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स्वाधीन चेतना की भाषा हिन्दी की उपेक्षा क्यों?

मनोज कुमार-

हिन्दी को लेकर भारतीय मन संवेदनशील है लेकिन उसका गुजारा अंग्रेजी के बिना नहीं होता है। सालों गुजर गए हिन्दी को राष्ट्रभाषा का मान दिलाने का प्रण ठाने लेकिन हिन्दी आज भी बिसूरती हुई अपनी हालत पर खड़ी है। हर साल सितम्बर का महीना हिन्दी के नाम होता है और बाकि के 11 महीने अंग्रेजी को समर्पित। ऐसे में हिन्दी को जनभाषा के रूप में प्रतिष्ठापित किये जाने की जो कवायद है, वह आयोजनों तक ही रह गई है। कल तो इलीट क्लास के लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाते थे, अब निम्र आय वर्ग भी अंग्रेजी स्कूलों के मोहपाश में बंध गया है। आखिर यह स्थिति आयी क्यों, इस पर चिंतन की जरूरत है। यह क्या गर्व की बात है कि हम कहते हैं कि हमारे प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति अमुक मंच से हिन्दी में भाषण देकर आए हैं और उनमें भी चुनिंदा नाम गिनाये जाते हैं। जब भारत वर्ष की भाषा हिन्दी है तो किसी ने हिन्दी में भाषण देकर अपनी परम्परा को आगे बढ़ाने का काम किया है बल्कि हमें तो बार बार इस बात की आलोचना की जाना चाहिए कि अमुक राजनेता अपनी भाषा छोडक़र अंग्रेजी में बात कर रहा है। जिस दिन हम अपनी इस सोच में बदलाव करेंगे, हिन्दी की दशा और दिशा दोनों ही बदल जाएगी।

स्वाधीनता के इतने वर्ष गुजर जाने के बाद भी जब हम हिन्दी की स्थिति देखते हैं तो सहसा निर्मल वर्मा की लिखी बातें स्मरण में आती हैं। वे लिखते हैं कि -‘यह देखकर दु:ख होता है कि जो भाषा एक समय में भारत की स्वाधीन चेतना का प्रतिनिधित्व करती थी, स्वतंत्रता के 50 वर्ष के बाद अपने को गहरी हीन भावना से ग्रस्त उपेक्षित स्थिति में पाती है। कोई भाषा बहुत देर तक सरकारी अनुदानों अथवा मौखिक आत्मप्रशंसाओं द्वारा जीवित नहीं रहती, उसकी संजीवनी शक्ति का स्रोत ऊपर से नहीं, नीचे से आता है …. उन अटल गहराईयों से जहां उसके समाज के संस्कार और स्मृतियां वास करती हैं। पिछले वर्षों में हिन्दी भाषा का यह सनातन स्रोत धीरे-धीरे सूखता चला गया है, जिसके परिणामस्वरूप हमारे विश्वविद्यालयों, हमारी शिक्षा-पद्धति, हमारे सामाजिक कार्यकलाप में हिन्दी भाषा की भूमिका हाशिए पर चली गई है, तो आश्चर्य होता है कि पराधीन भारत में हमारी चेतना अधिक स्वतंत्र थी, अपनी भाषा में हमारा विश्वास कहीं और गहरा था, हमारी सांस्कृतिक संस्थाएं अधिक आत्मनिर्भर थीं। हालांकि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को आशा थी कि सन् 2000 ई. आते-आते हिन्दी में ज्ञान का साहित्य प्रचुर मात्रा में लिखा जाएगा। हिन्दी उच्चतम न्याय, उच्चतम शिक्षा और उच्चतम विधान की भाषा होगी। उन्हें पूरा विश्वास था कि आगामी 33 वर्षों में हिन्दी साहित्य स्वस्थ होगा अर्थात् हिन्दी देश की भीतरी जन-जीवन की उगती हुई आकांक्षाओं के साथ कदम रखता हुआ आगे बढ़ेगा, किन्तु हिन्दी आज भी उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय की भाषा नहीं बन पाई है।

