, यह सब दिनचर्या का हिस्सा होना चाहिए। कभी तर्क से, तो कभी व्यंग्य से उन्हें हालात को अपने पक्ष में करने की कला सीखनी चाहिए। मीडिया पर हमला करने से अखिलेश यादव की शालीन व्यक्ति के रूप में स्थापित छवि स्वयं ही तार-तार हो रही है, जिस पर अखिलेश यादव को संयम का लेप शीघ्र चढ़ा लेना चाहिए, क्योंकि उन्हें राजनीति में बहुत लंबी यात्रा तय करनी है, जिसमें ऐसी घटनायें अवरोध का बड़ा कारण बन सकती हैं। समाजवादी आसमान पर उभरते हुए वे इकलौते सितारे हैं, उनके आसपास भी कोई नहीं है। समाजवादी नेता के रूप में युवा नेतृत्व दूर तक दिखाई नहीं दे रहा, ऐसे में उनका संयम खो देना बड़ी घटना है। धैर्य और गंभीरता की पटरी पर संयम के इंजन के सहारे उन्हें समाजवादी विचारधारा को देश भर में स्थापित करना है, जो आसान लक्ष्य नहीं है।

(बी.पी. गौतम,स्वतंत्र पत्रकार)

b p gautam journalist
बी.पी.गौतम

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