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तीन तलाक मुस्लिम महिलाओं पर अत्याचार की पराकाष्ठा

ब्रह्मानंद राजपूत,
ब्रह्मानंद राजपूत,

भारत देश विविधताओं से भरा हुआ देश है। यहाँ अनेक धर्मों के मानने वाले लोग मिलजुलकर रहते हैं। यहाँ का कानून भारतीय संविधान के अनुसार काम करता है। लेकिन आज भी भारत में कुछ ऐसे कानून हैं जो कि भारतीय संविधान के बिल्कुल इतर काम करते हैं, जो कि धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर भारतीय संविधान की धज्जियाँ उड़ाते हैं। बेशक धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार संविधान के मौलिक अधिकारों में शामिल हो, लेकिन इसके भी अपने दायरे और सीमाएं होनी चाहिए। हर चीज में धार्मिक स्वतंत्रता घुसेड़ना भारतीय संविधान की जड़ों को खोकला करती है। भारत देश में हर धर्म के लोग रहते हैं। बहुसंख्यक हिन्दू भी रहते हैं और अल्पसंख्यक मुस्लिम सिख और ईसाई भी। हिंदू सिविल लॉ के तहत हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध आते हैं। जबकि मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदाय के अपने-अपने पर्सनल लॉ है, जिस देश का कानून भारतीय संविधान के अनुसार चलता हो वहां पर ऐसे रूढ़िवादी कानूनों का क्या औचित्य है। हमारे भारतीय संविधान में अनुच्छेद 44 के तहत समान नागरिक संहिता को लागू करना राज्य की जिम्मेदारी बताया गया है, लेकिन ये आज तक देश में लागू नहीं हो पाया। समान नागरिक संहिता का मतलब है भारत में रहने वाले प्रत्येक नागरिक के लिए समान यानी एक जैसे नागरिक कानून। देश के संविधान को लागू हुए 65 साल से ज्यादा हो गए लेकिन भारत की सरकारें आज तक भारत में रहने वाले प्रत्येक नागरिक के लिए समान यानी एक जैसे नागरिक कानून नहीं बना पायी हैं।

समान नागरिक संहिता का विरोध करने वाले लोग सामान नागरिक कानून को धार्मिक स्वतंत्रता के खिलाफ बताते हैं। जो की तर्कहीन लगता है। समान नागरिक संहिता का विरोध करने वाले लोगों का ये मानना है कि देश में सामान नागरिक कानून लागू हो जाने से देश में हिन्दू कानून लागू हो जाएगा, जो की गलत प्रचार ह।ै लेकिन हकीकत यह है कि समान नागरिक संहिता एक ऐसा कानून होगा जो हर धर्म के लोगों के लिए बराबर होगा और उसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं होगा। और समान नागरिक कानून पूरे तरीके से संविधान का पालन करेगा। अगर देश में समान नागरिक संहिता का पालन हो तो सभी धर्मों हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई के लिए एक समान कानून होगा। समान नागरिक संहिता में सभी धर्मों के शादी, तलाक, गोद लेना और जायदाद बंटवारे में सबके लिए एक जैसा कानून होगा। फिलहाल कई धर्म के लोग इन मामलों का निपटारा अपने धर्म के निजी कानूनों के तहत करते हैं। मुस्लिम धर्म के लोग देश में अलग कानून चलाते हैं जो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड लागू करता है। आज भी मुस्लिम समाज के लोग इसी रूढ़िवादी कानून को ढो रहे हैं। असल में कहा जाए तो मुस्लिम समाज के धर्मगुरु धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर मुसलामानों को पर्सनल लॉ का पालन करने के लिए बाध्य करते हैं। देखा जाए तो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के ज्यादातर कानून मुस्लिम महिलाओं पर अत्याचार की पराकाष्ठा हैं।

आजकल मुस्लिम समाज में तीन तलाक के मुद्दे पर इन दिनों देश में खूब बहस चल रही है और इसे हटाने की मांग की जा रही है। मुसलमानों में तलाक मुस्लिम पर्सनल लॉ यानी शरिया के जरिए होता है। यह बहुत ही रूढ़िवादी कानून है आज देश का कानून भारतीय संविधान के अनुसार चलता है फिर भी मुस्लिम महिलाएं धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर इन कानूनों के जरिए उन पर हो रहे अत्याचारों को झेल रही हैं। आजादी के बाद हिन्दू कानून में संविधान के अनुसार बदलाव किया गया और आज तक हिंदुओं के शादी, तलाक, गोद लेना और जायदाद बंटवारे सब भारतीय संविधान के दायरे में होते हैं। लेकिन आजादी के बाद संविधान लागू हो गया संविधान लागू होने के बाद भी दूसरे धर्मों के निजी कानूनों में कोई बदलाव नहीं हुआ। तमाम राजनैतिक पार्टियां वोट बैंक की राजनीति के कारण इन निजी कानूनों पर अपनी कोई राय नहीं रखती है और किसी भी बहस में नहीं पड़ना चाहती हैं। क्योंकि अगर वो इन रूढ़िवादी कानूनों का विरोध करेंगीं तो उनके वोट बैंक को नुक्सान होगा। जिसका नतीजा ये है कि देश आज भी धर्मों के अनुसार अलग-अलग कानूनों की जंजीरों में जकड़ा हुआ है। आज देश को इन जंजीरों से बाहर निकलने की जरुरत है और जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, यूनाइटेड किंगडम इत्यादि देशों की तरह समान नागरिक कानून लागू करने की जरुरत है।

