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हमारा कश्मीर, तुम्हारा बलूचिस्तान

संजय द्विवेदी

संजय  द्विवेदी
संजय द्विवेदी

देर से ही सही भारत की सरकार ने एक ऐसे कड़वे सच पर हाथ रख दिया है जिससे पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान को मिर्ची लगनी ही थी। दूसरों के मामले में दखल देने और आतंकवाद को निर्यात करने की आदतन बीमारियां कैसे किसी देश को खुद की आग में जला डालती हैं, पाकिस्तान इसका उदाहरण है। बदले की आग में जलता पाकिस्तान कई लड़ाईयां हारकर भारत के खिलाफ एक छद्म युद्ध लड़ रहा है और कश्मीर के बहाने उसे जिलाए हुए है। पड़ोसी को छकाए-पकाए और आतंकित रखने की कोशिशों में उसने आतंकवाद को जिस तरह पाला-पोसा और राज्याश्रय दिया, आज वही लोग उसके लिए भस्मासुर बन गए हैं।

दुनिया के देशों के बीच पाकिस्तानी वीजा एक लांछित और संदिग्ध वस्तु है। वहां के नागरिक जीवन में जिस तरह का भय और असुरक्षा व्याप्त है, उससे पाकिस्तान के जनजीवन के हालत का पता चलता है। सही मायने में वह अपनी ही लगाई आग में सुलगता हुआ देश है। जिसका खुद की ही कोई मुकाम और लक्ष्य नहीं है, वह भारत की तबाही में ही अपनी खुशी खोज रहा है। बावजूद इसके भारतीय उपमहाद्वीप के देश कहां से कहां जा पहुंचे हैं पर पाकिस्तान नीचे ही जा रहा है। अमरीकी और चीनी मदद और इमदाद पर वहां का सत्ता प्रतिष्ठान जिंदा है एवं लोग परेशान हाल हैं। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस समय बलूचिस्तान, पीओके तथा गिलगित के सवाल उठाए हैं, यह वक्त ही इसके लिए सही समय है। यह समय पाकिस्तान को आईना दिखाने का भी है और कश्मीरी भाईयों को यह बताने का भी है कि पाकिस्तान के साथ होकर उनका हाल क्या हो सकता है। यहां सवाल नीयत का है। विश्व जानता है कि भारत ने कश्मीर की प्रगति और विकास के लिए क्या कुछ नहीं किया। आप पीओके से भारत के कश्मीर की तुलना करके प्रसन्न हो सकते हैं कि यहां पर भारत ने अपना सारा कुछ दांव पर लगाकर विकास के हर काम किए हैं।

कश्मीर में लगातार बंद, हिंसा और आतंक की वजह से विकास की गति धीमी होने के बावजूद भी भारत सरकार ने शिक्षा, स्वास्थ्य, संचार, आवागमन और व्यापार हर नजरिए से कश्मीर को ताकत देन की कोशिशें की हैं। कश्मीर की वादियों में आतंक के बाद भी वहां विकास की गतिविधियां निरंतर हैं। अराजकता के बाद भी इरादे चट्टानी हैं। भारत की संसद ने हर बार उसे अपना अभिन्न अंग माना और नागरिकों को हो रहे कष्टों पर दुख जताया। यह नागरिकों को मिले दर्द से उपजी पीड़ा ही थी कि कश्मीरी नागरिकों को पैलेट गन से लगी चोटों पर संसद से लेकर न्यायपालिका तक चिंतित नजर आई। इस संवेदना को क्या बलूचिस्तान और पीओके में रह रहे लोग महसूस कर सकते हैं? क्या पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान और पाक सेना के द्वारा किए जा रहे अत्याचारों से दुनिया अनभिज्ञ है? बलूच नेताओं की वाणी से जो दर्द फूट रहा है, वह वहां के आवाम का दर्द है, उनकी पीड़ा है जो वे भोग रहे हैं। पाकिस्तान के अत्याचारों से कराहते ये इलाके उनकी सेना के बूटों से निकली हैवानियत की कहानी बयान करते हैं। बलूचिस्तान के भूमि पुत्र अपनी ही जमीन पर किस तरह लांछित हैं, यह एक काला अध्याय है। जबकि भारत का कश्मीर एक लोकतांत्रिक जमीन का हिस्सा है। भारत का दिल है, भारत का मुकुट है। हमारे कश्मीर में पाक प्रेरित आतंकियों ने बर्बर कार्रवाई कर कश्मीरी पंडितों पर भीषण अत्याचार किए, उन्हें कश्मीर घाटी छोड़ने के लिए विवश कर दिया, किंतु फिर भी हर हिंदुस्तानी कश्मीरी की माटी और वहां के लोगों से उतनी ही मुहब्बत करता है जितनी पहले करता था।