यह हमारे लिए शर्म की बात है कि अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुए विश्व के किसी भी देश ने अंग्रेेजी को नहीं अपनाया। भारत को छोड़ हर मुल्क की आज अपनी भाषा है। इसी कारण विदेश दौरे पर गए भारतीय प्रतिनिधि द्वारा अपना संबोधन अंग्रेजी में देते ही यह सुनना पड़ा कि क्या भारत की अपनी कोई भाषा नहीं? इस अपमान के बावजूद भी हम आज तक नहीं चेत पाए। सभी भारतवासियों को कितना अच्छा लगा था जब देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने विश्व मंच पर अपना वकतव्य हिन्दी में दिया था आज जब अपने ही घर में हिन्दी अपने ही लोगों द्वारा उपेक्षित होती है, तो स्वाभिमान को कितना ठेस पहुंचता है , सहज अनुमान लगाया जा सकता है । काश यह अनुमान उन देशवासियों को होता जो इस देश में जन्म लेकर विदेशी भाषा अंग्रेजी को अहमियत देते है। आज अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजी संस्कृति के रंग में रंगने को ही आधुनिकता का पर्याय समझा जाने लगा है। वस्तुत: हम भारतीय अपनी परम्परा, संस्कृति, ज्ञान और यहां तक कि महान विभूतियों को तब तक खास तवज्जो नहीं देते, जब तक विदेशों में उसे न स्वीकार किया जाए। यही कारण है कि आज यूरोपीय राष्ट्रों और अमेरिका में योग, आयुर्वेद, शाकाहार, प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, होम्योपैथी और सिद्धा जैसे उपचार लोकप्रियता पा रहे हैं, जबकि हम उन्हें बिसरा चुके हैं। हमें अपनी जड़ी-बूटियों, नीम, हल्दी और गोमूत्र का ख्याल तब आता है, जब अमेरिका उन्हें पेटेंट करवा लेता है। योग को हमने उपेक्षित करके छोड़ दिया पर जब वही योगा बनकर आया तो हम उसके दीवाने बने बैठे हैं।

हमारे देश में प्रत्येक राज्य की अपनी भाषा है। भाषाओं की विभिन्नता के समावेश के बावजूद भी अंग्रेजी को बोलचाल का माध्यम बनाया जाता है। जितनी मेहनत हम अंग्रेजी सीखने में करते हैं, उतनी मेहनत हम अपने ही भारत देश की किसी और भाषा को सीखने में क्यों नहीं करते हैं? पाश्चात्य अथवा अंग्रेजी संस्कृति को दोष देने से पहले प्रत्येक भारतीय को अपने गिरेबान में झांक कर देखना चाहिए कि वो खुद अपनी संस्कृति के प्रति कितने निष्ठावान हैं।

भारत में टी.वी. चैनलों की भरमार है। पहले सिर्फ हिन्दी में ही चैनलों का प्रसारण होता था और चैनल भी दो ही थे, लेकिन धीरे-धीरे चैनलों के साथ-साथ भाषाएं भी बढ़ती गईं। आज हिन्दी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं में भी चैनलों का प्रसारण हो रहा है जो एक अच्छी बात है, लेकिन भारतीय चैनल अंग्रेजी को अब भी अपनाकर चल रहे हैं। विदेशों में उनकी स्थानीय भाषा में ही चैनलों का प्रसारण होता है। वहां मुश्किल से एक या दो चैनल ही अंग्रेजी में प्रसारित होते हैं। वहां अपनी स्थानीय भाषा को महत्व दिया जाता है। इसी तरह भारतीय परिवेश में भी स्थानीय भाषा का वर्चस्व होना चाहिए।

‘यह संक्रमण का समय है। संस्कृति, साहित्य और मीडिया में गहरी और व्यापक उथल-पुथल चल रही है। तकनीक ने संचार को आसान और त्वरित कर दिया है, जिससे संचार क्रांति हो गई है। नया मीडिया बहुत ताकतवर और आक्रामक है। अब यह केवल मीडिया, मतलब केवल संदेश का वाहक नहीं रहा। यह अब लगभग स्वायत्त और निर्णयात्मक हैसियत में है। इसने मनुष्य को उसके भीतर से खींचकर बाहर ला खड़ा किया है। मीडिया तय कर रहा है कि वह क्या खाएगा और क्या पहनेगा। मनुष्य अब अपने मन की कम, मीडिया की ज्यादा सुन रहा है। साहित्य सकते में है। मीडिया ने गद्य को पुनर्जीवन दिया है। गद्य मीडिया में मंज रहा है और नए रूपों में ढल रहा है। साहित्य की पारम्परिक विधाओं के अनुशासन चरमरा रहे हैं, उनमें अंर्तक्रियाएं हो रही हैं। भाषा का जनतंत्रीकरण हो गया है। भाषा का नया रूप उसे बोलने-बरतने वाले लोग गढ़ रहे हैं। पहली बार बोली-बरती जाने वाली हिन्दी लिखी जाने वाली हिन्दी का दर्जा पा रही है। कविता मुश्किल में है, वह अपनी ताकत को तौल और टटोल रही है। कहानी-उपन्यास नए रूपों में ढल रहे हैं।’