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के कानून से मुस्लिम महिलाओं को तमाम अत्याचार झेलने पड़ते हैं। तीन तलाक तो इसकी पराकाष्ठा है। साथ ही साथ मुस्लिम पुरुष समाज को एक पत्नी होते हुए बहुविवाह की आजादी भी मुस्लिम महिलाओं पर अत्याचार है। आज मुस्लिम समाज की आधुनिक सोच की महिलाएं इन कानूनों के विरोध में आगे आ रही हैं। यह काबिलेतारीफ है। उनके साहस को मुस्लिम समाज सहित सम्पूर्ण देश को समर्थन करना चाहिए। अंग्रेजों के जमाने में हिन्दू सती-प्रथा तथा बाल-विवाह पर बंदिश के कानून का हिंदू कट्टरपंथियों द्वारा विरोध हुआ था। आजादी के बाद अंबेडकर जैसे प्रगतिशील और आधुनिक सोच रखने वाले लोगों के कारण हिंदू सिविल कानून भी कट्टरपंथियों के विरोध के बावजूद पारित हुआ। ऐसे ही आज मुस्लिम धर्म सहित अन्य धर्मों में अंबेडकर जैसे प्रगतिशील और आधुनिकता का अनुकरण करने वाले लोगों की जरुरत है। अगर देश में सामान नागरिक संहिता नहीं तो कम से कम मुस्लिम सिविल कानून तो लागू हो। जिससे की मुस्लिम समाज सहित अन्य अल्पसंख्यकों को रूढ़िवादी कानूनों के बोझ न दबना पड़े। अगर सरकार समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर फीडबैक मांगती है तो इसे तीन तलाक से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए। क्योंकि तीन तलाक और सामान नागरिक संहिता दोनों अलग अलग चीजें हैं। मुस्लिम समाज में मुख्य मुद्दा लैंगिक न्याय का और महिलाओं के खिलाफ भेदभाव खत्म करने का है। तीन तलाक के मुद्दे को समान नागरिक संहिता के मुद्दे के साथ उलझाना गलत है। देश का असली मूड यह है कि लोग इस तीन तलाक को खत्म करना चाहते हैं। लोग किसी धर्म के आधार पर महिलाओं के खिलाफ भेदभाव नहीं चाहते। मुस्लिम समाज में मुद्दे लैंगिक न्याय, अपक्षपात और महिलाओं के सम्मान के हैं। जिन्हें मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और तुष्टिकरण करने वाली राजनैतिक पार्टियां समान नागरिक संहिता से जोड़कर अहम मुद्दे से ध्यान भटकाना चाहती हैं। अगर विधि आयोग समान नागरिक संहिता पर समग्र चर्चा करा रहा है तो इस पर किसी भी धर्म विशेष के लोगों को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। बल्कि प्रत्येक धर्म के लोगों को अपनी बेबाक राय रखनी चाहिए। विभिन्न संगठनों और धर्मगुरुओं की जगह सभी धर्मों की युवा जनता को इस चर्चा में अधिक से अधिक भागीदारी करनी चाहिए और देश के लिए अपनी राय बतानी चाहिए। क्योंकि किसी भी मसले का हल चर्चा होता है। अगर केंद्र एक स्वस्थ्य चर्चा कराना चाहता है तो इससे किसी को परेशानी नहीं होनी चाहिए।

देश कोरे ‘‘वाद’’ या ‘‘वादों’’ से ही नहीं बनेगा

ललित गर्ग
ललित गर्ग

क्या राजनीति में सौहार्द एवं सद्भावना असंभव है? क्या विरोध की राजनीति के स्थान पर देश के विकास की राजनीति को संभव बनाया जा सकता है? घृणा, विद्वेष और घनीभूत इर्ष्या के बिना क्या राजनीति हो सकती है? मूल्यों एवं सिद्धान्तों की राजनीति क्यों नहीं लक्ष्य बन सकती? ऐसे अनेक प्रश्न जन-जन को झकझोर रहे हैं। इस विराट देश की आशाओं, सपनों, यहां छाई गरीबी, तंगहाली, बीमारी और कुपोषण को दूर करना राजनीति की प्राथमिकता होना ही चाहिए। मंदिर- मस्जिद से पहले भूखे की भूख दूर करना राजनीति का लक्ष्य होना चाहिए। क्या करोड़ों लोग कीड़े-मकोड़ों की तरह फुटपाथ और रेल की पटरियों के इर्द-गिर्द जिंदगी जिएं और हम अपने-अपने राजनीतिक झंडे लिए झगड़े करें तो देश कैसे उन्नति करेंगा?