हर भारतीय को पता है कश्मीर में जो कुछ चल रहा है वह आम कश्मीरी हिंदुस्तानी का स्वभाव नहीं है। उसके नौजवानों को बहला-फुसला कर जेहाद के बहाने जन्नत के ख्वाब दिखाए गए हैं। उन्हें बताया गया है कि पाकिस्तान के साथ जाकर वे एक नई दुनिया में रहेंगें जहां सुख ही होगा, विकास होगा और वे एक नयी जमीन तोड़ सकेंगे। पाकिस्तान प्रेरित आतंकी कभी धन से कभी, आतंकित कर कश्मीरियों का इस्तेमाल कर उनकी जिंदगी को जहन्नुम बना रहे हैं। जबकि उनके द्वारा कब्जा किए गए कश्मीर की हालत लोगों से छिपी नहीं है। बलूचियों का जिस तरह पाकिस्तान ने भरोसा तोड़ा और उनके मान-सम्मान और जीवन जीने के हक भी छीन लिए, वह किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में भारत में रहकर पाकिस्तान का सपना देखने वालों की आंखें खुल जानी चाहिए, क्योंकि भारत में होना एक लोकतंत्र में होना है। जहां कोई भी नागरिक- ताकतवर से ताकतवर व्यक्ति, पुलिस या सेना के खिलाफ अपनी बात कर सकता है। उचित मंचों पर शिकायत भी कर सकता है। लेकिन पाकिस्तान में होना सेना और आतंकियों के द्वारा पोषित ऐसे खतरनाक लोगों के बीच रहना है जहां किसी की जान सलामत नहीं है। जो देश अपने नागरिकों में भी भेद रखता है, उनके ऊपर भी दमन चक्र चलाए रखता है। पाकिस्तान की जमीन इन्हीं पापों से लाल है और वहां असहमति के लिए कोई जगह नहीं है। भारत और पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान के चरित्र का आकलन और विश्लेषण करने वाले जानते हैं कि भारत ने खुद को पिछले सत्तर सालों में एक लोकतांत्रिक चरित्र के साथ विकसित किया है। अपनी लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत और स्थिर किया है। जबकि पाकिस्तान का लोकतंत्र आज भी सेना के बूटों तले कभी भी रौंदा जा सकता है। वहां अल्पसंख्यकों के अधिकारों का क्या हाल है? इतना ही नहीं वहां के तमाम मुसलमान आज किस हाल में हैं। हत्याएं, आतंक और खून वहां का दैनिक चरित्र है।

पूरी दुनिया के लिए खतरा बन चुके पाकिस्तान की सच्चाईयां सामने लाना जरूरी है। यह बताना जरूरी है कि कैसे सेना, मुल्ला और आतंकवादी मिलकर एक देश और वहां के आवाम को बंधक बना चुके हैं। कैसे वहां पर आतंकवाद को राज्याश्रय मिला हुआ है और सरकारें उनसे कांप रही हैं। पाकिस्तान का कंधा अपने मासूम बच्चों को कंधा देते हुए भी नहीं कांपा। वह आतंकवाद के खिलाफ बड़ी-बड़ी बातें करता है, पर सच यह है कि ओसामा बिन लादेन को अमरीका ने पाकिस्तान की जमीन पर ही पाया। आज भी ओसामा की मानसिकता लिए अनेक आतंकी और अपराधी वहां खुले आम घूमकर दहशतगर्दों की भर्ती करते हुए पूरी दुनिया में आतंक का निर्यात कर रहे हैं। ऐसे खतरनाक देश का टूटकर बिखर जाना ही विश्व मानवता के हित में है।