स्वतंत्र राष्ट्र में राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगान और राष्ट्रीय वेश तो प्रतीकात्मक रूप से राष्ट्र की पहचान है। वास्तव में राष्ट्रभाषा ही राष्ट्र की धमनियों में संचारित होने वाली राष्ट्रीयता की जीवंत धारा, रुधिर धारा है। राष्ट्रभाषा के बिना जन-जन का न तो पारस्परिक सम्पर्क संभव है और न देशवासियों में एकता की भावना ही पनप सकती है। राष्ट्र की भावात्मक एकता की बात करने वाले उपदेष्टा राजनीतिज्ञों को स्मरण रखना चाहिए कि विदेशी भाषा के माध्यम से स्वदेशी भावना का प्रचार आकाश कुसुम सूंघने का प्रयास करना है। भाषा के प्रति हमारी यह उदासीनता एक दिन भाषा को उजाड़ दे तो कोई आश्चर्य नहीं।

हिन्दी की आज यहीं वर्तमान दशा है, जहां हिन्दी अपने ही लोगों से पग-पग पर उपेक्षित हो रही है। इस दशा में क्या दिशा मिल सकती है, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। दोहरेपन की नीति के कारण आज तक स्वतंत्रता के 69 वर्ष उपरांत भी इस देश को सही मायने में एक भाषा नहीं मिल पाई है, जिसमें पूरा देश बातचीत कर सके। जिस भाषा को अंग्रेजों ने हमारे ऊपर थोपा, उसे लोग बड़े शौक से अपनी दिनचर्या में शामिल कर रहे हैं। अंग्रेज तो इस देश से चले गए, पर अंग्रेजियत आज भी हावी है। जब भी हिन्दी दिवस आता है, हिन्दी पखवाड़ा, सप्ताह का आयेजन कर, हिन्दी पर लम्बे-लम्बे वक्तव्य देकर, प्रतियोगिता आयोजित कर कुछ लोगों को हिन्दी के नाम पर सम्मान, इनाम देकर इतिश्री कर ली जाती है। हिन्दी पखवाड़ा, सप्ताह समाप्त होते ही हिन्दी वर्ष भर के लिए विदा हो जाती है। राष्ट्रभाषा राष्ट्र की आत्मा होती है। जिसमें पूरा देश संवाद करता है। जिससे राष्ट्र की पहचान होती है। यह तभी संभव है जब सभी भारतवासी दोहरी मानसिकता को छोडक़र राष्ट्रभाषा हिन्दी को अपने जीवन में अपनाने की शपथ मन से लें। तभी सही मायने में हिन्दी का राष्ट्रीय स्वरूप उजागर हो सकेगा। हिन्दी का राष्ट्रीय स्वरुप उजागर होने की आज महती आवश्यकता है। जिसमें देश की एकता और अस्मिता समाहित है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं भोपाल से प्रकाशित शोध पत्रिका ‘समागम’ के सम्पादक हैं)

मनोज कुमार
मनोज कुमार

केजरीवाल ने 6 बजे ट्विटर पर कहा ईद मुबारक,फिर खुद ही बन गये बकरा !