देश वोटों की राजनीति, अहंकार और धन के बल से नहीं, बल्कि राजनीति अपने अस्तित्व को जन-जन एकाकार करने से समृद्ध एवं शक्तिशाली बन सकता है। देश आम आदमी की परेशानियों के साथ विलीन करने वाले सौजन्य से बनता और बचता है। चाहे चीन हो या अमेरिका, जापान हो या जर्मनी हर उन्नत देश के सिर्फ उस कार्यकर्ता और नेतृत्व ने शून्य से महाशक्ति बनने का सफर तय किया, जिसने अपने अहं, अपनी जीत-हार से बड़ा देश का अहं, देश की जीत-हार को माना। हम हार जाएं, तो क्या! देश नहीं हारना चाहिए। जब तक ऐसी सोच विकसित नहीं होगी, देश वास्तविक तरक्की नहीं कर सकेगा। जन प्रतिनिधि लोकतंत्र के पहरुआ होते हैं और पहरुआ को कैसा होना चाहिए, यह एक बच्चा भी जानता है कि ”अगर पहरुआ जागता है तो सब निश्चिंत होकर सो सकते हैं।“ इतना बड़ा राष्ट्र केवल कानून के सहारे नहीं चलता। उसके पीछे चलाने वालों का चरित्र बल होना चाहिए।

इन नये राजकुमारों-जनप्रतिनिधियों की सुविधाओं और स्वार्थों को गरीब राष्ट्र बर्दाश्त भी कर लेगा पर अपने होने का भान तो सांसद अपने क्षेत्र में कराए। जो वायदे उन्होंने अपने मतदाताओं से किए हैं, जो शपथ उन्होंने भगवान या अपनी आत्मा की साक्षी से ली है, जो प्रतिबद्धता उनकी राष्ट्र के विधान के प्रति है, उसे तो पूरा करें।
आज करोड़ों के लिए रहने को घर नहीं, स्कूलों में जगह नहीं, अस्पतालों में दवा नहीं, थाने में सुनवाई नहीं, डिपो में गेहूं, चावल और चीनी नहीं, तब भला इतनी सुविधाएं लेकर यह राजकुमारों की फौज कौन-सा ”वाद“ लाएगी? देश केवल ”वाद“ या ‘‘वादों’’ से ही नहीं बनेगा, उसके लिए चाहिए एक सादा, साफ और सच्चा राष्ट्रीय चरित्र, जो जन-प्रतिनिधियों को सही प्रतिनिधि बना सके। तभी हम उस कहावत को बदल सकेंगे ”इन डेमोक्रेसी गुड पीपुल आर गवरनेड बाई बैड पीपुल“ कि लोकतंत्र में अच्छे आदमियों पर बुरे आदमी राज्य करते हैं।

कहते हैं कि जो राष्ट्र अपने चरित्र की रक्षा करने में सक्षम नहीं है, उसकी रक्षा कोई नहीं कर सकता है। क्या परमाणु बम भारतीयता की रक्षा कर पाएगा? दरअसल, यह भुला दिया गया है कि पहले विश्वास बनता है, फिर श्रद्धा कायम होती है। किसी ने अपनी जय-जयकार करवाने के लिए क्रम उलट दिया और उल्टी परंपरा बन गई। अब विश्वास हो या नहीं हो, श्रद्धा का प्रदर्शन जोर-शोर से किया जाता है। गांधीजी भी श्रद्धा के इसी प्रदर्शन के शिकार हुए हैं। उनके सिद्धांतों में किसी को विश्वास रहा है या नहीं, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। पर उनकी कसमें खाकर वाहवाही जरूर लूटी जा रही है। यह राजनीति की बड़ी विसंगति बनती जा रही है जिसमें गांधीजी के विचार बेचने की एक वस्तु बनकर रह गए हैं। वे छपे शब्दों से अधिक कुछ नहीं हैं।

