कांग्रेस के विस्तार को समझने के लिए डिजाइनर पत्रकारों को न्यूज़रूम से निकलना होगा
अभय सिंह,राजनैतिक विश्लेषक –
दिल्ली के चमचमाते हुए न्यूज़ रूम में बैठे एंकर,पत्रकार,विश्लेषक जब देश में वैकल्पिक राजनीति का ढोल पीटते हैं तो मुझे उनकी समझ,विश्लेषण पर तरस आता है ।लगातार हारती,कमजोर होती कांग्रेस को आखिर वो समझते क्या हैं?
बीजेपी जैसी ताकतवर पार्टी भी देश में कांग्रेस जैसा विस्तार पाने के लिए लगातार जूझ रही है।कम से कम इन सभी को एक बार कश्मीर से कन्याकुमारी या गुजरात से पूर्वोत्तर तक देश भ्रमण जरूर करना चाहिए ताकि उन्हें ये समझ में आ सके कि कांग्रेस की राजनीतिक जड़े आज भी देश में कितनी गहरी और मजबूत है।देश का कोई हिस्सा नहीं जहाँ कांग्रेस ने सरकारे न बनायी हो ।आज भी देश के कई बड़े राज्यों में कांग्रेस मुख्य प्रतिद्वंद्वी है। 2014 लोकसभा चुनाव में बुरी हार के बाद भी बीजेपी छोड़ देश का कोई राजनीतिक दल कांग्रेस को पीछे नहीं छोड़ पाया और न ही भविष्य में किसी वैकल्पिक राजनीति के द्वारा ऐसा कर पाना संभव होगा। वैकल्पिक राजनीति की कठिन संभावनाओ के कारणों पर गहराई से विचार करना आवश्यक होगा. इसके लिए पहले देश की विविधता को गहराई से समझने की जरूरत है कि जहाँ हर दूसरे राज्य में अलग भाषा,सांस्कृतिक भिन्नता पायी जाती है। ऐसी स्थिति में किसी राज्य या भाषा विशेष से जुड़े दल को दूसरे भिन्न राज्यो में अपनी मजबूत पैठ बनाना बेहद कठिन साबित होता है. उदाहरण के तौर पर बीजेपी का बंगाल,केरल,तमिलनाडु , तेलंगाना जैसे राज्यों में अनेक कोशिश के बाद भी पैठ बनाना मुश्किल साबित हुआ है।जबकि कांग्रेस की इन राज्यों में भी मजबूत उपस्थिति दर्ज है।
वर्तमान में नीतीश कुमार सबसे मजबूत विकल्प के रूप में उभरने की कोशिश में लगे है और इसी कोशिश के तहत वे पार्टी को अखिल भारतीय स्वरूप देना चाहते है लेकिन उनकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा खुद उनके सहयोगी लालू है। नीतीश की ढलती उम्र, विस्तार के लिए संसाधनों की भारी कमी,प्रिंट ,इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से बढ़ती दूरी,बिहार में लालू का बढ़ता हस्तक्षेप,अनेक क्षेत्रीय क्षत्रपो की तुलना में उनकी कमजोर स्थिति उनके विकल्प के रूप में उभरने की सम्भावना को समाप्त कर देती है।आज वे दिल्ली में एमसीडी चुनाव लड़ने के लिए प्रयासरत है जहाँ उनका फोकस बिहारी वोटरों पर है।
दिल्ली में कांग्रेस के भ्रष्टाचार के खिलाफ 2011 में रामलीला मैदान में अन्ना हज़ारे के अनशन ने सत्ता को जड़ से हिला दिया ।अपार जनसमर्थन मिलने के फलस्वरूप दिल्ली में एक नयी उम्मीद से वैकल्पिक राजनीति की उत्पत्ति हुई । शुरुआत में दिल्ली में मिली अपार चुनावी सफलता से आप संयोजक केजरीवाल को भी वैकल्पिक राजनीति का मजबूत दावेदार माना जा रहा था लेकिन उनकी निजी महत्वकांक्षा,काम की बजाय गाली-गलौच संस्कृति बढ़ावा देने एवं पंजाब,गोवा,दिल्ली उपचुनाव में उनकी करारी हार के बाद दिल्ली की मीडिया को आज अपनी भूल का एहसास हो चूका है उन्हें ये समझ में आ गया है की दिल्ली में रोज का ड्रामा सस्ते में टीआरपी तो दे सकता है लेकिन राजनीतिक विकल्प तो बिलकुल नहीं ।
