सुमीत ठाकुर
पत्रकारिता का क्षेत्र दिनों-दिन व्यापक होता जा रहा है और इसी के साथ पत्रकारिता के साथ जुड़े संस्थान भी और ज्यादा प्रोफेशनल होते जा रहे है. अगर पत्रकारिता विशुद्ध व्यापार है तो प्रोफेशनल होना कोई बुरा नहीं है. पर सबसे ज्यादा अखरने वाली बात ये है कि पत्रकारिता के नाम पर व्यापार किया जाता है और अभिव्यक्ति की आजादी का रोना भी रोया जाता है.
अब पत्रकारिता के क्षेत्र में फ्रेंचाइजी का मॉडल अपनाया जाने लगा है. इसका नफा-नुकसान का आंकलन आने वाले समय में ही बेहतर किया जा सकता है. पर मौजूदा समय का विश्लेषण करने पर लगता है कि फ्रेंचाइली मॉडल पत्रकारिता की शेष साख को भी खत्म कर देगा।
फ्रेंचाइजी मॉडल का सीधा अर्थ है कि कोई भी मीडिया संस्थान जो अखबार,समाचार पत्रिका या न्यूज चैनल चला रहा है,वो किसी राज्य,जिले या संभाग को किसी एक व्यक्ति या ग्रुप के हाथों सौंप देता है,जिसके एवज में उसे समझौते के मुताबिक एक निश्चित रकम मिलती है और संबंधित फ्रेंचाइजी समाचार,विज्ञापन,प्रसार,प्रसारण,नियुक्ति सभी में हस्तक्षेप का अधिकार रखता है.
चूंकि समझौता फ्रेचाइजी लेने वाले और मीडिया संस्थान के प्रबंधन के बीच होता है तो इसमें पत्रकार या दूसरे कर्मचारियों का हितों का कितना ध्यान रखा जाता होगा ये खुद ही समझा जा सकता है.
पत्रकारिता के मापदंडो का तो ख्याल ही छोड़ दीजिये. अपनी बेबाक पत्रकारिता के लिए अलग पहचान रखने और तहलका मचाने का दावा करने वाली समाचार पत्रिका ने छत्तीसगढ़ से फ्रेंचाइजी मॉडल का प्रयोग शुरू किया है.
तहलका को शुरूआती दौर में छत्तीसगढ़ में पहचान दिलाने वाले,सत्ता से सवाल पूछने का माद्दा रखऩे वाले प्रतिनिधि अब तक शायद इस्तीफा दे चुके हैं और अब रायपुर में एक ग्रुप को पत्रिका की जिम्मेदारी सौंपी गई हैं. अब सवाल ये है कि सरकार के खिलाफ लिखने का साहस क्यों और कैसे किया जाएगा.
ये तो हुई छत्तीसगढ़ की बात. मध्यप्रदेश में लगभग दो साल पहले एक समाचार समूह ने भी कुछ ऐसा ही प्रयोग किया था जब उसने जिला स्तर पर एक निश्चित रकम लेकर ब्यूरो बनाना शुरू किया था. अब ये समूह जल्द ही एक समाचार चैनल भी लॉंच करने वाला है. ब्यूरो बनने के लिए योग्यता का मापदंड सिर्फ वो सुरक्षा निधि हुआ करती थी जो जमा करने में सक्षम है वो जमा कर ब्यूरो बन सकता था. हालांकि ये प्रयोग उतना सफल नहीं हुआ जितने की अपेक्षा थी. लेकिन स्थानीय स्तर पर खबरों के चयन और प्रकाशन पर इसका असर देखा जा सकता था.
अब न्यूज चैनलों की बात..तो बड़े चैनलों को छोड़ दे तो प्रादेशिक स्तर पर शुरू होने वाले चैनल अपनी शुरूआत से ही फ्रेंचाइजी के मॉडल को अपनाने की जद्दोजहद में लगे होते है. कुछ माह पहले ग्वालियर से शुरू होने वाले एक चैनल में बातचीत के बुलाया गया. चैनल के कर्ता-धर्ता ने कहा कि प्रति लाख एक स्ट्रींगर से लेने होंगे. रायपुर में भी ब्यूरोशिप देनी है उसका लगभग 12 लाख रुपए लगेंगे. आप कर पाएंगे. मैने ये जॉब नहीं की. पर चैनल का अर्थशास्त्र समझने के लिए ये मुलाकात काफी थी.
चैनल के फ्रेंचाइजी मॉडल का सबसे बड़ा नुकसान उस जनता को भोगना पड़ता है जो विज्ञापन को भी समाचार मानकर देखता है. फ्रेंचाइजी होल्डर हेडलाइंस, खबरों की बनावट तक दखल देते है. मीडिया का माध्यम विज्ञापनदाताओं के पीआर एंजेसी में तब्दील हो जाता है. अगर आप नौकरी ही कर रहे है. इसके बाद कभी-कभी पत्रकार होने का भाव जब जागता है तो इस व्यवस्था से खीझ होती है.
बहरहाल मीडिया का फ्रेंचाइली मॉडल लोगों के जानने के मौलिक का अधिकार का हनन तो करता ही है साथ मीडियाकर्मियों के बुनियादी अधिकारों का भी छीनने के लिए इस्तेमाल किया जाता है.
फ्रेंचाइजी मॉडल कब तक चलेगा…और इसका क्या परिणाम होगा….इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है…..पर अनुमान लगाया जा सकता है,भड़ास निकाली जा सकती है…लेकिन नौकरी तो करनी ही है.
(लेखक 7 साल से पत्रकारिता में सक्रिय..अभी एक न्यूज चैनल में कार्यरत)