इसलिए ही वर्तमान राजनीति को गांधीजी की जरूरत आज पहले से कहीं अधिक है। इस जरूरत को पूरा करने की सामथ्र्य वाला व्यक्तित्व दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा है। हर कोई चाहता है कि आदर्श और मूल्य इतिहास में बने रहें और इतिहास को वह पूजता भी रहेगा। परंतु अपने वर्तमान को वह इस इतिहास से बचाकर रखना चाहता है। अपने लालच की रक्षा में वह गांधी की रोज हत्या कर रहा है, पल-पल उन्हें मार रहा है और राष्ट्र भीड़ की तरह तमाशबीन बनकर चुपचाप उसे देख रहा है। शायद कल उनमें से किसी को यही करना पड़े! अपने हितों की विरोधी चीजों को इतिहास में बदल देने में भारतीयता आजादी के बाद माहिर हो चुकी है। वर्तमान और इतिहास की इस लड़ाई में वर्तमान ही जीतता आ रहा है क्योंकि इतिहास की तरफ से लड़ने वाले शेष नहीं हैं।

कुछ राजनीति करने लोग जेहाद के नाम पर घृणित कृत्यों को अंजाम दे रहे हैं। कहीं दंगे हो रहे हैं तो कहीं महिलाओं और बच्चों के साथ अत्याचार की घटनाएँ हो रही हैं। धर्म और संप्रदाय के नाम पर समाज में विष घोला जा रहा है। दुनिया में शस्त्रों ही होड़ चल रही है। आतंकवाद जीवन का अनिवार्य सत्य बन गया है। वैचारिक धरातल में खोखलापन आ गया। जान-बूझकर धीरे-धीरे और योजनाबद्ध ढंग से राजनीति में मूल्यों और सिद्धान्तों को मिटाया जा रहा है क्योंकि यह मौजूदा स्वार्थों एवं राजनीतिक हितों में सबसे बड़े बाधक हैं। मूल्यों एवं नैतिकता को मिटाने की इस गतिविधि को देखा नहीं गया, ऐसा नहीं है। सब चुप हैं क्योंकि अपना-अपना लाभ सभी को चुप रहने के लिए प्रेरित कर रहा है।

फिर भी इतना अवकाश तो होना ही चाहिए कि बाकी तमाम विषयों पर असहमति के बावजूद राजनीति में मूल्यों एवं सिद्धान्तों का निश्छल छंद कहीं, थोड़ा-सा ही सही, बचा रहे। जिससे राजनीतिक लोग आपस में मिल सके, देश के विकास के मुद्दों पर सहमति बना सके। पर अब दीवारें बड़ी गहरी होती जा रही हैं। आपस में ही अनौपचारिक मिलना-जुलना, सुख-दुख बांटना संभव नहीं हो गया, तो दीवारें लांघ कर कौन जाए? जाए भी तो डरा-सा रहता है कि मुसीबत गले पड़ जाएगी। इस तरह बनता माहौल कैसे देश को साफ-सुथरा नेतृत्व दे पाएगा। आज राजनीति अनेक छिद्रों की चलनी हो गयी है।

एक बार एक चित्र देखा। दो दोस्त घाट पर पानी लाने गए। एक के पास मिट्टी का घड़ा था, दूसरे के पास चलनी थी। घाट के किनारे दोनों बैठे, पानी भरना शुरू किया। एक का घड़ा एक बार में ही पानी से पूरा भर गया मगर दूसरे की चलनी में पानी भरने का हर प्रयत्न व्यर्थ होता देखा गया। दोस्त निराशा से घिर गया। समझ नहीं पाया कि आखिर में मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ?

बात तो बहुत सीधी-सी है। एक समझदार बालक भी कह सकता है कि घड़े में पानी इसलिए भर गया कि उसमें बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं था। घड़ा पूर्ण था किन्तु चलनी में तो अनेक छिद्र थे, भला उसमें पानी का ठहराव कैसे संभव होता?

मगर यह समस्या घट और चलनी की नहीं, राजनीति की है, राजनीति के बनते-बिगड़ते संदर्भों की है जिसे आम आदमी नहीं समझ सकता। इसके लिए एकाग्रचित्त होकर सूक्ष्मता से सोचना-समझना होगा। वर्तमान की विडम्बना है कि राजनीति का चरित्र भी घट और चलनी जैसा होता जा रहा है। एक वर्ग में श्रेष्ठताओं की पूर्णता है तो दूसरे में क्षुद्रताओं के अनगिनत छिद्र। एक राजनीतिक विचारधारा में समंदर-सा गहरापन है। सब कुछ अनुकूल-प्रतिकूल अनुभवों को समेट लेने की क्षमता है, तो दूसरे में सहने का अभाव होने से बहुत जल्द प्रकट होने वाला छिछलापन है। एक में तूफानों से लड़कर मंजिल तक पहुंचने का आत्मविश्वास है, तो दूसरा तूफान के डर से नाव की लंगर खोलते भी सहमता है।