( लेखक राजनीतिक विश्वेषक है)

राजस्थानी भाषा की मान्यता हेतु सक्रिय प्रयासों के लिए कैबिनेट मंत्री का सम्मान

arjun ram meghwalजयपुर, 21 अगस्त 2016। राजस्थानी भाषा मान्यता समिति एवं पिंकसिटी प्रेस क्लब, जयपुर के संयुक्त तत्वाधान में पिंकसिटी प्रेस क्लब के सभागार में केन्द्रीय वित्त एवं कारर्पोरेट मामलों के राज्य मंत्री श्री अर्जुन राम मेघवाल का राजस्थानी भाषा की मान्यता हेतु किए जा रहे सक्रिय प्रयासों के लिए सार्वजनिक अभिनन्दन समारोह किया गया। श्री मेघवाल को पिंकसिटी प्र्रेस क्लब के अध्यक्ष श्री वीरेन्द्र सिंह राठौड ने माल्यार्पण कर एवं समाजसेवी जयसिंह सेठिया ने शाॅल ओढाकर तथा राजस्थानी भाषा मान्यता समिति के अध्यक्ष के.सी. मालू एवं सलाहकार डाॅ. अमरसिंह राठौड ने अभिनन्दन पत्र भेेंट कर सम्मानित किया।

अभिनन्दन समारोह में राजस्थान के सभी जिलों से राजस्थानी भासा मान्यता समिति के कार्यकत्र्ताओं सहित उघोगपति कमल चन्द सुराणा, साहित्यकार नन्द भारद्वाज, राजस्थान चैम्बर आफ कामर्स के अध्यक्ष के.एल. जैन, फिल्म संगीतकार दिलीप सेन , गायिका सीमा मिश्रा, साहित्य कला संस्थान के हनुमान सहाय शर्मा सहित भाषा, संस्कृति, कला, एवं सामाजिक क्षेत्रों की 150 से अधिक संस्थाओं द्वारा मेघवाल को माला पहनाकर एवं पुष्प गुच्छ भेंट कर स्वागत किया गया। इस अवसर पर एडवोकेट प्रज्ञा सेठिया ने भी युवा पीढी में राजस्थानी के प्रचार-प्रसार की आवष्यकता पर बल देते हुए युवा पीढी से इस दिषा में पहल करने का आग्रह किया।

समारोह को सम्बोधित करते हुए श्री मेघवाल ने राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता दिलाने की श्रृंखला में किए जा रहे प्रयासों की जानकारी प्रदान करते हुए आगामी सितम्बर माह में आवष्यक कार्यवाही कर नवम्बर माह में संविधान की आठवी अनूसूची में शामिल कराने का भरोसा दिलाया। ज्ञातव्य है कि श्री मेघवाल राजस्थानी, भोजपुरी एवं भोटी भाषाओं की मान्यता हेतु बनाये गए संयुक्त साझा मोर्चा के अध्यक्ष भी है।

(डाॅ. अमरसिंह राठौड़)
सलाहकार,
राजस्थानी भाषा मान्यता समिति

प्रेस विज्ञप्ति

टेलीविजन के इस पवित्र दृश्य को अपने पेशे में कहां देख पाएंगे ?

