कुलदीप कुमार
सत्ता चाहे धन की हो या ताकत की, अक्सर उसके मद में अच्छे-अच्छे समझदार लोग अपना संतुलन खो बैठते हैं। पिछले अनेक वर्षों से देखने में आ रहा है कि जैसे ही कोई व्यक्ति प्रेस काउंसिल का अध्यक्ष या सूचना एवं प्रसारण मंत्री बना, वह मीडिया को भाषण पिलाना शुरू कर देता है।
सर्वोच्च न्यायालय के अवकाशप्राप्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू काफी समय तक इस बीमारी से ग्रस्त रहे और मीडिया पर लगाम कसने की नई-नई योजनाएं पेश करते रहे। अब वे कुछ शांत हुए हैं तो सूचना एवं प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी शुरू हो गए हैं। वे खुद वकील हैं, इसलिए चाहते हैं कि केवल वही व्यक्ति पत्रकारिता करने के योग्य माना जाए, जो वकीलों की तरह परीक्षा में बैठे और उसमें उत्तीर्ण होकर पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश की अर्हता अर्जित करे।
यह इस देश का दुर्भाग्य है कि यहां राजनेता बनने और केंद्रीय मंत्रिमंडल में स्थान पाने के लिए किसी योग्यता की जरूरत नहीं है और अक्सर ऐसे लोगों के हाथों में मंत्रालयों की बागडोर थमा दी जाती है, जिन्हें उस मंत्रालय के विशिष्ट चरित्र और जरूरतों के बारे में कुछ भी पता नहीं होता। इनके लिए किसी परीक्षा की जरूरत नहीं है। जिसने कभी साइकिल भी न चलाई हो वह नागरिक उड्डयन मंत्री बन सकता है और जिसे रिवॉल्वर और पिस्तौल का फर्क पता न हो वह देश का रक्षामंत्री। राजनेता तो हर विषय में पारंगत हैं, बस पत्रकारों की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए परीक्षा जरूरी है!
मनीष तिवारी से पूछा जाए कि अलग से परीक्षा पास करना तो छोड़िए, इस देश में जितने नामी पत्रकार हुए या आज हैं, उनमें से कितनों ने पत्रकारिता की पढ़ाई भी की है? क्या फ्रेंक मोरेस और अरुण शौरी पत्रकारिता का कोर्स करके और फिर अलग से परीक्षा पास करके इस क्षेत्र में आए थे? या शामलाल, गिरिलाल जैन, राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी, खुशवंत सिंह और विनोद मेहता? तर्क दिया जा सकता है कि तब की परिस्थिति और थी, अब की और है।
फिर यह तर्क तो राजनेताओं पर भी लागू होता है। आज के और नेहरू युग के नेताओं के बीच जमीन-आसमान का अंतर है- लगभग उतना ही जितना राममनोहर लोहिया और मुलायम सिंह यादव में। तो फिर चुनाव में खड़े होने वाले व्यक्ति की राजनीतिशास्त्र में परीक्षा क्यों न ली जाए? क्यों न यह सुनिश्चित किया जाए कि इस व्यक्ति को लोकतंत्र, विधानसभा या संसद का अर्थ और उनकी भूमिका के बारे में कुछ पता भी है या नहीं? लेकिन राजनेता तो यह बंदिश भी मानने को तैयार नहीं कि अगर उन पर किसी आपराधिक मामले में अदालत द्वारा दोष सिद्ध हो जाए और सजा सुना दी जाए, तब उनकी विधानमंडल या संसद की सदस्यता खत्म कर दी जाए।
दरअसल, मीडिया की गुणवत्ता की चिंता उन्हीं को होती है, जिन्हें उस पर अंकुश लगाने की जरूरत महसूस होती है। इस मामले में विचारधारा का कोई महत्त्व नहीं है, सत्ता का है। जो भी सत्ता में है, और मीडिया द्वारा जांच- पड़ताल और आलोचना किए जाने के कारण परेशानी में है, उसे मीडिया की गुणवत्ता की चिंता सताने लगती है। आज मनमोहन सिंह सरकार किस मुश्किल में फंसी है, यह सबके सामने है। प्रधानमंत्री बहुत दिनों तक व्यक्तिगत ईमानदारी की ढाल का इस्तेमाल करके बच नहीं पाएंगे। देश को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि प्रधानमंत्री ने अपने लिए पैसा नहीं बनाया। अगर उनके कोयला मंत्रालय का कार्यभार संभालने के दौरान घोटाला हुआ, तो उसकी जिम्मेदारी सीधे-सीधे उनकी बनती है। यों भी हमारी संसदीय प्रणाली में मंत्रिमंडल की सामूहिक जिम्मेदारी होती है। यही कारण है कि संसद में अगर कोई मंत्री उपस्थित नहीं है, तो उसके मंत्रालय से संबंधित सवालों का जवाब कोई भी अन्य मंत्री दे सकता है। अगर किसी सरकार के कार्यकाल में भ्रष्टाचार होता है, तो उसके लिए सबसे अधिक जिम्मेदार प्रधानमंत्री ही माने जाएंगे। आज स्थिति यह है कि सबसे ईमानदार प्रधानमंत्री के कार्यकाल में सबसे अधिक भ्रष्टाचार हुआ है। मीडिया ने सजगता न दिखाई होती तो 2-जी घोटाला सामने ही न आ पाता। जब यह घोटाला एक विस्फोट के रूप में प्रकट हुआ, उससे एक वर्ष पहले से उसके बारे में खबरें छप रही थीं, लेकिन उन पर समुचित ध्यान नहीं दिया जा रहा था।
