उदय प्रकाश
अभी तो कोई भी टीवी चैनल खोलिये, कूड़ा-कचरा बीन कर किसी तरह अपनी आजीविका चलाने वाले लोगों के धर्मांतरण को लेकर बहस चल रही है।
एक कोई अज्ञात-सा, बजरंगी लोकल नेता का चेहरा हर चैनल में जगमगा रहा है।
सारे स्टार सेलिब्रिटीज़, क़ीमती कपड़ों और खाये-अघाये चेहरों से इस बहस में हल्ला मचा रहे हैं।
यह आज की राजनीति का असल चरित्र है।
यह पूरा फ़ंडा राजनीति और मीडिया का घाघ और शातिर खेल है।
राजनीति से हट कर अगर समाजवैज्ञानिक तथ्यों और लगातार छुपाए जाते आँकड़ों को खोजें तो जो सच उजागर होगा, उससे इन सभी ‘ धर्मांतरणवादियों’ का छद्म सामने होगा।
तथ्य यह है कि शहरीकरण, परिवहन के विकास, सड़क के बनने और दूसरे इन्फ़्रास्ट्रक्चर के विकास, पॉपुलर कल्चर के बाज़ार का वर्चस्व, प्लास्टिक और कैलेंडर-संस्कृति के बाज़ार , होली, दीवाली, रामनवमी, गणेश चतुर्थी, नवरात्रि, जागरण आदि तथा हिंदू तीर्थस्थलों की सस्ती प्रायोजित यात्राओं की बढ़ोत्तरी, सरकार द्वारा इस दिशा में किये जाते प्रयास के साथ-साथ पेशेवर ब्राह्मणवादी पुरोहित वर्ग की प्रोफ़ेशनल ग्रासरूट सक्रियता, मीडिया-राजनीति, प्रशासन और भाषाई संस्थानों में कुछ ख़ास जातियों का आधिपत्य …. इन सबको जोड़ कर देखें तो सच यह सामने आयेगा कि सबसे बड़ा ‘धर्मांतरण’ स्वयं हिंदू धर्म के पाले में ही हो रहा है।
यह एक सामाजिक संघटना है। भारतीय समाज के आधुनिकीकरण का बुनियादी चरित्र।
छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा से लेकर उत्तर-पूर्व तक यही हो रहा है।
मंदिरों के बनने के वार्षिक डेटा ज़रा कोई इकट्ठा करे।
ये अज्जू चौहान या रुपये को खुदा मानने वाले ‘धर्मांतरण’ के पुराने ‘हीरो’ और पिछली अटल सरकार के मंत्री स्व. दिलीप सिंह ज़ू देव आदि तो फुटकर लोग हैं।
१९४७ के बाद कितने आदिवासी ‘ हिंदू’ हुए, क्या कोई उस विशाल संख्या पर ग़ौर करेगा ?
जो हो रहा है, वह तो चुपचाप हो रहा है।
आगरा जैसी घटनाओं के हास्यास्पद शिगूफे जनता का ध्यान दूसरी बड़ी समस्याओं से हटाने के लिए है।
यह इसलिए कि मौजूदा सरकार हर वायदे से मुकर रही है।
हर रोज़ वह असफल हो रही है।
ऐसा मेरा निजी मत है।