रियो ओलंपिक में फाइनल मैच के बाद सिधु और कैरोलीना मरीन
रियो ओलंपिक में फाइनल मैच के बाद सिधु और कैरोलीना मरीन

रियो ओलंपिक में फाइनल मैच के बाद सिधु और कैरोलीना मरीन
रियो ओलंपिक में फाइनल मैच के बाद सिधु और कैरोलीना मरीन
ये कोई मास्टरी की नौकरी के लिए इंटरव्यू और परिणाम थोड़े ही न था कि सिन्धु सेलेक्ट हुई प्रतिभागी कैरोलीना मरीन का नाम घृणा से लेकर कहती- सब सेटिंग है, सब जुगाड़ है. भाई-भतीजावाद है, यूपी-बिहार कार्ड है.
वो दोनों दुनिया के सामने एक खुले मैंदान की जाबांज खिलाड़ी है. वो जानती है कि जीत-हार के बीच दोनों के बीच जो कॉमन चीज है- खून को पसीने के रंग में बदल देने की तरलता. वो जानती हैं कि दोनों समान रूप से यहां तक पहुंचने के लिए अपनी हड्डियां गलाती आई हैं. दोनों ने न जाने कितनी हजार रातें और कुंहासे से भरी सुबह इसके लिए झोंक दिया है.

…और यही कॉमन चीजें टेलीविजन स्क्रीन पर एक बेहद ही पवित्र दृश्य पैदा करती हैं. मरीन जीत के बावजूद जमीन पर लेट जाती हैं. भावुकता के इस झण में बेहद तरल हो जाती हैं और मैच हार चुकी सिन्धु उसे बेहद प्यार से उठाती है, सहारा देती है. हॉलीवुड के किसी भी सिनेमा से ज्यादा प्रभावी रोमांटिक दृश्य. हिन्दी सिनेमा के किसी भी मेलोड्रामा से कहीं ज्यादा असरदार नजारा.

इस दृश्य में कहीं भारत, कहीं स्पेन नहीं है. कहीं कोच, कहीं घर-नाते-रिश्तेदार नहीं है. कोई हाजीपुर-गाजीपुर, बलिया-बनारस कनेक्शन नहीं है. कहीं भाषा, कहीं इगो नहीं है. है तो बस दो मेहनतकश खिलाड़ियों के बीच की तरलता, वो संवेदनशीलता जिन्हें इनदोनों ने कितनी सख्ती से खेल के दौरान रोके होंगे. शायद उस वक्त पैदा भी नहीं हुए होंगे.

सिन्धु-मेरीन एक-दूसरे को हग करते हैं. ये हार-जीत से कहीं ज्यादा उस मेहनत का सम्मान है जिसके बारे में दोनों भली-भांति परिचित हैं. ये कोई इंटरव्यू से लौटी हुई कैंडिडेट तो नहीं थी जिसे इंटरव्यू के पांच दिन पहले से पता था कि किसका चयन होना है. बावजूद इसके वो चली गई क्योंकि जाकर वो बेशर्म नजारे की रेगुलर दर्शक बनी रह सके.

हम कहां कर पाते हैं एक-दूसरे का इस तरह सम्मान. हम कहां यकीन कर पाते हैं कि जिसका चयन हुआ है उसने हाड़-तोड़ मेहनत की होगी. अपनी कई रातें खराब की होंगी. एक-एक फुटनोट के लिए घंटों माथापच्ची की होगी. चयनित कैंडिडेट के लिए उसका गाइड देवता है, तारणहार है लेकिन दो कैंडिटेट के बीच कभी वो पवित्रता आ सकती है जो आज हमने एक स्पोर्टस चैनल पर देखी ? किसी भी धार्मिक चैनल से कहीं ज्यादा पवित्र दृश्य, किसी भी रोमांटिक फिल्म से ज्यादा भीतर तक भिगो देनेवाले विजुअल्स. किसी एक के आका ने हममे से कितनों के मन की पवित्रता को छीन लिया है. हम मरकर भी सिन्धु-मरीन नहीं हो सकते. हम बदनसीब पारदर्शिता के बीच की इस पवित्रता से कभी नहीं गुजर सकते.