केजरीवाल

ट्विटर जैसे सोशल मीडिया के माध्यम पर आपको वाहवाही मिलती है तो लानत-मलानत भी होती है. ईद के मौके पर केजरीवाल के साथ ऐसा ही हुआ जब सुबह 6 बजे ही उठकर उन्होंने ईद की बधाई दे डाली. फिर क्या था लोग उनके पीछे पड़ गए और एक से बढ़कर एक कमेंट आने लगे. कई ने कमेंट करते हुए लिखा कि गणेश चतुर्थी तो आपको याद दिलाना पड़ा था. कुछ ट्वीट्स –





@Raiavi99
.@ArvindKejriwal होड़ में सबसे आगे निकल गए,ईद की बधाई देने की इतनी आग लगी थी कि 6ही बजे उठ के ट्वीट पेल दिया!!

टेलीविजन के हिंदी भाषी दर्शकों के टैक्स गुरु सुभाष लखोटिया की स्मृति के मायने

सुभाष लखोटिया
सुभाष लखोटिया

ललित गर्ग

सुभाष लखोटिया के प्रशंसकों एवं चहेतों के लिए यह विश्वास करना सहज नहीं है कि वे अब इस दुनिया में नहीं रहे। भारत के शीर्ष टैक्स और निवेश सलाहकार के रूप में चर्चित एवं सीएनबीसी आवाज चैनल पर चर्चित शो ‘टैक्स गुरु’ के 500 से अधिक एपिसोड पूरा कर विश्व रिकार्ड बनाने वाले श्री लखोटिया अनेक पुस्तकों के लेखक थे। वे पिछले कई दिनों से जीवन और मौत से संघर्ष कर रहे थे। उनको कैंसर था। डाक्टरों ने बहुत पहले उनके न बचने के बारे में कह दिया था लेकिन अपने विल पावर और जिजीविषा के कारण वे कैंसर व मौत, दोनों को लगातार मात दे रहे थे। पर इस बार जब हालत बिगड़ी तो कई दिनों के संघर्ष के बाद अंततः दिनांक 11 सितम्बर 2016 की मध्यरात्रि में इस दुनिया को अलविदा कह गए। हम सबके लिए यह हृदय विदारक और मन को पीड़ा देने वाला क्षण है जब हम सब अपने अजीज एवं हजारों-हजारों के चेहते श्री लखोटिया के असामयिक निधन के संवाद से उबर नहीं पा रहे हैं, यह अविश्वसनीय-सा लग रहा है और गहरा आघात दे रहा है। क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से वे न केवल दिल्ली बल्कि देश की विभिन्न सार्वजनिक संस्थाओं की धड़कन बन गये थे। उनका मन अंतिम क्षण तक युवा-सा तरोताजा, सक्रिय, आशावादी और पुरुषार्थी बना रहा।

सुभाष लखोटिया के जीवन के दिशाएं विविध हैं। आपके जीवन की धारा एक दिशा में प्रवाहित नहीं हुई है, बल्कि जीवन की विविध दिशाओं का स्पर्श किया है। आपने कभी स्वयं में कार्यक्षमता का अभाव नहीं देखा। क्यों, कैसे, कब, कहां जैसे प्रश्न कभी सामने आए ही नहीं। हर प्रयत्न परिणाम बन जाता कार्य की पूर्णता का। यही कारण है कि राजधानी दिल्ली की अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और जनकल्याणकारी संस्थाएं हैं जिससे वे सक्रिय रूप से जुड़े थे, वे अपने आप में एक व्यक्ति नहीं, एक संस्था थे। वे राजस्थान अकादमी, इनवेस्टर क्लब, लायंस क्लब नईदिल्ली अलकनंदा, मारवाड़ी युवा मंच, राजस्थान रत्नाकर और ऐसी अनेक संस्थाओं को उन्होंने पल्लवित और पोषित किया। उनकी अनेक अनूठी एवं विलक्षण विशेषताएं थीं और इसी कारण वे जन-जन में लोकप्रिय थे। वे एक सच्चे सामाजिक कार्यकर्ता थे, वहीं उत्कृष्ट समाज सुधारक और संवेदनशील जनसेवक एवं विचारक थे। वे चित्रता और मित्रता के प्रतीक थे। उनका जीवन घटनाबहुल था उसमें रचनात्मकता और सृजनात्मकता के विविध आयाम गुंथित थे।