हम देख रहे हैं कि नये-नये उभरते राजनीति दल एवं उनके पैरोकारों का निजी स्वभाव औरों में दोष देखने की छिद्रान्वेषी मनोवृत्ति का होता है। वे हमेशा इस ताक में रहते हैं कि कौन, कहंा, किसने, कैसी गलती की। औरों को जल्द बताने की बेताबी उनमें देखी गई है, क्योंकि उनका अपना मानना है कि इस पहल में भरोसेमंद राजनीति की पहचान यूं ही बनती है। ऐसे राजनीतिक लोग देश के लिये दुर्भाग्य ही है, वे किसी-न-किसी कमजोरी से घिरे हैं, वे झूठ बोलकर स्वयं को सुरक्षा देते हंै। अन्याय और शोषण करके अपना हक पाने का साहस दिखाते हंै। औरों की आलोचना कर एक कुशल राजनीतिज्ञ के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करते है। उसमें अपनी क्षमताओं पर विश्वास नहीं होता, इसलिए औरों की ताकत से डरते हुए भी वह उनका विरोध करते हैं ताकि उसकी दुर्बलताएं प्रकट न हो सकें।

ऐसे दुर्बल लोगों ने राजनीति के चरित्र को धुंधलाया है, उसमें तत्काल निर्णय लेने का साहस नहीं होता मगर वे स्वयं को समझदार और समयज्ञ दिखाने के लिए यह कहकर उस क्षण को आगे टाल देना चाहता है कि अभी सही समय नहीं है। ऐसे तुच्छ तथाकथित राजनेता या जनप्रतिनिधि समझते हंै कि छोटे-छोटे अच्छे काम कर देने से किसी का भला नहीं होता, इसलिए वे अच्छे काम नहीं करते। वे समझते है कि छोटे-छोटे बुरे काम कर देने से किसी का बुरा नहीं होता, इसलिए वे बुरे कामों का त्याग नहीं करते। ऐसी क्षुद्रताओं को जीने वाले राजनेता कभी बदलना चाहते भी नहीं। वे मन के विरुद्ध किसी नापसंद को सह नहीं पाते। स्वयं पर औरों का निर्णय, आदेश, सलाह, लागू नहीं कर सकते क्योंकि उनकी नजर में स्वयं द्वारा उठाया गया कदम सही होता है। जब दिल और दिमाग में बुराइयां अपने पैर जमाकर खड़ी हो जाती हैं तो फिर अच्छाइयों को खड़े होने की जगह ही कहां मिलती है?

हिंदी-हरियाणवी रैप से ‘बंटी-बबली’ की वापसी

हिंदी-हरियाणवी रैप से ‘बंटी-बबली’ की वापसी
हिंदी-हरियाणवी रैप से ‘बंटी-बबली’ की वापसी




हिंदी-हरियाणवी रैप से ‘बंटी-बबली’ की वापसी
हिंदी-हरियाणवी रैप से ‘बंटी-बबली’ की वापसी

अनिल बेदाग

सन् 2005 में प्रदर्शित‘बंटी और बबली’ के अभिषेक बच्चन-रानी मुखर्जी अब किसे मूर्ख बनाएंगे! क्या फिल्म के सीक्वेल के जरिए दोनों की वापसी हो रही है! जी नहीं, न फिल्म आ रही है और न ही बंटी-बबली के वो ठग जैसे किरदार नज़र आएंगे लेकिन धमाल जरूर होगा। इस बार नए कॉन्सेप्ट को लेकर आ रहे हैं सिंगर पी टू यानि पंकज पुनेठा। पी टू अपनी नई म्यूजिक एलबम बंटी-बबली को लेकर काफी उत्साहित हैं। वह कहते हैं कि इस बार उनकी एलबम बंटी-बबली का गाना सुनने के बाद श्रोताओं में पहले वाले बंटी-बबली की यादें ताजा हो जाएंगी। पकज कहते हैं कि मेरी नई म्यूजिक एलबम बंटी-बबली है। इसमें आपको चुलबुले, मस्त-मलंग व ठगी जैसी किरदार देखने को मिलेंगे। यह एक डांस नंबर है। इसमें आपको हिन्दी व हरियाणवी दोनों तरह का रैप सुनने को मिलेगा जोकि आजकल काफी ट्रेंड में है।




उर्दू फिक्शन दिशा और गति पर सेमिनार

प्रेस विज्ञप्ति

भोपाल। मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी (संस्कृति विभाग) द्वारा 18 अक्टूबर 2016 को स्टेट म्यूजियम, श्यामला हिल्स, भोपाल में फिक्शन पर आधारित अखिल भारतीय सेमिनार ‘उर्दू फिक्शन दिशा और गति’ (उर्दू फिक्शन सम्त और रफ्तार) आयोजित है। उर्दू अकादमी की सचिव डॉ. नुसरत मेहदी ने बताया कि इस अखिल भारतीय सेमिनार में देश के ख्याति प्राप्त कहानीकार व उपन्यासकार शामिल होंगे।



