पुस्तक समीक्षा : शायद ही कोई ऐसा हो जो मीडिया से आज परिचित न हो ! पहले मिशन, फिर प्रोफेशन और आज बाजारवाद के प्रभाव में मीडिया है। इन सब के बीच भारतीय मीडिया पर अक्सर मनुवादी मानसिकता का आरोप लगता रहा है। व्यवसाय में तबदील मीडिया पर जातिवाद, भाई-भतीजावाद आदि के आरोप भी लगते रहे हैं । सर्वे रिपोर्ट ने इसका खुलासा भी किया है। मीडिया में दलित हिस्सेदारी एवं दलित सरोकारों की अनदेखी सहित अन्य मुद्दों को लेखक-पत्रकार संजय कुमार ने अपनी सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘‘मीडिया में दलित ढूंढते रह जाओगे’’ में उठाया है। पुस्तक का शीर्षक खुद-ब-खुद वस्तुस्थिति को पटल पर ला खड़ा कर जाता है। यानी मीडिया में दलितों की हिस्सेदारी नहीं है। भारतीय मीडिया में दलितों के सवालों के प्रवेश पर अघोषित प्रतिबंध को किताब बेनकाब करता है।
प्रस्तुत पुस्तक संजय कुमार के मीडिया और दलित मुद्दों पर लिखे गये लेखों का संग्रह है। समसामयिक घटनाओं का उदाहरण और आंकड़ा देते हुए उन्होंने अपने लेखों को विस्तार दिया है। पुस्तक में दलित मीडिया से संबंधित चैदह आलेख हैं। दलित संवेदना को कविता में पिरोकर दलितों की आवाज बुलंद करने वाले ‘हीरा डोम’ को पुस्तक समर्पित किया गया है। आलेखों में हीरा डोम की 1914 में की गई दलित की शिकायत को आज भी प्रासंगिक बताया गया है। लेखक उदाहरण और आंकड़ों से बताते हैं कि अभी भी समाज में बराबरी और गैर बराबरी का जो फासला है उसके लिए द्विज ही जिम्मेदार हैं।
‘मीडिया में दलित ढूंढते रह जाओगे’ में सप्रमाण यह सिद्ध किया गया है कि मीडिया हाउसों पर उंचें पदों पर सवर्ण ही आसीन है और उन्होंने ऐसा चक्रव्यूह रच रखा है कि किसी दलित का या तो वहंा पहुंच पाना ही असंभव होता है। अगर किसी तरह पहुंच भी गया तो, टिक पाना मुश्किल है। संजय ने शोध आलेखों में चैंकाने वाले तथ्य दिए है। मीडिया में जाति के सवाल को लेकर प्रभाष जोशी और प्रमोद रंजन के बीच हुए बहस को पुस्तक में रखा गया है। वहीं ‘मीडिया भी जाति देखता है’ में मीडिया के जाति प्रेम को रेखांकित किया गया है।
पुस्तक में दलित सवालों की अनदेखी व दलितों से मुंह फेरती मीडिया को घेरने का प्रयास किया गया है। किस तरह से दलित आंदोलन को मीडिया तरजीह नहीं देता है, उसे भी उदाहरण के साथ प्रस्तुत किया गया है। मनुवादी भारतीय मीडिया के समक्ष दलित मीडिया को खड़ा करने की सुगबुगाहट को भी जोरदार ढंग से उठाया गया है। दलित पत्रकारिता पर प्रकाश डालते हुए, इसे खड़ा करने के प्रयासों पर चर्चा किया गया है। वर्षों से उपेक्षित दलितों के बराबरी के मसले को उठाते हुए बहस की संभावना तलाशी गयी है। बराबरी के लिए सरकारी प्रयासों पर विरोध और दलितों को मुख्यधारा से अलग रखने की साजिश को बेनकाब किया गया है।
सोशल मीडिया पर दलित विरोध को भी उदाहरण और तस्वीर के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। दलितों को सरकार की ओर से दी जाने वाली सुविधाओं का विरोध करते हुए सोशल मीडिया पर दलितों के प्रति भ्रामक सामग्री को रखते हुए, समाज के उस वर्ग को बेनकाब किया गया है जो नहीं चाहता कि दलित आगे आये। संजय ने समाज के सवालों को जोरदार, लेकिन सहज ढंग से रखा है। पुस्तक के लेखक स्वयं लम्बे समय से मीडिया से जुड़े हैं ऐसे में पुस्तक के लेखों में मीडिया में दलितों और दलित सवालों की अनदेखी पर सशक्त तरीके से कलम चलाई है। भाषा काफी सहज व सरल है। ‘‘मीडिया में दलित ढूंढते रह जाओगे’’ के तमाम आलेख सवर्णो के खिलाफ जाते हैं। हालांकि लेखक ने अपनी बात में साफ लिखा है कि उनका मकसद किसी जाति-धर्म-संप्रदाय को निशाना बनाना नहीं है बल्कि, भारतीय मीडिया पर उंची जाति का कब्जा जो शुरू से ही बरकरार रहा है उसे पाटते हुए बराबरी-गैरबराबरी के फासले को कम करना है। पुस्तक ने गंभीर मुद्दे को उठाया है बस देखना है कि यह बहस दे जाता है या फिर यह भी मनुवादियों की भेंट चढ़ जाता है ?
पुस्तक- “मीडिया में दलित ढूंढते रह जाओगे”
लेखक – संजय कुमार
पृष्ठ संख्या – एक सौ चार
मूल्य- रु॰ 70/-
प्रकाशक- सम्यक प्रकाशन,32/3, पश्चिमपुरी,नई दिल्ली-110063
email-budhdharam@bol.net.in
सरकारी नौकरियों में तो दलित आरक्षण के चलते घुस जाते है पर मीडिया हाउस को अपना धंधा चलाना है वहां आरक्षित नहीं काबिल लोग चाहिए पर दलित काबिल बनने की बजाय आरक्षण से ही सब कुछ पाना चाहते है|
यदि दलितों को इस क्षेत्र में घुसना है तो पहले अपनी क़ाबलियत निखारे फिर कहीं कोई भेदभाव है तो शिकायत करें|
पर सिर्फ इस वजह से कि वे दलित है तो उन्हें हेड बना दिया जाय हर जगह संभव नहीं !!