मीडियाखबर पर प्रकाशित प्रमोद जोशी की ब्लॉग-पोस्ट “हिन्दी के मीडिया महारथी” के जरिए समाचारा फॉर मीडिया जो कि एक्सचेंज फॉर मीडिया की सिस्टर वेंचर है के कार्यक्रम मीडिया बारात( जो कि कमर वहीद नकवी,एन के सिंह और राहुल देव जैसे वरिष्ठ मीडियाकर्मा के हस्तक्षेप से बनते-बनते बचा) में हुए रियलिटी शो के बारे में जानने का मौका मिला. पूरी पोस्ट से गुजरने के बाद मुझे इस वेबसाइट के आका अनुराग बत्रा के साथ अभी तक के अकेले के मुखामुखम का ध्यान आया जिसमे उन्होंने एक बार लगभग डपटते हुए और दूसरी बार उपहास में मेरी बात काटने की कोशिश की. उस घटना का संबंध इस कार्यक्रम के मिजाज और तमाम मीडिया दिग्गजों को जुटाकर बारात सजाने की अनुराग बत्रा की इस कोशिश को समझने में मदद करेगा इसलिए उसे फिर से याद करना जरुरी है.
दूरदर्शन के कार्यक्रम शनिवारी चर्चा में जिसे कि नीलम शर्मा प्रस्तुत करती है इस बात पर बहस हो रही थी कि ट्राय ने जो 12 मिनट के विज्ञापन की समय सीमा निर्धारित की है, उससे मीडिया कार्यक्रम पर क्या असर पड़ेगा और उसके इस फैसले को किस तरह से देखा जाए ? हालांकि ट्राय ने ये निर्देश बहुत पहले जारी किए थे और बहुत पहले से इसका उल्लंघन भी होता आया है. जाहिर है, अनुराग बत्रा मीडिया इन्डस्ट्री की ही तरफदारी करते और मैंने दर्शक के पक्ष से अपनी बात रखी थी जिसमे मेरा तर्क सिर्फ इतना था कि जब सरकार पूरे सिस्टम को डिजिटलाइज कर रही है और देश के करोड़ों रुपये इस पर खर्च हो रहे हैं, ऐसे में चैनलों को विज्ञापन पर अंध निर्भरता के बजाय सब्सक्रिप्शन के जरिए भी अपने राजस्व के विस्तार के बारे में सोचना होगा और ऐसा तभी संभव है जबकि वो दर्शकों के मिजाज, अभिरुचि और उनके पक्ष से कार्यक्रमों के बारे में सोचे. अनुराग बत्रा को मेरी इस बात से असहमति में चाहे जो कुछ भी कहना था, कहते लेकिन उन्होंने अपने तर्क पेश करने के बजाय दो बातें कही- एक तो ये कि इनके यानी मेरे जैसे कई फ्रस्ट्रेटेड जर्नलिस्ट हैं जो कि मीडिया की वेवजह आलोचना करते हैं और दूसरा की मुझे मीडिया इन्डस्ट्री के बारे में कोई जानकारी नहीं है और वनिता कोहली की किताब द इंडिया मीडिया बिजनेस पढ़नी चाहिए..बाहर आकर जो कहा वो कम हास्यास्पद और अफसोसजनक नहीं था- आपकी शादी हो गई ? मैंने कहा- नहीं. तो कर लीजिए, शादी नहीं हुई है तभी आप इस तरह जोश में बात करते हैं. वैसे मैंने टॉक शो में जो कुछ भी कहा,आपको पर्सनली नहीं लेनी चाहिए और हमें इतना कहकर आगे बढ़ ही रहे थे कि दर्शक दीर्घा में बैठी दर्जनों ऑडिएंस ने उन्हें घेर लिया और सवाल-जवाब करने लग गई कि आप हमें इस तरह मूर्ख कैसे समझते हैं,आदि-आदि ?