अजमेर में जन्में श्री लखोटिया राजस्थान की संस्कृति एवं राजस्थानी भाषा के विकास के लिये निरन्तर प्रयत्नशील थे। दिल्ली में राजस्थानी अकेडमी के माध्यम से वे राजस्थानी लोगों को संगठित करने एवं उनमें अपनी संस्कृति के लिये जागरूकता लाने के लिये अनेक उपक्रम संचालित करते रहे हैं। न केवल राजधानी दिल्ली बल्कि देश-विदेश में राजस्थान की समृद्ध कला, संस्कृति व परंपरा पहुंचाने के लिये प्रयासरत थे। बीते 25 वर्ष से अकेडमी द्वारा लगातार दिल्ली में सांस्कृतिक कार्यक्रमों, विभिन्न प्रतियोगिताओं, कवियत्री सम्मेलन, मरु उत्सव, राजस्थानी लेखकों को सम्मानित करने के आयोजन उनके नेतृत्व में होते रहे हैं। वे राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता दिलवाने के लिए पिछले कई वर्षो से प्रयासरत थे। महिलाओं के लिए यह संस्था विशेष कार्यक्रमों का आयोजन करती है और विशेष कार्य करने वाली महिलाओं को सम्मानित भी करती है। संस्था का उद्देश्य देश-विदेश में रह रहे लोगों को एक साथ एक मंच पर लाना और आपसी भाई-चारे का मजबूत करना भी है। संस्था राजस्थान से जुड़ी हर परम्परा और उन क्षेत्रों से जुड़े कलाकार, विशेषज्ञ तथा बेहतर कार्य करने वालों को सहयोग कर आगे बढ़ावा देती है।

श्री सुभाष लखोटिया को सम्पूर्ण जीवन लाॅयनिज्म को समर्पित रहा है। वे 1970 में ही लायंस इंटरनेशनल के द्वारा सर्वश्रेष्ठ युवा लायंस के रूप में सम्मानित हो गये थे। वे लायंस क्लब नई दिल्ली अलकनंदा के संस्थापक एवं आधारस्तंभ थे। उनकी भारत में लाॅयनिज्म को आगे बढ़ाने के लिए अविस्मरणीय एवं अनुकरणीय सेवाएं रही हंै। वे इस क्लब के माध्यम से सेवा, परोपकार के अनेक जनकल्याणकारी उपक्रम करते रहते थे। हाल ही में उन्होंने सेवा की गतिविधियों को प्रोत्साहन देने के लिये प्रतिवर्ष एक लाख रूपये का ‘सुभाष लखोटिया सेवा पुरस्कार’ देना प्रारंभ किया। वे क्लब के विकास में न केवल सहभागी बने बल्कि उसे बीज से बरगद बनाया, उन सब घटनाओं और परिस्थितियों का एक अलग इतिहास है। उनसे जुड़े अनेक प्रसंग और घटनाएं हैं जिन्हें लांयस क्लब नई दिल्ली अलकनंदा के लिए ऐतिहासिक कहा जा सकता है। श्री रामनिवास लखोटिया के वे पुत्र थे। पिता और पुत्र दोनों ने अजमेर में विक्टोरिया अस्पताल के समीप मोहनलाल गंगादेवी लखोटिया धर्मशाला का निर्माण करके समाजोपयोगी एवं प्रेरणादायी कार्य किया। वे पुष्कर के विकास के लिये भी तत्पर रहते थे। उन्होंने पद-प्रतिष्ठा पाने की न कभी चाह की और न कभी चरित्र कसे हासिये में डाला। स्वस्थ चिंतन से परिवर्तन की जो बुनियाद तैयार होगी वही स्वस्थ समाज एवं लोकमंगलकारी जीवन का नव-विहान करेगी- यही लखोटियाजी के जीवन का हार्द है।