@fb

मीडिया बदनाम हुई ‘दौलत तेरे लिये’

मफतलाल अग्रवाल

@ Mafatlalmathura@gmail.com

मफतलाल अग्रवाल
मफतलाल अग्रवाल
देश के चौथे स्तम्भ के रूप में स्थापित मीडिया की स्वतन्त्रता पर लगातार हमले बढ़ने की घटनायें आये दिन सामने आ रही हैं। जिसमें कहीं पत्रकारों की हत्यायें की जा रही हैं तो कहीं उन्हें जेल भेजा जा रहा है। केन्द्र में भाजपा की सरकार हो या फिर दिल्ली में केजरीवाल अथवा यूपी में सपा की सरकार हो या फिर विपक्ष में बसपा सुप्रीमो मायावती, प्रशासनिक अफसर, पुलिस से लेकर माफिया तक हर कोई मीडिया पर हमला करने में जुटा हुआ है। हालत यह हो गयी है कि अब सोशल मीडिया पर जनता भी पत्रकारों को गाली देने में किसी से पीछे नजर नहीं आ रही है। इस हमले के लिये क्या एक तरफा वही लोग जिम्मेदार हैं जो मीडिया पर हमला बोल रहे हैं या फिर स्वंय मीडिया भी इसके लिये जिम्मेदार है? पुराने पत्रकार मानते हैं कि इसके लिये सर्वाधिक 60 प्रतिशत मीडिया के लोग ही जिम्मेदार हैं जिन्होंने अधिक धन कमाने की चाहत में मीडिया की पूरी साख ही सट्टे की भांति दाव पर लगा दी है। जो धन के बदले (विज्ञापन, लिफाफे के नाम पर) मदारी के बंदर की तरह नाचने लगते हैं।

भाजपा नेता दयाशंकर द्वारा बसपा सुप्रीमो मायावती की तुलना दौलत की खातिर ‘‘वैश्या’’ से किये जाने पर जेल जाना पड़ा तो वहीं पूर्व जनरल एवं केन्द्रीय मंत्री वी.के. सिंह द्वारा पत्रकारों की तुलना ‘‘वैश्याओं’’ से किये जाने पर उन्हें ना तो जेल जाना पड़ा और न ही अपने पद से त्याग पत्र देना पड़ा। हां उन्हें माफी मांगकर मीडिया से पीछा छुड़ाना पड़ा। लेकिन जिस मीडिया को ‘‘वैश्या’’ कहा गया वह मीडिया भाजपा नेता को जेल भिजवाने में जरूर सफल रहा जबकि दयाशंकर ने माया से अपने शब्दों के लिये माफी भी मांग ली थी। लेकिन ना तो माया ने और न ही मीडिया ने उन्हें माफ किया। बात महिला और दलित के सम्मान की हो सकती है तो मीडिया के सम्मान की क्यों नहीं। पत्रकारों के सम्मान की बात करने वाले पत्रकारों का ही सम्मान राजनेताओं के यहां गिरवी रखा हो तो फिर वह किस मुंह से किसके सम्मान और अपमान का मुद्दा क्यों उठायेंगें।
आज मीडिया के लोग ही पत्रकारों को दलाल, भाड़ मीडिया, चोर-उचक्के बता रहे हैं तो दूसरों से सम्मान की क्या उम्मीद की जा सकती है। लखनऊ के वरिष्ट पत्रकार एवं ‘दृष्टांत’ पत्रिका के संपादक अनूप गुप्ता ने एक चर्चा के दौरान कहा कि आज वरिष्ट पत्रकार दलाली की खातिर राजनेता, अफसरों, माफियाओं के तलबे चाट रहे हैं वहीं बड़े-बड़े मीडिया संस्थान भी सरकारों एवं उद्योगपतियों, माफियाओं से अनैतिक लाभ अर्जित कर रहे हैं। जिनके विरूद्ध वह लड़ाई लड़ने जा रहे हैं। वह कहते हैं कि मीडिया के नकाब में छिपे कथित पत्रकारों ने करोड़ों-अरबों की अवैध सम्पत्ति अर्जित कर ली है। जिसके कारण आम पत्रकारों को गाली खाने पर मजबूर होना पड़ रहा है। श्री गुप्ता के मुताबिक 15 प्रतिशत मात्र भ्रष्ट पत्रकारों ने पूरी मीडिया को बदनाम करके रख दिया है। और अच्छे पत्रकारों के लिये रोजी-रोटी की समस्या उत्पन्न कर दी है।

