जस्टिस काटजू का चुप रहना भी अखरता है और बोलना भी. प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया उनके राज में जिस तरह से चर्चा के केंद्र में आया है, उतना इससे पहले शायद कभी नहीं हुआ. वे अक्सर गलत समय पर गलत बात कह देते हैं और फिर बेलगाम आलोचना के शिकार बनते हैं. पिछले साल उन्हें पत्रकारों की शैक्षणिक योग्यता याद आयी और पत्रकारों ने उन्हें जम कर आड़े हाथों भी लिया. लेकिन कुछ ही महीनों बाद जस्टिस काटजू के मन में चिपका हुआ पत्रकारों के शैक्षणिक स्तर का मलाल फिर से बाहर आ गया है.
इस बार जस्टिस काटजू ने यह कहा है कि पत्रकारों की न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता तय होनी चाहिए और उनके शैक्षणिक स्तर के नियामक भी तय होने चाहिए. इस सिलसिले में उन्होंने एक तीन सदस्यीय कमिटी का गठन कर दिया है और उससे सलाह मांगी है कि प्रेस काउंसिल किस तरह से मीडिया पढ़ानेवाले संस्थानों और विभागों में शिक्षा का उच्च स्तर तय करने में मदद कर सकता है. काटजू मानते हैं कि कम पढ़े-लिखे पत्रकारों की जमात मीडिया में नकारात्मक प्रभाव की वजह बन रही है और खबर का स्तर लगातार घट रहा है. उन्होंने यह भी कहा है कि देशभर में पत्रकारिता पढ़ानेवाले संस्थान जितनी तेजी से फैले हैं, उतनी ही कड़ाई से उन पर नजर रखे जाने और उनके पर नियंत्रण रखने की जरूरत है. अपनी बात के तर्क में उन्होंने कहा है कि प्रेस काउंसिल एक्ट की धारा -13 के तहत काउंसिल को पत्रकारिता संस्थानों को नियंत्रण में रखने और उन्हें सुझाव देने का पूरा अधिकार है.
अगर ध्यान से देखा जाये, तो काटजू ने इसी बहाने प्रेस काउंसिल को कुछ तीखे दांत पा दिला देने की कोशिश की है. अभी कुछ ही दिन पहले उन्होंने केंद्र सरकार से आग्रह किया था कि सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को प्रेस काउंसिल के अधीन लाया जाये और उसका नया नाम रखा जाये- द मीडिया काउंसिल.
काटजू बयान देने के आदी हैं. कुछ दिन चुप रहते हैं तो आशंका होती है कि चुप्पी टूटी और फिर मीडिया पर कोई गाज गिरी. इसमें कोई शक नहीं है कि पत्रकारिता गंभीरता, शालीनता और मर्यादा की मांग करता है और उसके लिए पत्रकार का शिक्षित होना भी जरूरी है. शक यह भी नहीं कि कई मिसालें ऐसी हैं जिन्होंने अपरिपक्व या नकारात्मक पत्रकारिता के मुद्दे पर सोचने को मजबूर भी किया है पर उसे अकेले डिग्रियों से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। पत्रकारिता के बहुत सारे गुर मैदान में उतर कर ही सीखे जाते हैं. भारतीय पत्रकारिता में जिन नामों को हम शीर्ष पर देख रहे हैं, उनमें प्रणव रॉय के अलावा बहुत ही कम ऐसे हैं, जिन्होंने पीएच-डी की हो. विनोद मेहता बीए फेल हैं. और विदेश से पढ़ कर आयीं बरखा दत्त अब भी मानती हैं कि पत्रकारिता की भारी डिग्रियां पा लेने से ही पत्रकारिता स्तरीय हो जाये, ऐसा जरूरी नहीं.
अब एक सवाल और उठता है – भारतीय संसद में ऐसे कई सांसद मौजूद हैं, जिनकी प्राथमिक शिक्षा ही बमुश्किल से पूरी हुई है. डिग्रियों के स्तर पर दुबली सेहत के बायोडाटा वाले लोग भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक बन चुके हैं. खुद राष्ट्रपिता की शैक्षिक योग्यता बहुत चमकदार नहीं थी.
तो मिसालें कई हैं. लेकिन इन मिसालों पर मिसाइल अटैक करने के लिए उस जमाने में एक ही कमी थी और वह यह कि उस समय जस्टिस काटजू कहीं नहीं थे.
प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया का गठन पत्रकारों की रक्षा के लिए किया गया था. जस्टिस काटजू के बयानों से ऐसा लगता है कि वे भूल गये हैं कि उनका असल काम है क्या? अब उन्हें याद कौन दिलाये. और उससे भी बड़ा सवाल यह है कि जिस पत्रकार से वैसे भी किसी को हमदर्दी, नहीं वह जाये, तो जाये कहां?
(डॉ. वर्तिका नंदा लेडी श्रीराम कॉलेज के पत्रकारिता विभाग में अध्यापन कार्य कर रही हैं. टेलीविजन पत्रकारिता का लंबा अनुभव है. पत्रकारिता पर इनकी कई किताबें आ चुकी है )
SATIK AAKLAN[ 🙂
right
there are many institution who give bachelors and masters degree in mass communication and journalism there should be a unique ans same syllabus at national level consisting of international relation , law , sociology , literatureto make journalist aware of all things
there are many institution who give bachelors and masters degree in mass communication and journalism there should be a unique ans same syllabus at national level consisting of international relation , law , sociology , literatureto make journalist aware of all things
काटजू जी ने जो बात उठायी (पत्रकारिता में शैक्षणिक योग्यता की)…वो बात तो हर मीडिया हाउस वाला पहले से ही करता रहा है ! बायोडाटा में जर्नलिज्म की डिग्री को प्राथमिकता हर चैनल वाला देता है ! हर मीडिया हाउस ग्रैजुएट की डिग्री माँगता है ! बहुत कम ऐसे समझदार पत्रकार हैं , जो समझते हैं कि पत्रकारिता को डिग्री से नहीं साधा जा सकता ! पर मीडिया हाउस वाले सालों से इसी कसौटी पर साध रहे हैं , ऐसे में काटजू जी ने वही बात दोहरा दी तो क्या गुनाह कर दिया ?