-दिल्ली में केजरीवाल की नकारात्मक,स्तरहीन,झगड़ालू, राजनीति ने जनता की उम्मीदों पर पानी फेर दिया।आज उन पर मानहानि के इतने मुकदमे दर्ज है की उनका अधिकांश समय,ऊर्जा उसी में खप रहा है।दिल्ली का दुर्भाग्य तो देखिये कि उनका सेवक अपने निजी पापों को धोने के लिए जनता के पैसों का उपयोग करने में बिलकुल नहीं झिझकता।आज
जनता की सेवा की बजाय उनका पूरा ध्यान महंगी गाड़ियों, वेतन बढ़ोत्तरी,बंगले बांटने,सरकारी खर्च पर विदेश यात्रा,1 करोड़ के समोसे,10 हजार की थाली,फर्जी नियुक्तिया,फर्जी डिग्री,सेक्स स्कैंडल, मंत्री के हवाला कारोबार,
520 करोड़ खुद के प्रचार के लिए फूंकना,मोहल्ला क्लीनिक के बहाने सरकारी धन का अपव्यय जैसे अनगिनत कारनामो ने उनको जनता की नजरों से पूरी तरह गिरा दिया है। बेहतर यही होता कि वे नीतीश कुमार से कुछ सुशासन का पाठ सीखते ।
दूसरी बात वैकल्पिक राजनीति के उभार के लिए दिल्ली जैसे केंद्रशासित राज्य में सरकार बनाना केजरीवाल का सबसे बचकाना और बुरा निर्णय साबित हुआ क्योकि क़ानून व्यवस्था पुलिस, भूमि,ट्रान्सफर,पोस्टिंग,नियुक्तियो , एसीबी,जैसे महत्वपूर्ण अधिकार केंद्र और एलजी को संविधान द्वारा प्रदत्त है न की दिल्ली की चुनी हुई सरकार को।इसी कारण उन्हें दिल्ली छोड़ कर पंजाब भागने की बहुत जल्दी थी।
दिल्ली देश की राजधानी होने के साथ सबसे विकसित शहरों में है इसलिए यहाँ सरकारों के पास उतनी चुनौती नहीं है जितनी की यूपी , बिहार जैसे गरीब,अविकसित राज्यो में है ।अगर वैकल्पिक राजनीति करनी है तो पिछड़े,गरीब राज्यों में विकाश का बेहतरीन माडल प्रस्तुत करना होगा और उसी को केंद्र में रखकर देश के सामने अपनी वैकल्पिक दावेदारी को मजबूती से रखना चाहिए।लेकिन लगातार हार,सीमित संसाधन, पार्टी की कमजोर आर्थिक स्थिति ,कार्यकर्ताओ में निराशा असन्तोष की स्थिति ने उनकी सम्भावनाओ पर गहरा वज्रपात किया है।
ये बात बिलकुल सही है की राहुल गांधी कांग्रेस की सबसे कमजोर कड़ी है लेकिन पंजाब,गोवा, मणिपुर ,दिल्ली उपचुनाव में बेहतर प्रदर्शन ने उनके कार्यकर्ताओ में बेहतर करने की उम्मीद जगाई है। एक बात गौर करने की जरूर है की जहाँ-जहाँ कांग्रेस का उभार हो रहा है वहाँ “आप पार्टी” खत्म हो रही है।राजौरी गार्डन सीट पर आप के अधिकांश वोट कांग्रेस को ट्रान्सफर हुए। आने वाले एमसीडी चुनाव में बीजेपी कांग्रेस में सीधी टक्कर होगी एवम् आप की और दुर्गति होना तय है।इसका सीधा अर्थ है कि कांग्रेस की वापसी ने विकल्प की सम्भावना को धूमिल कर दिया ।
आज भी कांग्रेस में देश के सबसे बेहतरीन अर्थशास्त्री, वकील चिंतक,विशेषज्ञ,डिप्लोमेट मौजूद हैं जिनके काम का लोहा पूरी दुनिया मानती है।बीजेपी आज इन्ही प्रतिभाओ की भारी कमी से जूझ रही है।यूएन में भारत का लोहा मनवाने वाले शशि थरूर पर बीजेपी का झुकाव इस बात को पुख्ता करता है। कुल-मिलाकर मौजूदा दौर में कांग्रेस का विकल्प बनना दूर की कौड़ी है यह अल्पकालिक तौर पर भले ही मजबूत लगे लेकिन लंबे समय तक ऐसा होना सम्भव नहीं है।