अनुराग बत्रा उस शो में और शो के बाद हमे ये समझाने की कोशिश कर रहे थे कि मीडिया बिजनेस है, मुनाफा और लागत का व्यवसाय है और इसे कोई भी शख्स घाटे के लिए नहीं चलाएगा..इतनी बेसिक सी बात हम भी समझते हैं और आपलोगों को अपनी ये समझ साझा करने के लिए साढ़े तीन सौ पेज की किताब( मंडी में मीडिया) लिखी. लेकिन उस वक्त भी मेरा यही तर्क था कि अगर ये आपके लिए व्यवसाय है तो उसे बिजनेस की तरह चलाओ न, उसमें अलग से सरोकार और समाज कल्याण का पुछल्ला लगाकर सुविधाएं लेने में क्यों जुटे रहते हो ? प्रमोद जोशी ने अपनी पोस्ट में प्रकारांतर से यही कहा कि कारोबार की बात को भी पेश करने के लिए आदर्शों के रेशमी रुमाल में लपटने की जरुरत पड़ जाती है. इस बारातनुमा कार्यक्रम में परिचर्चा के लिए जो मुद्दे रखे गए, अनुराग बत्रा के रुझान,नीयत और उनकी वेबसाइट से कहीं मेल नहीं खाते हैं लेकिन वही विषय रखे गए जिन पर बात करने की मनाही उन्होंने उस शनिवारी चर्चा में हमसे की. ऐसे में सवाल है कि धंधेबाज मीडिया के भीतर के आदर्श( जो कि तेजी से खत्म हुए हैं लेकिन विज्ञापन तत्व में इस्तेमाल किए जाते रहे हैं) का किस हद तक दोहन करेंगे. क्या जो पाठक 364 दिन एक्सचेंज फॉर मीडिया और समाचार फॉर मीडिया जैसे मीडिया कारोबारी वेबसाइट से गुजरता है, उसे समझ नहीं आता कि एक दिन जो सरोकार के मुकर्रर किए गए हैं, उसके पीछे की स्ट्रैटजी क्या है ? क्या कोक,डियो और कंडोम के विज्ञापनों में सामाजिक सरोकार जिस फ्लेवर में आते हैं, उनका अंदाजा दर्शकों को नहीं होता है ? फिर ये पाखंड़ क्यों और आखिर क्यों तमाम धंधे के तर्कों के बावजूद उन्हीं तर्कों और आदर्श स्थितियों की जरुरत पड़ जाती है जिसे कि प्रमोद जोशी या हम जैसे “फ्रस्ट्रेटेड जर्नलिस्ट” उठाते हैं तो बकवास लगने लग जाता है? अगर अनुराग बत्रा में इस इन्डस्ट्री को लेकर इतनी गहरी समझ है और इस बात में गहरी आस्था है कि इस बाराती में मीडिया के कुछ चमकीले और सरोकारी नामों को बुलाकर इस इन्डस्ट्री के सटोरिए,धंधेबाज और तीनतसिए को सेट कर लेंगे तो फिर पत्रकारिता के प्रश्न जैसे भारी-भरकम( और अगर ऐसे शब्द इनकी वेबसाइट पर लगातार तैरने लगे तो शायद इनकी ऑफिस की सिस्टम हैंग कर जाए) मुद्दों की क्यों जरुरत पड़ जाती है ? क्या वो इस बात से अंजान हैं कि हिन्दी पत्रकारिता और टीवी की दुनिया चाहे पैसे के पीछे कितनी भागने लगे, बिना सामाजिक प्रतिबद्धता और सरोकार के सवाल से जोड़कर उसमें काम करनेवाले लोगों को नहीं जुटाया जा सकता ? रही बात पुष्पेश पंत जैसे लोगों की तो गाय के दूध में आप दिल्ली जल बोर्ड की टैंकर भी डाल देंगे तो लोग उसे दूध ही कहेंगे, बर्शते की उस पानी में उजास दिखाई दे तो ऐसे नामों की समाज में बस इतनी भूमिका है कि पानी को दूध की संज्ञा दिलवाने में मदद कर सकें. बहरहाल
इस कार्यक्रम में भाषा के सवाल पर राहुल देव और रैंकिग को लेकर कमर वहीद नकवी और एन.के सिंह ने जो आपत्ति दर्ज की वो उतना ही जरुरी है जितना कि कई बार इनके तर्क पर आम दर्शकों और मीडिया अध्येताओं का लगातार असहमत होते रहना. अगर कल वो ऐसा नहीं करते तो अनुराग बत्रा पूरी हिन्दी मीडिया इन्डस्ट्री पर बारात का ठप्पा लगा चुके होते( वैसे भी अपने अनुभव से यही समझा कि उन्हें शादी-समारोह में अच्छी-खासी दिलचस्पी है) और अपने निवेशकों के बीच ताल ठोंकने में कामयाब हो जाते- देखो जी, सबको एक छतरी के नीचे ले आया न, अब कल्लो बात. लेकिन इसका विरोध करके इन वरिष्ठ मीडियाकर्मियों ने न केवल एक बेहतर और मजबूत संकेत दिया है कि अभी हिन्दी मीडिया में ऐसा समय नहीं आया है कि आप जो चाहो,जैसे चाहो कर लोगे बल्कि उन मेनस्ट्रीम मीडियाकर्मियों के उस दुमच्छलेपन पर भी जबरदस्त वार किया है जो आए दिन हम जैसे को अदना-पदना करार देकर फोन और एसएमएस कर-करके वोटिंग की अपील करते रहे ताकि इन महारथियों में उनका भी नाम शुमार हो सके. इन वरिष्ठों ने कार्यक्रम की हवा निकालकर ये संदेश दिया है कि सारी हवा किसी एक संस्थान में ही मत भरो, कुछ पल्स पोलियो जैसे सामाजिक काम के गुब्बारे में भी भरने के लिए बचा रहने दो.