मीडिया में व्याप्त भ्रष्टाचार का एक मामला मथुरा में चर्चित हुआ जिसमें एक एमबी, की छात्रा ने उत्तरप्रदेश के चर्चित पत्रकार संगठन उपजा के प्रदेश उपाध्यक्ष कमलकांत उपमन्यु पर यौन उत्पीड़न की शिकायत एसएसपी मंजिल सैनी (वर्तमान लखनऊ में तैनात) से 3 दिसम्बर 2014 को की गई। जिसकी प्रति मीडिया को दी गई। लेकिन किसी भी पत्र एवं स्थानीय इलैक्ट्रोनिक मीडिया में पीड़िता की आवाज को जगह नहीं दी गई। बल्कि कई प्रमुख नेता, पत्रकार, वकील आरोपी के पक्ष में खड़े हो गये। लेकिन पीड़िता के साथ कुछ सामाजिक लोगों के खड़े होने से दोषी पत्रकार के खिलाफ 6 दिसम्बर को मामला दर्ज हो सका। लेकिन इसके बावजूद भी 7 दिसम्बर 2014 के किसी भी समाचार पत्र में घटना का उल्लेख नहीं किया गया। जब उक्त मामला सोशल मीडिया ने उछाला तब कुछ पत्रकारों ने खानापूरी की। लेकिन एक राष्ट्रीय चैनल ने घटना को प्रमुखता से दिखाया। उक्त घटना पर पर्दा डालने वाली मीडिया ने 7 फरवरी 2016 को छोटे-बड़े लगभग सभी समाचार पत्रों ने प्रमुखता से पीड़िता के करीब 15 माह पुराने शपथ पत्र को आधार बनाकर कमलकांत के आरोप मुक्त की खबर प्रकाशित कर दी। जबकि मथुरा न्यायालय द्वारा आरोपी पक्ष के विरूद्ध आदेश पारित किया गया था तथा मामला उच्च न्यायालय इलाहाबाद में भी लम्बित था। खबर के साथ बलात्कार करने के बदले पत्रकारों और सम्पादकों ने उसके बदले क्या कीमत वसूली ये तो वही जानें लेकिन इसकी शिकायत अदालत के आदेश के साथ एक सामाजिक कार्यकर्ता द्वारा मीडिया संस्थानों के उच्च अधिकारियों से की गई। लेकिन इसके बावजूद भी आरोपी की पकड़ मीडिया ढ़ीली नहीं हो सकी। इस संबंध में कुछ पत्रकारों ने खुलासा किया कि आरोपी पत्रकार कुछ संस्थानों से विज्ञापन तो दिलाता ही है प्रत्येक वर्ष दीपावली पर आम पत्रकारों को चांदी का सिक्का और मिठाई का डिब्बा तथा वरिष्ट पत्रकारों-सम्पादकों को मंहगे उपहार, लिफाफा आदि भी दक्षिणा में भेंट देता है। इसके अलावा चुनाव के मौसम में भी प्रत्याशियों से दक्षिणा दिलाता है। हालांकि कई पत्रकार ऐसे भी हैं जो इस आरोपी पत्रकार दूरी बनाये हुए हैं।