कार्यक्रम दो सत्रों में आयोजित है। डॉ. अली अहमद फातमी-इलाहाबाद की अध्यक्षता में सुबह 11.00 बजे प्रथम सत्रा में श्री इक़बाल मजीद-भोपाल, डॉ. मुशर्रफ आलम जौकी-मुम्बई, डॉ. सादिका नवाब-मुम्बई और इक़बाल मसूद-भोपाल द्वारा फिक्शन पर विमर्श तथा कहानी पाठ होगा। द्वितीय सत्रा डॉ. मुशर्रफ आलम जौकी-मुम्बई की अध्यक्षता में दोपहर 3.00 बजे प्रारंभ होगा, जिसमें श्री नईम कौसर-भोपाल, डॉ. तरन्नुम रियाज-जम्मू, डॉ. दीपक बुदकी-नोएडा, श्री श्याम मुंशी-भोपाल, श्रीमती हाजरा बानो-ओरंगाबाद और श्री अजहर राही-भोपाल फिक्शन पर विमर्श तथा कहानी पाठ भी करेंगे।

उर्दू अकादमी की सचिव डॉ. नुसरत मेहदी ने इस आयोजन में शोधार्थी भी प्रतिभागिता कर सकते हैं, जिसके लिए निःशुल्क रजिस्ट्रेशन करा सकते हैं। साथ शहर के सभी लेखकों, रचनाकारों, साहित्यकारों, शायरों से उपस्थित होने की अपील की है।



सेना को दलों के ‘दलदल’ से दूर रखना ही उचित

टाइम्स ऑफ़ इंडिया में संदीप अधवार्व्यु का कार्टून।
टाइम्स ऑफ़ इंडिया में संदीप अधवार्व्यु का कार्टून। - साभार
टाइम्स ऑफ़ इंडिया में संदीप अधवार्व्यु का कार्टून।
टाइम्स ऑफ़ इंडिया में संदीप अधवार्व्यु का कार्टून। – साभार

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में इन दिनों चुनावी हलचल क्या चल रही है गोया सत्ता के दावेदार सभी राजनैतिक दल अपने तुरूप के पत्ते इस्तेमाल करने की कोशिश में लगे हुए हैं। राजनैतिक दलों की इस घिनौने घमासान का प्रभाव हमारे देश की सेना पर क्या पड़ रहा होगा हमारा समाज राजनेताओं के इस प्रकार के गैरजि़ मेदाराना वक्तव्यों से कितना प्रभावित हो रहा होगा इस बात की किसी को कोई फ़िक्र नहीं है। सब की निगाहें सि र्फ इस बात पर टिकी हैं कि ऐसे कौन से हथकंडे अपनाए जाएं अथवा जनता के बीच जाकर ऐसे कौन से शोशे छोड़े जाएं जिनसे इनकी लोकप्रियता बढ़ सके और जनता इनपर भरोसा करते हुए किसी प्रकार इन्हें सत्ता की चाबी सौंप दे। अपने इन्हीं प्रयासों के तहत कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहली बार लखनऊ में आयोजित रावण दहन कार्यक्रम में शरीक हो रहे हैं तथा अपने संबोधन में जय श्री राम और जय जय श्री राम के उद्घोष कर कुछ विशेष संकेत दे रहे हैं।

तनवीर जाफरी,लेखक एवं स्तंभकार
तनवीर जाफरी,लेखक एवं स्तंभकार

कोई भारतीय सेना द्वारा गत् 29 सितंबर को नियंत्रण रेखा पर की गई सर्जिकल स्ट्राईक को इस प्रकार पेश कर रहा है गोया प्रधानमंत्री या उनके दल के नेताओं ने यह आप्रेशन अंजाम दिया हो। इस आशय की प्रचार सामग्री भी उत्तर प्रदेश में देखी जा रही है। कोई नेता इस चुनावी अवसर को दलित उत्पीडऩ के मुद्दों को उछालने का सुनहरा अवसर समझे हुए है तो कोई अल्पसं यक मतों को अपनी ओर आकर्षित करने की जी तोड़ कोशिश में लगा हुआ है। ज़ाहिर है इस प्रकार के भावनात्मक मुद्दों में देश व समाज से जुड़ी मु य समस्या अर्थात् विकास,शिक्षा,स्वास्थय, रोज़गार व मंहगाई जैसी बातें कहीं पीछे छूट जाती हैं। यहां तक कि जनता नेताओं से उनके द्वारा किए गए वादे न पूरे करने जैसे महत्वपूर्ण सवालों को भी पीछे छोड़ देती है और ऐसे ही भावनात्मक मुद्दों में उलझकर रह जाती है।

