मन की बात में स्वाभाविक रुप से जो भी पत्र,संदेश आते होंगे,कोई न कोई व्यक्ति ही लिखता-भेजता होगा लेकिन कार्यक्रम में वो सबके सब जातिवाचक संज्ञा हो जाते हैं..जैसे आज जिन भी किसानों से सवाल पूछे, अपनी समस्या व्यक्त की,सबके सब जातिवाचक हो गए और प्रधानसेवक ने उन्हें इसी रूप में संबोधित किया.
आप चाहें तो ये तर्क दे सकते हैं कि सवाल पूछनेवाले की संख्या हजारों में होती होगी जबकि समय बहुत ही कम..ऐसे में इनका नाम लिया जाना कहां संभव है ?
ये तर्क व्यावहारिक रूप से बिल्कुल सही जान पड़ता है लेकिन जिस किसी ने भारत के रेडियो के इतिहास की एबीसी भी पढ़ी होगी, उन्हें ये तर्क न केवल बेहद खोखली बल्कि किसी गहरी साजिश का हिस्सा लगेगा. हम सबने झुमरी तिलैया,मजनूं का टीला और देहरादून को न केवल रेडियो के जरिए एक अलग तरीके से जाना बल्कि फरमाईशी गीतों के दौर से जिनके नाम से गाने बजाए गए, हम समझ पाए कि अमित-सुमित,बबली-प्रियंका जैसे नाम इस देश में लाखों लोगों के हो सकते हैं लेकिन रेडियो पर आते ही ये नाम अगले एक-डेढ़ मिनट के लिए व्यक्तिवाचक यानी खास हो जाते हैं.
एफएम गोल्ड,रेनवो से लेकर निजी एफएम चैनलों के फरमाईशी कार्यक्रमों और यहां तक कि लॉएलिटी टेस्ट जैसे शो पर गौर करें, नाम लिया जाना रेडियो का कितना अह्म हिस्सा है. ये नाम थोक के भाव होते हैं लेकिन शो के दौरान कुतुबमीनार, गंगा और स्वयं नरेन्द्र मोदी जैसे व्यक्तिवाचक संज्ञा हो जाते हैं.
कहने को भले ही प्रसार भारती के गठन के बाद रेडियो को स्वायत्त माध्यम होने के नगाड़े पीटे गए लेकिन सच बात तो ये है कि अपने इतिहास में जो रेडियो पहले ही साल से लोगों की काबिलियत और एफर्ट से खड़ा माध्यम था, उस पर पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग का ठप्पा लगाकर सरकार और उनकी मशीनरी ने हथिया लिया और बाद में ये ऑल इंडिया रेडियो कैसे ऑल इंदिरा रेडियो हो गया, हम सब जानते हैं. लेकिन इन सबके बावजूद कार्यक्रम के ढांचे में कुछ हद श्रोताओं के हिस्से की लोकतांत्रिकता बची रही. मन की बात इसे भी ध्वस्त करने पर आमादा है और इस लिहाज से ये ऑल इंदिरा रेडियो की अगली कड़ी है.
नरेन्द्र मोदी के बोले जाने के पक्ष से आप चाहें जितनी तारीफ कर लें लेकिन रेडियो के उन कार्यक्रमों के ढांचे के हिसाब से देखें जिसमे श्रोताओं की भागीदारी रही है और मन की बात में तो ये श्रोता पहले नागरिक हैं तो ये कार्यक्रम श्रोता आधारित कार्यक्रम के दायरे को बहुत सीमित करके इसका एक पक्ष बिल्कुल गायब कर देता है.
एक बहन ने सवाल किया, हमारे एक किसान भाई ने बताया है, एक छात्र ने पूछा है..ये जातिवाचक संज्ञा का प्रयोग करने के बजाय क्या ये जरूरी नहीं है कि बाकायदा उस महिला का, किसान का,छात्र का, उसके इलाके का जिक्र करते हुए नाम शामिल किए जाएं. देश का प्रधानमंत्री जब किसी माध्यम पर होता है तो उसके आगे दोहरी जिम्मेदारी होती है- एक तो उसे देश के जनतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करनी होती है और दूसरा तमाम दवाबों के बीच रहकर माध्यम ने जो लोकतांत्रिक ढांचे विकसित किए हैं, उन्हें भी बचाना होता है.प्रधानमंत्री मन की बात के जरिए कितना लोकतांत्रिक मूल्यों को सहेज पा रहे हैं, ये अलग मसला है लेकिन ये जरूर है कि माध्यम ने जो अर्जित किए, उसे वो ध्वस्त कर रहे हैं.
ऐसा करते हुए वो रेडियो के उस दौर को भूल रहे हैं जब अपना नाम शो में आने के लिए लोग महीने-महीने इंतजार करते, उनका खत रेडियो पर पढ़ा गया, ये किसी डिग्री से कम न होती और अगर फोनो है तब वो प्रस्तोता से बाकायदा शिकायत करते कि आपको कई दिनों से ट्राय कर रहा/रही हूं, आपका फोन लगता नहीं. ऐसे में नरेन्द्र मोदी उनका नाम शामिल करते हैं तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि सुविधा और साधन मुहैया न कराए जाने के वाबजूद संबंधित कॉलर कितनी राहत महसूस करेगा और जब सरकार का ध्येय लोगों को पहले वर्चुअली अच्छे दिन का एहसास कराना है तब तो ये और भी जरूरी है..लेकिन नहीं,प्रधानसेवक ने अगर इस तरह से श्रोताओं को संबोधित करना शुरु किया, उसे पहचान देनी शुरु की तो बहुत संभव है कि मन की बात को एकतरफा कार्यक्रम और मन मुताबिक प्रभाव पैदा करने(manufacturing conscent) में असुविधा होगी..ये बहुत संभव है कि कोई बच्चा कविता के नाम पर उसी तरह की कोई पंक्ति दोहरा दे जो इंदिरा गांधी के जमाने में बाल कार्यक्रम में सुनायी थी- गली-गली में शोर है, राजीव गांधी चोर है..