उक्त मामले में हालांकि पिछले दिनों हाईकोर्ट द्वारा की गई सीबीआई जांच की टिप्पणी को प्रमुख समाचार पत्रों द्वारा प्रमुखता से छापा गया हो लेकिन इसके बावजूद अभी भी बड़ी संख्या में पत्रकार, सम्पादक, राजनेता, अधिकारी तथा-कथित सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो आज भी आरोपी का साथ छोड़ने को तैयार नहीं है। यह एकमात्र ऐसा मामला नहीं है बल्कि मीडिया में प्रतिदिन माफियाओं, राजनेताओं, प्रशासनिक अफसरों, बिल्डरों के हितों की खातिर समझौता कर मीडिया की स्वतंत्रता पर प्रश्न चिन्ह लगया जाता है। यही कारण है अब पत्रकार भी कहने लगे हैं ‘‘मीडिया बदनाम हुई, दौलत तेरे लिये।’’

(लेखक ‘‘विषबाण’’ मीडिया ग्रुप के सम्पादक एवं स्वतंत्रत्र पत्रकार तथा सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

पटना के युवा कार्टूनिस्ट गौरव ने बनायी अपनी पहली फिल्म

विवेकानंद सिंह, कॉपी एडिटर, प्रभात खबर, पटना

आदमी जन्म लेता है. मां की गोद से लुढ़क कर चलना सीखता है, फिसलते-फिसलते जवान हो जाता है, संभलते-संभलते बूढ़ा और फिर लुढ़क कर इस दुनिया को अलविदा कह देता है. लेकिन हमारे बीच कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो इस नैसर्गिक जीवन-चक्र को बीच में ही तोड़ने का आत्मघाती निर्णय ले बैठते हैं. सही मायने में किसी भी रिश्ते से कहीं महत्वपूर्ण है, आपका होना. महानगरीय जीवन, तो ऐसे ही एक त्रासदी है. टॉल्सटॉय ने ठीक ही कहा है “शहर में कोई खुद को मृत समझ कर बहुत दिनों तक जीवित रह सकता है.” अचानक हमारे बीच से किसी जिंदादिल इनसान का यूं ही साथ छोड़ कर चले जाना हमें स्तब्ध तो करता ही है, साथ ही सोचने पर मजबूर भी कर देता है.

पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करते हुए पटना के युवा कार्टूनिस्ट गौरव ने अपनी पहली शॉर्ट फिल्म बनायी है, जिसका टाइटल है ‘काश’. लगभग 11 मिनट की इस फिल्म में एक ऐसे लड़के की कहानी है, जो गांव से शहर पढ़ने आता है. यहां की चकाचौंध और प्यार की जाल में फंस कर वह अपने जीवन की कहानी को पूर्णविराम देने का फैसला कर लेता है. अपने माता-पिता के नाम अपनी अंतिम चिट्ठी लिखते वक्त उसके जेहन में क्या-क्या ख्याल आते हैं और आखिरकार उसके साथ क्या होता है? यही फिल्म का मुख्य थीम है. फिल्म उन युवाओं को मोटिवेट करने का एक प्रयास है, जो अपने माता-पिता के त्याग और सपनों को भूल कर शहर के ग्लैमर में खो जाते हैं और आखिरकार एक याद बन कर रह जाते हैं. फिल्म 07 अगस्त, 2016 को यूट्यूब के जरीये रीलीज की गयी है.

गौरव अब तक पटना के प्रमुख अखबारों में कार्टूनिस्ट के रूप में काम कर चुके हैं, फिलहाल वे प्रभात खबर के साथ जुड़े हैं. समाचारपत्र में काम करने के साथ-साथ रंगमंच व नुक्कड़ नाटकों में गौरव की खासी दिलचस्पी है. फिल्म और फिल्मी दुनिया के सागर में डुबकी लगाते रहने में गौरव को बड़ा आनंद आता है, यही वजह रही कि गौरव ऑफिस के बाद बचे समय में अपनी फिल्म पर काम करते रहे. इस फिल्म में अभिनय करने के साथ-साथ, गौरव फिल्म के लेखक, निर्माता, निर्देशक भी हैं.

फिल्म लिंक –

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