29 सितंबर को हमारे देश के बहादुर जवानों ने नियंत्रण रेखा के समीप पाकिस्तान की सीमा के भीतर जाकर कई आतंकी ठिकानों को नष्ट किया। इस आप्रेशन में दर्जनों आतंकियों के मारे जाने की भी खबर है।

भाजपा के पोस्टर पर सैनिक
भाजपा के पोस्टर पर सैनिक

इस सर्जिकल स्ट्राईक के फौरन बाद पाकिस्तान ने ऐसी किसी कार्रवाई का खंडन किया तथा पाक अधिकृत कश्मीर के जिन सीमावर्ती क्षेत्रों में यह कार्रवाई हुई बताई जा रही थी उन क्षेत्रों में अंतर्राष्ट्रीय मीडिया का दौरा कराया। और यह जताने की कोशिश की कि भारत द्वारा किए जा रहे सर्जिकल स्ट्राईक के दावे गलत हैं और भारतीय सेना ने सीमा पार नहीं की है। भारत में भी इस विषय पर राजनीति होनी शुरु हो गई। जैसे ही सर्जिकल स्ट्राईक की सैन्य कार्रवाई की खबर सैन्य ऑप्रेशन के डीजीएमओ लेफ्टिनेंट जनरल रणवीर सिंह द्वारा देश और दुनिया को मीडिया के माध्यम से दी गई उसी समय सत्तारूढ़ दल की ओर से मोदी समर्थकों द्वारा नरेंद्र मोदी का छप्पन ईंच का सीना याद किया जाने लगा। गोया यह आप्रेशन सेना ने नहीं बल्कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा या भाजपा के कार्यकर्ताओं द्वारा किय गया हो। पिछले दिनों देश के रक्षामंत्री ने भी सर्जिकल स्ट्राईक का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देने तथा रक्षामंत्री के नाते स्वयं लेने की कोशिश की। जबकि वास्तव में इस ऑपे्रशन का पूरा श्रेय केवल हमारे देश की सेना को ही जाता है और जाना चाहिए। रक्षामंत्री मनोहर पारिकर ने यह भी कहा कि इस प्रकार की सर्जिकल स्ट्राईक पहली बार की गई है।

उधर देश में सबसे लंबे समय तक राज करने वाली कांग्रेस पार्टी ने सरकार के इन दावों को झृठा व गैर जि़ मेदाराना करार देते हुए यह याद दिलाया कि ऐसी सर्जिकल स्ट्राईक कांग्रेस के शासनकाल में पहले भी होती रही हैं परंतु सैन्य कार्रवाई होने के नाते पार्टी ने कभी इसका श्रेय लेने का प्रयास नहीं किया। न ही इन कार्रवाईयों का ढिंढोरा पीटकर इनका चुनावी लाभ उठाने की कोशिश की गई। कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सिंह सुर्जेवाला ने एक सितंबर 2011, 28 जुलाई 2013 और 14 जनवरी 2014 जैसी कुछ महत्वपूर्ण तिथियां भी याद दिलाईं जब सेना द्वारा पाकिस्तानी सीमा में सर्जिकल स्ट्राईक्स अंजाम दी गई थी। परंतु रक्षामंत्री बार-बार यही कह रहे हैं कि 29 सिंतबर से पहले कभी कोई सर्जिकल स्ट्राईक नहीं हुई और कांग्रेस जिसे सर्जिकल स्ट्राईक बता रही है वह बार्डर एक्शन टीम की कार्रवाई है। गोया पारिकर के कहने का भी यही आशय है कि इसका श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही जाता है। हालांकि वे इसके श्रेय के लिए देश की 127 करोड़ जनता व भारतीय सेना का नाम भी ले रहे हैं।

