मीडिया मामलों के विशेषज्ञ विनीत कुमार की कुंभ मेले से संबंधित तीन टिप्पणियाँ : प्लीज, दीपक चौरसिया,पुण्य प्रसून वाजपेयी और राणा यशवंत जैसे मीडियाकर्मियों के सरोकार पर सवाल मत उठाइए. आप इससे ज्यादा सरोकार क्या चाहते हैं कि जहां बाकी मीडियाकर्मी या तो प्रयाग जाकर या फिर डेस्क पर पैकेज बनाकर मकर सक्रांति में अपने पाप धो रहे हैं, ये सारे चेहरे जेसिका लाल हत्यारे के चैनल पर लगे कलंक धोने जा रहे हैं. मीडियाकर्मी हमेशा दूसरों के सरोकार की चिंता करता है.
कुंभ मेले की कवरेज के बहाने न्यूज चैनलों की धर्म,पाखंड और अंधविश्वास के प्रति आस्था अपने चरम पर है. जो मीडियाकर्मी कवरेज के बहाने प्रयाग में डुबकी लगाने से रह गए हैं, नोएडा फिल्म सिटी की डेस्क पर बैठकर जितने पाप धो सकते हैं, पैकेज बना-बनाकर धो रहे हैं. लग रहा है, अगर ये धर्म बचेगा नहीं तो वो जीकर क्या करेंगे ? वो इस देश में विवेक को, संवेदना को, बराबरी औऱ अस्मिता को ध्वस्त होते हुए आराम से देख सकते हैं लेकिन पाखंड को कभी नहीं.
अगर ये खत्म हो जाएगा तो रात में श्रीयंत्रम,लक्ष्मी की लॉकेट, गंडे-ताबीज कैसे बेच सकेंगे ? अब बताइए न अगर आजतक ये कहता है कि एक डुबकी लगाते ही आंखों में पाप धुल जाने का एक आत्मविश्वास साफ दिखाई देने लगता है. पैकेज की भाषा ऐसी कि अच्छे से अच्छी पीआर कंपनी शर्मा जाए. वो लच्छेदार जुबान कि एक से एक लफंदर को रस्क होने लग जाए.
महाकुंभ कवरेज का सबसे बड़ा सुख है कि शाम ढलते ही देर रात तक जब मीडियाकर्मी रसरंजन करते हैं, तब भी वो धर्म और पत्रकारिता का ही हिस्सा बन जाता है. लगता नहीं कि कुछ अस्वाभाविक है. इससे रमणीय जगह क्या हो सकती है कवरेज की, जहां धर्म भी चट्टान की तरह खड़ा रहे और पत्रकारिता का पताका भी लहराता रहे. है न ?
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