भारतीय सिनेमा को कान फिल्मोत्सव में एक पायदान और ऊपर जाना है

अजीत राय

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अजीत राय

भारतीय सिनेमा के लिए सचमुच यह खुशी की बात है कि दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित कान फिल्मोत्सव के अधिकारिक चयन में इस बार दो फिल्में प्रदर्शित की गई, गुरविंदर सिंह की पंजाबी फिल्म ‘चौथी कूट’ और नीरज घायवान की ‘मसान’। यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि लगभग सोलह साल बाद किसी भारतीय फिल्म को कान में पुरस्कार मिला। 68 वें कान फिल्मोत्सव में शिरकत के बाद वरिष्ठ फिल्म समीक्षक अजित राय की रपट:

यह याद करना जरूरी है कि ‘मसान’ हिंदी की दूसरी फिल्म है जिसे कान फिल्मोत्सव में मुख्य खंड में अवॉर्ड मिला है। प्रथम कान फिल्मोत्सव-1946 में चेतन आनंद की फिल्म ‘नीचा नगर’ को सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का अवॉर्ड मिला था। यों ‘मसान’ को दो पुरस्कार मिले हैं- ‘अन सर्टेन रिगार्ड’ खंड में ‘प्रॉमिसिंग फ्यूचर प्राइज’ के साथ फिल्म समीक्षकों के अंतरराष्ट्रीय संगठन का ‘इंटरनैशनल क्रिटिक्स प्राइज’ भी मिला। इस खुशी के बीच इस सचाई से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि अभी भी भारतीय सिनेमा को कान में एक पायदान और ऊपर जाना है। कान फिल्मोत्सव के सबसे प्रतिष्ठित प्रतियोगिता खंड में शाजी एन. करुण की मलयालम फिल्म ‘स्वहम्’ (1994) के बाद किसी भारतीय फिल्म को स्थान नहीं मिल पाया है। फिलहाल तो दशकों बाद एक साथ दो भारतीय फिल्मों के कान में प्रदर्शित होने का जश्न मनाने का वक्त है। ‘मसान’ नीरज की पहली फिल्म है और ‘चौथी कूट’ गुरविंदर सिंह की दूसरी फिल्म है। उनकी पहली फिल्म ‘अन्हा घोड़े दा दान’ को कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं। भारतीय सिनेमा के दो उभरते युवा फिल्मकारों का कान में जैसा स्वागत हुआ, वह अभूतपूर्व है।

भारतीय उपमहाद्वीप के लिए खुशी की बात यह भी है कि जिस फ्रेंच फिल्मकार की ‘दीपन’ को ‘पाम दि ओर’ यानी सर्वश्रेष्ठ फिल्म का अवॉर्ड मिला, उसके प्रमुख दो कलाकार- जेसुदासन एंटनीदासन और कालीश्वरी श्रीनिवासन श्रीलंका और चेन्नई के हैं। ‘दीपन’ के निर्देशक षाक ओदियार हैं जिन्हें पहले भी ‘पाम दि ओर’ मिल चुका है। यह एक पूर्व तमिल टाइगर की कहानी है जो श्रीलंका के जाफना से शुरू होकर चेन्नई होते हुए फ्रांस और इंग्लैंड तक जाती है। ताइवानी फिल्म ‘द असैसिन’ के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार पाने वाले चीन के हो शाऊ शेन फ्रेंच और अंग्रेजी नहीं जानते। उन्होंने अपना भाषण चीनी में दिया। ‘दीपन’ के दोनों प्रमुख कलाकारों ने भी तमिल का सहारा लिया। क्या गुरविंदर सिंह और नीरज घायवान से हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि वे उसी भाषा में दर्शकों से संवाद करें जिस भाषा में वे फिल्में बनाते हैं।

भारत की ‘मसान’ और ‘चौथी कूट’ पर थोड़ा ठहर कर, पहले उन फिल्मों पर बात करें जो कान में कई वजहों से चर्चा में रहीं। इतालवी फिल्मकार पाऊलो सोरेंटिनो की अंग्रेजी फिल्म ‘यूथ’ सबसे अधिक चर्चा में रही। अभी की रिपोर्ट बताती है कि पिछले हफ्ते फिल्म इटली में रेकॉर्ड 2.6 मिलियन यूरो कमा चुकी है। दो साल पहले सोरेंटिनो की ‘द ग्रेट ब्यूटी’ को ऑस्कर पुरस्कार मिल चुका है। फ्रेंच निर्देशक गास्पर नोए की ‘लव’ को देखने के लिए आधी रात के बाद भी हजारों दर्शक घंटों कतार में खड़े रहे। इस अंग्रेजी फिल्म में इतने खुले सेक्स दृश्य हैं जितने अब तक किसी फिल्म में नहीं देखे गए।

