वरिष्ठ पत्रकार ‘मुकेश कुमार’ की किताब ‘कसौटी पर मीडिया’ का विमोचन कल दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में हुआ. यह किताब साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ में छपे लेखों का संग्रह है. किताब का विमोचन वरिष्ठ पत्रकारों ने किया. किताब का विमोचन वरिष्ठ पत्रकारों और बुद्धिजीविओं ने किया. किताब के लेखक ‘मुकेश कुमार’ किताब पर अपनी बात रखते हुएस्वर्गिये ‘राजेन्द्र यादव’ को लेकर भावुक दिखे. उन्होंने कहा कि यह किताब राजेंद्र यादव की वजह से ही आ पाया. आज उन्हें यहाँ होना चाहिए था.
किसने क्या कहा-
1- ओम थानवी, कार्यकारी संपादक, जनसत्ता
अगर मीडिया की आलोचना की जाती है हो तो ये नकारात्मक नहीं है। अँधेरों की बात अगर अँधेरों से निकलने के लिए की जा रही है तो इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है। इसे सकारात्मक कर्म माना जाना चाहिए। मीडिया पर बहुत सारी किताबें हैं और कोई भी किताब लिख रहा है। लेकिन मैं कहना चाहूँगा कि मीडिया की आलोचना की दृष्टि से ये किताब ख़ास है और इसके लिए मुकेश बधाई के पात्र हैं। मुकेश जी की इस किताब में मुझे एक अच्छी बात ये दिखी कि इसकी भाषा बहुत अच्छी है। मुकेश जी जितने शालीन हैं उतनी ही शालीनता उनकी भाषा में भी नज़र आती है। कड़ी से कड़ी बात वे संयम से कहते हैं। मुकेश जी ने दूरदर्शन और प्रिंट माध्यमों पर टिप्पणियाँ लिखी हैं और इंटरनेट भी उनकी चिंता का विषय रहा है। मेरा उनसे आग्रह है कि आगे के लेखन में वे रेडियो पर भी लिखें, क्योंकि वह बहुत ही शक्तिशाली माध्यम है और उसकी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। किताब में मुकेश जी ने दूरदर्शन के बारे में बहुत ही संतुलित ढंग से लिखा है। उन्होंने उसकी खूबियाँ भी बताई हैं और उस पर सरकारी नियंत्रण के दुष्प्रभाव की आलोचना भी की है।मीडिया के विस्तार को देखते हुए देश में मीडिया की शिक्षा की बेहद ज़रूरत है। इस दृष्टि से इस किताब को मैं बहुत महत्वपूर्ण मानता हूँ।
किसने क्या कहा-2- एन. के. सिंह, प्रधान संपादक, लाइव इंडिया एवं पूर्व अध्यक्ष, बीईए
मुकेश कुमार की ये किताब मैं पूरी पढ़ गया। उन्होंने बहुत अच्छा लिखा है और सही भी। लेकिन मुझे मीडिया पर एक भी सकारात्मक लेख नहीं मिला। उन्होंने सात साल तक मीडिया की समीक्षा का काम किया मगर क्या इस दौरान मीडिया ने एक भी सकारात्मक काम नहीं किया।
लोकतंत्र में विपक्ष के नज़रिए को आत्मसात किया जाता है, हमें मुकेश जी की बात को भी आत्मसात करना चाहिए।
ये कहना सही नहीं होगा कि टीवी वाले सब कुछ टीआरपी के लिए करते हैं। मीडिया के लिए काफी हद तक बाज़ार भी ज़िम्मेदार है।
किसने क्या कहा-3- आनंद प्रधान, प्राध्यापक, आईआईएमसी