श्री सुभाष लखोटिया अनेक पुरस्कारों से सम्मानित हुए है। सन् 2010 में ‘साहित्यश्री पुरुस्कार’, ‘सूर्यदत्त राष्ट्रीय अवार्ड’ एवं सन् 2014 में उन्हें लायंस इंटरनेशनल के द्वारा ‘सद्भावना के राजदूत पुरुस्कार’ से सम्मानित किया गया। सन् 2010 में टैक्स गुरु बिसनेस शो के लिये राष्ट्रीय टेलीविजन अवार्ड भी प्रदत्त किया गया। हर व्यक्ति को लखपति और करोड़पति बनाने के लिये उनके द्वारा लिखी गयी पुस्तकें काफी लोकप्रिय हुई है। वे समृद्धि की ही बात नहीं करते बल्कि हर इंसान को नैतिक एवं ईमानदार बनने को भी प्रेरित करते। देश के दर्जनों अखबारों में उनके न केवल टैक्स सलाह एवं निवेश से संबंधित बल्कि जीवन निर्माण एवं आध्यात्मिक मूल्यों से प्रेरित लेख-साक्षात्कार प्रकाशित होते रहते थे। लखोटियाजी सतरंगी रेखाओं की सादी तस्वीर थे। गहन मानवीय चेतना के चितेरे थे। उनका हंसता हुआ चेहरा रह-रहकर याद आ रहा है।

इस संसार में जन्म-मृत्यु का क्रम सदा से चलता रहा है। कुछ लोग अपने चुंबकीय व्यक्तित्व से अमिट छाप छोड़ जाते हैं। ऐसे ही दुर्लभ व्यक्तित्व के धनी थे लखोटियाजी। मिलनसार एवं हंसोड़ व्यक्तित्व उनका था, जो उन्हें हर किसी से एकाकार कर देता था। गुणग्राहकता ने उनके इस व्यक्तित्व को और भी लुभावना रूप दे दिया था। सरल व्यवहार से संपर्क में आने वाले हर व्यक्ति को वे आकर्षित कर लेते थे। उनके जीवन की दिशाएं विविध हैं, वे एक दिशा में प्रवाहित नहीं हुई है, बल्कि जीवन की विविध दिशाओं का स्पर्श किया है। उनके जीवन की खिड़कियाँ समाज को नई दृष्टि देने के लिए सदैव खुली रही। वे एक सच्चे सामाजिक कार्यकर्ता थे, वहीं उत्कृष्ट समाज सुधारक और संवेदनशील जनसेवक एवं विचारक थे। वे चित्रता और मित्रता के प्रतीक थे।

लखोटियाजी की अनेकानेक विशेषताओं में एक प्रमुख विशेषता यह थी कि वे सदा हंसमुख रहते थे। वे अपने गहन अनुभव एवं आध्यात्मिकता के कारण छोटी-छोटी घटना को गहराई प्रदत्त कर देते थे। अपने आस-पास के वातावरण को ही इस विलक्षणता से अभिप्रेरित करते थे। यही मानक दृष्टि उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व को समझने की कुंजी है।
लखोटियाजी कहा करते थे कि जितना हो सके दूसरों के लिए सुख बांटो क्योंकि इस संसार में उसके समान अन्य कोई धर्म नहीं है। किसी को पीड़ित मत करो, किसी का दिल मत दुखाओ, क्योंकि उसके समान अन्य कोई पाप नहीं है। यह प्रयोग, समस्याओं के आर-पार जाने की क्षमता, वास्तविकता पर पडे़ आवरणों को तोड़ देने की ताकत और मनुष्यों की चिंता उनके अनुभवों में भी दिखाई पड़ती थी। इतिहास और वर्तमान-दोनों जगह वह उत्पीड़न के खिलाफ हैं और उसकी अभिव्यक्ति में पूरी तरह भयमुक्त हैं। अपनी तेज आंखों से वे उस सच को पहचान ही लेते हैं जो आदमी को तोड़ता है और उसे मशीन का केवल पुर्जा बनाकर छोड़ देता है।

ललित गर्ग
ललित गर्ग

लखोटियाजी के जीवन के सारे सिद्धांत मानवीयता की गहराई से जुड़े हैं और उस पर वह अटल भी रहते हैं किंतु किसी भी प्रकार की रूढ़ि या पूर्वाग्रह उन्हें छू तक नहीं पाता। वह हर प्रकार से मुक्त स्वभाव के हैं और यह मुक्त स्वरूप भीतर की मुक्ति का प्रकट रूप है। यह उनके व्यक्ति की बड़ी उपलब्धि है। स्वभाव में एक औलियापन है, फक्कड़पन है और फकीराना अंदाज है और यह यह सब नैसर्गिक रूप में विद्यमान है जिसका पता उन्हें भी नहीं है। उनका दिल और द्वार सदा और सभी के लिए खुला रहा अनाकांक्ष भाव से जैसे यह स्वभाव का ही एक अंग है। मित्रों की सहायता में सदा तत्पर रहे। अपना दुख कभी नहीं कहा किन्तु दूसरों का दुख अवश्य बांटते रहे। छोटी बातों को बड़ा बनाकर कभी नहीं कहते, बड़ी बात को सहज भले बना दें।