आसिफ कपाड़िय़ा की ब्रिटिश फिल्म ‘एमी’ एक जमाने की चर्चित जैज सिंगर पर केंद्रित है। यह फिल्म कई कारणों से विवादों में आ गई है। एमी के पिता ने आरोप लगाया है कि यह फिल्म दर्शकों को गुमराह कर सकती है। कान फिल्मोत्सव की नई पार्टनर बनी केरिंग फाउंडेशन ने ‘विमेन इन मोशन’ प्रोग्राम के तहत फिल्म उद्योग में औरतों की बराबरी का मुद्दा उठा दिया है। केरिंग का दावा है कि दुनियाभर में फिल्मोद्योग में औरतें आज भी हाशिए पर हैं। इस पहल का परिणाम है कि कान फिल्मोत्सव ने मुख्य पोस्टर पर ख्यात अभिनेत्री इंग्रिड बर्गमैन को छापा गया और उनकी बेटी इसाबेला रोसेलिनी को ‘अन सर्टेन रिगार्ड’ की जूरी का अध्यक्ष बनाया गया। साथ ही फ्रेंच न्यू वेव आंदोलन और स्त्रीवाद की मुखर फिल्मकार एग्नेस वार्दा (87) को मानद ‘पाम दि ओर’ (लाइफ टाइम अचीवमेंट) पुरस्कार से नवाजा। पूरे फेस्टिवल में सिनेमा में स्त्री और स्त्री सिनेमा पर जोरदार डिबेट होती रही।

लास्जलो नेमेस की हंगेरियन फिल्म ‘सन आफ सोल’ को फेस्टिवल की दूसरी सबसे महत्वपूर्ण फिल्म का ‘ग्रैंड प्रिक्स’ अवॉर्ड मिला। इस फिल्म को देखने के बाद कम-से-कम आधा घंटा सामान्य होने में लगता है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान एक नाजी बंदी शिविर में मार डाले गए दस बरस के अपने बेटे के अंतिम संस्कार के लिए पिता के दुघर्ष संघर्ष की कथा है यह। इतिहास के इस भयानक अध्याय के गैर पारंपरिक फिल्मांकन के लिए यह फिल्म हमेशा याद रहेगी।

‘मसान’ भारतीय सिनेमा में एक नया प्रस्थान है। अनुराग कश्यप के शिष्य होने के बावजूद जो चीज नीरज घायवान को अलग करती है, वह है ‘उम्मीद’। वे कला में जीवन की उम्मीद को बरकरार रखते हैं। कॉर्पोरेट की ऊंची नौकरी छोड़ ढाई साल अनुराग कश्यप के सहायक होने के बाद जिस पैशन से उन्होंने ‘मसान’ बनाई, वह काबिले-तारीफ है। परंपरा और आधुनिकता के बीच संस्कार करने वाले डोम परिवार से दीपक चौधरी जो पढ़-लिखकर आगे जाना चाहता है। फेसबुक के माध्यम से उसका इश्क ऊंची जाति की शालू गुप्ता से होता है। उधर, संस्कृत के रिटायर प्रोफेसर और घाट के पुजारी विद्याधर पाठक की बिन मां की इकलौती बेटी देवी पाठक अपने पहले प्रेमी के साथ होटल में पकड़ी जाती है। पुलिस के डर से उसका प्रेमी आत्महत्या कर लेता है। झोंटा नामक अनाथ बच्चा घाट पर बैठा बड़े सपने देखता है। चार चरित्र, चार दास्तानें… लेकिन फिल्म इतनी भर नहीं है। पूरी फिल्म बनारस की जिंदगी को रोमांटिक और आध्यात्मिक हुए बगैर यथार्थवादी ढंग से चलती है। शवों का दाह संस्कार कराने वाले परिवारों की जिंदगी से कर्मकांड कराने वाले पंडितों तक हम एक ताजा यथार्थ देखते हैं। संजय मिश्रा (विद्याधर पाठक), ऋचा चड्ढा (देवी पाठक), विक्की कौशल (दीपक चौधरी), निखिल साहनी (झोंटा) और विनीत कुमार (डोम) ने ऐसा काम किया है, जैसे ये सारे चरित्र उन्हीं के लिए बने हों। इस फिल्म को देखते हुए केदारनाथ सिंह की मशहूर कविता ‘बनारस’ की याद आना स्वाभाविक ही है:

इसी तरह भरता/और खाली होता है यह शहर/ इसी तरह रोज रोज एक अनंत शव/ ले जाते हैं कंधे/ अंधेरी गली से/ चमकती हुई गंगा की तरफ/ …यह आधा जल में है/ आधा मंत्र में/ आधा फूल में है/ आधा शव में/ आधी नींद में है/ आधा शंख में/ अगर ध्यान से देखो/ तो यह आधा है/ और आधा नहीं भी है…

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