दिल्ली में बलात्कार हो या मुंबई में, मीडिया में उसे और उसके खिलाफ हुए विरोध को जैसी व्यापक कवरेज मिली है वह अपने आप में एक मिसाल और इस बात का प्रमाण है कि भारत का मीडिया किसी भी लोकतांत्रिक देश के मीडिया से कमतर नहीं है। इस मीडिया में कार्यरत पत्रकारों की गुणवत्ता पर न न्यायमूर्ति काटजू को भरोसा है और न ही मनीष तिवारी को! पत्रकार भी इसी समाज का अंग हैं। वे इस समाज की बुराइयों से अछूते नहीं रह सकते। लेकिन यह बात समाज के सभी तबकों पर लागू होती है। मनीष तिवारी वकील हैं और राजनेता भी। कौन नहीं जानता कि वकील और राजनेता कैसा आचरण करते हैं? निचली अदालतों में जाकर कोई भी देख सकता है कि वहां इंसाफ की तराजू को कैसे इधर से उधर झुकाया जाता है। राजनेताओं का हाल तो सबके सामने है। तो क्या यह मान लें कि सारे वकील और नेता भ्रष्ट हैं? अगर ऐसा होता, तो यह व्यवस्था और देश चल ही नहीं सकता था। यह देश और इसकी व्यवस्था चल ही इसलिए रही है कि आज भी हर जगह, हर तबके और हर व्यवसाय में ईमानदार और निष्ठावान लोग मौजूद हैं।
मनीष तिवारी को शायद पता हो कि युद्ध के मोर्चे से रिपोर्ट करते हुए अनेक पत्रकारों ने जान गंवाई है। इसी तरह सांप्रदायिक हिंसा की रिपोर्टिंग करते समय भी बहुत सारे पत्रकारों ने चोटें खाई हैं। 6 दिसंबर, 1992 को जब अयोध्या में बाबरी मस्जिद तोड़ी जा रही थी, उस समय पत्रकारों की पिटाई भी की जा रही थी, उनके कैमरे तोड़े जा रहे थे। मुंबई में जिस महिला फोटो-पत्रकार के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ है, वह पत्रकारिता के काम से ही उस स्थान पर गई थी। इतनी अग्नि-परीक्षाओं से गुजरने वाले पत्रकारों के लिए और किस परीक्षा की दरकार है?
मीडिया को भष्ट्र करने में नेताओं की भूमिका कुछ कम नही है। किसी भी कीमत पर मुनाफा कमाने की इच्छा रखने वाले मालिकों को संतुष्ट करने के लिए वे ही पेड न्यूज़ का प्रस्ताव पेश करते हैं या पेश्किये जाने पर स्वीकार करते हैं। सर्वसम्मत क़ानून है कि रिश्वत देने वाला भी उतना ही दोषी है जितना लेने वाला। फिर भी कई बार हमारी सहानुभूति रिश्वत देने वाले के साथ होती है क्योंकि अक्सर वह असहाय होता है। रिश्वत दिए बगैर उसका काम नही नहीं हो सकता- गैर कानूनी काम नहीं, सौ फीसद कानूनी काम। और अगर काम होगा भी, तो तब जब वह दफ्तरों में धक्के खा-खाकर बेदम हो चुका होगा। लेकिन पेड न्यूज़ के जरिए अपने विज्ञापनो को खबर की तरह छपवाने वाले नेता तो किसी भी दृष्टि से असहाय नहीं है। मनीष तिवारी की पार्टी के ही एक नेता , जो एक महत्वपूर्ण प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और अब दिवंगत हो चुके हैं, इस मामले में दोषी भी पाए गए थे। मार्कंडेय काटजू की निगाह में अधिकतर पत्रकार अनपढ़ हैं। वे चाहते हैं कि पत्रकारों को दर्शन, इतिहास, राजनीतिशास्त्र आदि विषयों का गहरा ज्ञान हो। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि अगर किसी पत्रकार- और पत्रकार ही क्या, यह बात तो सभी पर लागू होती है- को इन विषयों का गहरा ज्ञान हो तो उसके लेखन में और निखार आएगा। लेकिन यह ज्ञान होना अनिवार्य हो, ऐसा भी नहीं है। इस समय अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होने वाले अखबारों-पत्रिकाओं में जैसी रिपोर्टें और लेख छप रहे हैं, गुणवत्ता की दृष्टि से उन्हें दुनिया के किसी भी देश में छपने वाले अखबारों की सामग्री के समकक्ष रखा जा सकता है। हमारे टीवी चैनल भले बड़बोले और शोर-शराबे से भरे हों, लेकिन वे भी किसी मुद्दे पर रुख अपनाने में स्वतंत्रता का परिचय देते हैं। मनीष तिवारी और उन जैसे नेताओं को समझ लेना चाहिए कि मीडिया की गुणवत्ता में सुधार मीडियाकर्मी ही करेंगे। किसी परीक्षा के जरिए यह नहीं होने वाला।
(मूलतः जनसत्ता में प्रकाशित. जनसत्ता से साभार)