अब ज़रा दो मई 2011 के दिन को भी याद कीजिए जब विश्व का सबसे दुर्दांत आतंकवादी ओसामा बिन लाडेन पाकिस्तान के एबटाबाद स्थित बिलाल टाऊन में अमेरिकन नेवी के सील कमांडोज़ नामक विशेष दस्ते के हाथों एक बड़े सर्जिकल ऑप्रेशन में मारा गया था। उस समय से लेकर आज तक किसी ने भी उस ऑप्रेशन का श्रेय न तो ओबामा को देने की कोशिश की न ही ओबामा ने स्वयं इसका श्रेय लेने का प्रयास किया न ही ओबामा की डेमोक्रेटिक पार्टी ने कभी इस ऑप्रेशन का राजनैतिक लाभ उठाने के लिए अमेरिका में पोस्टर छापे गए। बजाए इसके आज दुनिया की ज़ुबान पर केवल एक ही नाम हैऔर वह है अमेरिकन सील कमांडोज़ का नाम जिसे दुनिया जानती भी है और इस ऑप्रेशन का श्रेय भी उसी विशेष सैन्य दस्ते को देती है। इसके अलावा जहां तक इस प्रकार के प्रचार का प्रश्र है कि 29 सितंबर की सर्जिकल स्ट्राईक पहली बार हुई है तो ऐसा प्रचारित करने वालों को देश की आज़ादी से लेकर अब तक के इतिहास की ऐसी अनेक घटनाओं को याद करना चाहिए जो देश में पहली बार घटी हों। उदाहरण के तौर पर भारत ने 1971 में पहली बार पाकिस्तानी सेना को इतने बड़े पैमाने पर आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर किया था। पहली बार भारत ने पाकिस्तान के दो टुकड़े कर डाले थे तथा अमेरिका की गीदड़ भभकी की परवाह भी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने नहीं की थी। परंतु बावजूद इसके कि 1971 के बाद के चुनावों में इंदिरा गांधी की लोकप्रियता देश और दुनिया में का फी बढ़ी परंतु इंदिरा गांधी या कांग्रेस पार्टी ने पाकिस्तान को विभाजित किए जाने या लगभग एक लाख पाक सैनिकों के समर्पण का श्रेय लेने की कोशिश कभी नहीं की। बजाए इसके देश उस समय के सेना के हीरो फील्ड मार्शल जनरल मानेक शाह तथा जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के नामों की ही जय-जयकार करता रहा और आज भी करता रहता है। जबकि अटल बिहारी वाजपेयी ने इसी समय इंदिरा गांधी के साहसिक फैसले की तारी फ करते हुए उनकी तुलना देवी दुर्गा से की थी। यह किसी कांग्रेसी नेता द्वारा दी गई उपमा नहीं थी।

आज जिस पाकिस्तान पर की गई सर्जिकल स्ट्राईक का श्रेय लेने की कोशिश की जा रही है उस पाकिस्तान का प्रधानमंत्री कभी भारतीय प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण के समारोह में शरीक नहीं हुआ। परंतु नरेंद्र मोदी ने पहली बार नवाज़ शरी फ को भारत बुलाकर एक नई परंपरा शुरु की। शाल और साड़ी का आदान-प्रदान किया गया। हद तो यह है कि उनकी नातिन की शादी तक में मोदी जी बिना किसी घोषणा के जा पहुंचे। भाजपा नेताओं को यह भी बताना चाहिए कि इस प्रकार का प्रेम प्रदर्शन व घनिष्टता का व्यवहार भी पाकिस्तान के साथ किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने पहली बार दिखाया है। इसकी वजह क्या है और किन मजबूरियों के तहत यह सब किया गया यह भाजपा नेताओं अथवा नरेंद्र मोदी जी को स्वयं मालूम होगा। परंतु कुछ लोगों का यह मत है कि यह सारी कवायद व्यवसायिक घरानों के कहने पर की गई तथा इन रिश्तों का म कसद चंद व्यवसायिक घरानों को लाभ पहुंचाना था। सोचने की बात है कि जिस पाकिस्तान द्वारा पाले-पोसे गए आतंकी आए दिन हमारे देश की सेना, हमारे देश के हितों को यहां के बेगुनाह नागरिकों को निशाना बनाते रहते हों उस पाकिस्तान के हुक्मरानों के साथ कूटनैतिक व राजनैतिक रिश्ते तो किसी हद तक ठीक परंतु व्यक्तिगत रिश्तों की पींगें बढ़ाने का रहस्य आखिर क्या है?

सभी राजनैतिक दलों को राष्ट्रहित में इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए कि वे धार्मिक व जातीय विषयों को,मंदिर-मस्जिद,चर्च व गुरुद्वारों को,भारतीय सेना अथवा पुलिस या अर्धसैनिक बलों की कार्रवाईयों को राजनैतिक जामा पहनाने की कोशिश न किया करें। इन सब बातों के बजाए इनका ध्यान अपने चुनावी वादों को पूरा करने पर ही केंद्रित रखना चाहिए। सर्जिकल स्ट्राईक का श्रेय लेने और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सीने की चौड़ाई छप्पन ईंच प्रमाणित करने के बजाए यह बताना चाहिए कि दो वर्ष सत्ता में बीत जाने के बावजूद आम लोगों के बैंक खातों में पंद्रह लाख रुपये क्यों नहीं पहुंचे,मंहगाई की मार पहले से अधिक क्यों पडऩे लगी, देश का सांप्रदायिक सद्भाव इस हद तक क्यों बिगड़ गया है? बेरोज़गारी क्यों कम नहीं हो रही है? आदि।

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