लखोटियाजी में विविधता थी और यही उनकी विशेषता थी। उन्हें प्रायः हर प्रदेश के और हर भाषा के लोग जानते थे। उनकी अनेक छवि, अनेक रूप, अनेक रंग उभर कर सामने आते हैं। ये झलकियां बहुत काम की हैं। क्योंकि इससे सेवा का संसार समृद्ध होता है।

लखोटियाजी का जितना विशाल और व्यापक संपर्क है और जितने अधिक लोग उन्हें करीब से जानने वाले हैं, अपने देश में भी और विदेशों में भी, उस दृष्टि से कुछ शब्दों से उनके बारे में बहुत नहीं जाना जा सकता, और भी आयाम और अनेक रोचक प्रसंग उजागर हो सकते हैं। यह काम कठिन अवश्य है, असंभव नहीं। इस पर भविष्य में ठोस काम होना चाहिए, ताकि उनकी स्मृति जीवंत बनी रहे।

शेखर गुप्ता पर केजरीवाल का ट्वीट ओम थानवी को नागवार गुज़रा

ओम थानवी,वरिष्ठ पत्रकार
ओम थानवी,वरिष्ठ पत्रकार

ओम थानवी,वरिष्ठ पत्रकार  –

संदर्भ – शेखर गुप्ता,पत्रकारिता नहीं मोदी की दलाली करते हैं – अरविंद केजरीवाल

दिल्ली में बीमारियों के चिंताजनक मामले में कितना ज़िम्मा शासन का है, कितना निकायों या अब प्रशासनिक मुखिया घोषित उपराज्यपाल का – यह फ़िज़ूल बहस है जो टीवी चैनलों पर चलती रहेगी। असल बात यह है कि बीमारियों के विकट हमले के बीच अधिकांश मंत्री एक साथ दिल्ली से बाहर कैसे रह सकते हैं? मुख्यमंत्री भी इटली से लौटते ही पंजाब चले गए। क्या पंजाब की प्राथमिकता दिल्ली से बड़ी है? बाक़ी मंत्री भी बयानों में ज़्यादा वक़्त खपाते हैं, ज़मीन पर तो काम ही देखा जाएगा जो नज़र आना चाहिए।

मुझे शेखर गुप्ता पर केजरीवाल का ट्वीट भी नागवार गुज़रा। हालाँकि मैं गुप्ता का बड़ा प्रशंसक नहीं हूँ, उन्होंने सोलह बरस मुझसे जनसत्ता का सम्पादन करवाया पर औपचारिकतः मुख्य सम्पादक का पदनाम तक अता नहीं फ़रमाया। पर उससे क्या, तथ्यों या विचारों पर आपत्ति ज़ाहिर करना एक बात होती है, लेकिन असहमति पर पत्रकार को राजनीतिक दलों का दलाल कह देना गाली देने के सिवा कुछ नहीं। यह काम तो भाजपा के प्रवक्ता हमारे साथ कर ही रहे हैं।

‘आप’ को लोग दूसरे दलों से अलग मानते हैं। कुछ लोग बुरों में कम बुरा कहते हैं और समर्थन जारी रखते हैं। मैं ख़ुद दिल्ली सरकार द्वारा भ्रष्टाचार, शिक्षा, चिकित्सा, पर्यावरण आदि मामलों में की गई कोशिशों की तारीफ़ करता हूँ और इसके लिए बुरा-भला भी सुना है। मगर वही शब्दावली केजरीवाल अन्य सम्पादकों-पत्रकारों के लिए प्रयोग करने लगे तो उनमें और भाजपा प्रवक्ताओं की ज़ुबान में क्या फ़र्क़ रह जाएगा? अच्छा हो केजरीवाल शेखर गुप्ता से खेद जताएँ और अपने ट्वीट वापस लें। अच्छे अख़बारों में भूल-सुधार का क़ायदा है; राजनेताओं को भी निस्संकोच भूल-सुधार करना चाहिए।  @B

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