राजेंद्र यादव जी ने मीडिया के महत्व को समझा और मुकेश जी को उसकी समीक्षा का दायित्व सौंपा। मुकेश जी भी कसौटी पर खरे उतरे हैं। उन्होंने इनसाइडर के तौर पर मीडिया को देखा है और एक आउटसाइडर के नज़रिए से भी उसकी समीक्षा की है।मुकेश जी की क्रिटिसिज्म इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि उससे मीडिया में काम करने वाले उन लोगों को ताक़त मिलती है जो विभिन्न कारणों से घुटन महसूस कर रहे हैं।इस तरह की आलोचना की मीडिया शिक्षा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। मीडिया को कैसे देखें, उसको प्रैक्टिकली कैसे एनालाइज़ करें इसकी शिक्षा लोगों को देना बहुत ज़रूरी है। मीडिया को कैसे देखें ये समझ पैदा करना ज़रूरी है। दर्शक या पाठक पैसिव बना रहे और जो भी जैसा भी उसे दिया जाए उसे ग्रहण करता रहे ये ठीक नहीं है।लोकतंत्र में कोई भी संस्था सवालों के बाहर नहीं हो सकती। मीडिया के अंदर भी लोकतांत्रिक विमर्श ज़रूरी है। मीडिया हमारे समाज और जीवन को गहराई से प्रभावित कर रहा है इसलिए उस पर आलोचनात्क ढंग से बात करना ज़रूरी है।
किसने क्या कहा-4- परवेज़ अहमद- संपादक (भारत), एआरवाई न्यूज़, पाकिस्तान
मुकेश कुमार ने मीडिया उद्योग के हर आयाम को करीब से देखा समझा है इसलिए वे मीडिया में आए परिवर्तनों को ज़्यादा विश्वसनीय तरीके से लिख सके। ऐसा करते हुए उन्होंने अतिरिक्त साहस का परिचय दिया क्योंकि अपने ही पेशे की ख़ामियों को बेबाकी से लिखना सबके लिए आसान नहीं है। मुझे लगता है कि मुकेश कुमार ने इस पूरे दौर में पैदा हुई मीडिया की हर आहट, उसकी हर करवट और हर दिन पदलते उसके पैंतरों को अपनी नज़रों से ओझल नहीं होने दिया है। फिर चाहे वह स्टिंग ऑपरेशन की सचाई हो, साम्राज्यवाद और बाज़ारवाद का दबदबा हो, फिल्मी चकाचौंध हो, दंगा-फ़साद हो या चमत्कारियों का संसार हो। हर चीज़ को उन्होंने ईमारदारी से परखा है और अपनी साफ़ राय दी है।मुकेश कुमार बरसों ख़बरिया चैनलों का हिस्सा रहे हैं, मुखिया भी रहे हैं। उनके सामने भी रोज़मर्रा की उलझनों में फँसने का ख़तरा था, लेकिन इस किताब की एक खूबी ये भी है कि इनमें व्यापक रुचि के मुद्दों को उठाया गया है और एक बड़े कैनवास पर उनका विश्लेषण किया गया है।
किसने क्या कहा-5- दिलीप मंडल, मैनेजिंग एडिटर, इंडिया टुडे
मुकेश जी ने मीडिया के एक पूरे कालखंड को दर्ज़ किया है। इसके लिए मैं उनको बधाई देता हूँ। मैं चाहता हूँ कि मीडिया आलोचना का और विस्तार हो, क्योंकि इस दिशा में पश्चिम के मुकाबले हमारे यहाँ कुछ भी काम नहीं हो रहा।मीडिया में कोई स्वर्ण युग नहीं था। चंद संपादक देश का एजेंडा तय करते थे। पत्रकारिता का स्वर्ण युग कभी नहीं था और शानदार पत्रकारिता कभी भी नहीं हो रही थी। आज पत्रकारिता मे पहले के मुक़ाबले चाटुकारिता घट रही है।मीडिया में उपभोक्ताओं का एमपॉवरमेंट हुआ है। वे ज़्यादा शक्तिशाली हुए हैं।
भारत में मीडिया शोध और मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में अभी बहुत कुछ करने की ज़रूरत है।
किसने क्या कहा-6- शीबा असलम फ़हमी, लेखिका एवं पत्रकार
मुकेश जी ने मीडिया में आई खराबियों को बहुत खूबी से अपनी किताब में उजागर किया है। उन्होंने बहुत दुस्साहस दिखाया है। उन्होंने पत्रकारिता की बेरहम चीर-फाड़ की है।
मैं इससे सहमत नही हूँ कि उन्होंने नकारात्मकता से काम लिया है, बल्कि मैं तो मानती हूँ कि उन्हें और रूदलेस (निर्ममता) होना चाहिए था, क्योंकि मीडिया की जो हालत है उसमें आज इसी की ज़रूरत है।