अपने देश में राजनीति ने काम करने का बड़ा दिलचस्प तरीका अख्तियार कर लिया है, दुर्भाग्य यह है कि अब हम मीडिया वाले भी उसी पैटर्न को फॉलो करने लगे हैं। सिर्फ कारपोरेट मीडिया नहीं, सोशल मीडिया का भी वही हाल है। दुर्भाग्य यह है कि नया मीडिया के नाम पर जो पोर्टल शुरू हुए हैं, उनका भी यही हाल है।
अब जैसे देखिये, बिहार के फरकिया इलाके में पुल को लेकर जो आंदोलन चल रहा है वैसा आंदोलन लंबे समय से मैंने तो बिहार में होता नहीं देखा है। मगर आपको इसकी चर्चा राजधानी पटना में कहीं सुनाई नहीं पड़ेगी। न मीडिया में, न प्रतिपक्ष में। सरकार तो खैर चाहती ही है कि इस मसले पर कम से कम चर्चा हो। विधानसभा चल रही है और विपक्ष मोदी के अपमान का प्रतिशोध लेने पर आमादा है। उसे इसके अलावा कोई मुद्दा नजर नहीं आ रहा।
12 दिन से 50 लोग अनशन पर बैठे हैं। धरना स्थल पर ही उनको स्लाइन चढ़ाई जा रही है। कल कई किमी लंबी मानव श्रृंखला बनी। मगर विपक्ष के लिये यह इतना बड़ा मुद्दा भी नहीं है कि विधानसभा में सरकार से सवाल पूछा जा सके। बीजेपी के कुछ नेता जरूर धरना स्थल पर तीर्थयात्रा करके आ गये हैं। सांसद महोदय ने मंच से कुछ राजनीतिक टिप्पणियां कर दी हैं। मगर उनके लोग राजधानी पटना इस सवाल को उठाने के लिये तैयार नहीं है। उनके लिये मोदी की इज्जत सबसे बड़ा सवाल है, जैसे पिछले राज में सोनिया और राहुल की इज्जत कांग्रेस के लिये सर्वोपरि हुआ करती थी। बांकी मुद्दे भांड में जाएँ।
साथियों को बुरा लगेगा, मगर यह भी कम दुखद तथ्य नहीं है कि यह खबर अब तक पटना के अखबारों में जगह नहीं बना पाई है। दरअसल, यह सिर्फ मीडिया या विपक्ष का दोष नहीं है। दोष राजनीति के नये पैटर्न का है। अब जरूरी मुद्दों पर बहस की गुंजाइश न्यूनतम हो गयी है। अब केवल अस्मितावादी मुद्दे बहस के लिये उछाले जाते हैं। देश, धर्म, जात और व्यक्तिगत अस्मिता का सवाल अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। रोजी रोजगार, शिक्षा, सेहत और मूलभूत सुविधाओं का सवाल गौण हो गया है।
तभी विपक्ष को भी सरकार को कटघड़े में खड़ा करने के लिये ऐसे ही मुद्दे मिलते हैं। आप पिछले दो साल के सोशल मीडिया ट्रेंडिंग को देखिये, ज्यादातर ट्रेंडिंग इन्हीं मसलों पर हैं। अभी sbi ने आमलोगों की जेब ढीली करने का काला नियम लागू किया है, मगर वह मुद्दा उठते ही धराशायी हो गया।
वस्तुतः यह राजनीतिक दलों की अपनी सुविधा है। आर्थिक मुद्दों पर सभी पार्टियां एकमत हैं। सब्सिडी खत्म करना है, जनता से हर सेवा की कीमत वसूल करना है, हर सरकारी सेवा को बाजार के हवाले कर देना है। तभी आर्थिक विकास की दर में बढ़ोत्तरी होगी। इस मुद्दे पर मोदी और मनमोहन में इतना ही फर्क है कि मनमोहन इसे लागू नहीं कर पाए, मोदी आसानी से लागू कर ले रहे हैं। क्योंकि उनके पीछे समर्थकों की फ़ौज है। इसलिये इन मुद्दों पर बहस को भरसक टाला जाता है।
दुःखद यह है कि देश का मीडिया और सोशल मीडिया भी इसी ट्रैप में फंसा है। वह समझता है कि वह कन्हैया से लेकर गुरमेहर तक जैसे मसले खड़े कर इस भ्रम में रहता है कि वह सरकार का विरोध कर रहा है। जबकि सरकार जो फैसले कर रही है, खास तौर पर आर्थिक उसमें उसे कहीं कोई परेशानी नहीं आ रही। फरकिया के पुल के सवाल भी इसी तरह हवा में उड़ जा रहे हैं। यह इकलौता मसला नहीं है। देश में ऐसी सैकड़ों लड़ाईयां चल रही हैं, जिन्हें कोई नोटिस लेने वाला नहीं है। वे भी नहीं जो खुद को जन पक्षधर होने का दावा करते हैं।
(वरिष्ठ पत्रकार पुष्य मित्र के फेसबुक वॉल से साभार)