अखिलेश कुमार
ऐसा टूटेगा मोह, एक दिन के भीतर, इस राग-रंग की पूरी बर्बादी होगी,
जब तक न देश के घर-घर में रेशम होगा, तब तक दिल्ली के भी तन पर खादी होगी।
रामधारी सिंह दिनकर की दिल्ली पर लिखी इन पंक्तियों का निहितार्थ न केवल दिल्ली की रंगीली सियासत को झकझोरती है बल्कि सामाजिक परिवेश में असमानतारुपी विकराल समस्या पर तीखा व्यंग्य भी करती है। दिनकर जी के उस राग-रंग की एक झलक देश के प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान, भारतीय जनसंचार संस्थान (आइआइएमसी) में देखने को मिलती है। 15 फरवरी को लाल रंग में रंगे आइआइएमसी परिसर में विकराल लोकतंत्र का विकलांग चौथा खंभा राग-रंग में नृत्य करता नजर आया। दरअसल बाजारबाद के नए चोर, मुनाफाखोर और दलालों की एक लॉबी ने एलूमिनॉय मीट के नाम पर देश के प्रतिष्ठित जन संस्थान को एनजीओ बनाने की जो पटकथा कुछेक साल पहले लिखी थी वह अब धीरे-धीरे चरमोत्कर्ष पर पहुंच रही है। इस रग-रंग नृत्य में वर्गसाथी रहे तथाकथित कई वामपंथी मित्रगण भी थे जो बाजारबाद की कब्र पर अपनी दमित इच्छा को सांत्वना देने के लिए राग-रंग में सराबोर हो रहे थे। ये वही लोग हैं, जो आइआइएमसी के कक्षा के दिनों में अपनी ढ़ोंगी आदर्शवादिता की पोटली को जेएनयू के गंगा ढ़ाबा से लेकर आइआइएमसी परिसर तक उड़ेलकर सूहानूभूति बटोरते रहते थे। खैर इन्हें छोड़िए, इनपर लिखना समय की बर्बादी है।
उल्लेखनीय है कि देश –दुनिया में पत्रकारिता के नए आयाम स्थापित हो रहे हैं, देश-दुनिया के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य में कई अप्रत्याशित बदलाव हो रहे हैं, ठीक उसी समय एक प्रतिष्ठित पत्रकारिता संस्थान में उद्यमी बनने का जश्न
मनाया जा रहा है। इस प्रकार के गंभीर सवाल, आइआइएमसी से पास हुए किसी भी छात्र को बार-बार सोचने के लिए मजबूर कर सकते हैं। एक ऐसा संस्थान जहां मीडिया इथिक्स से लेकर जनसरोकार वाली पत्रकारिता की घूंटी पिलाई जाती थी, आज वहां वही लोग एनजीओ के साथ हाथ में हाथ मिलाकर करतल ध्वनी पर डांस करते नजर आए। कितनी शर्म की बात है भारतीय जन संचार संस्थान में अब बाजारवाद के दलालों ने पनाह ले ली है।
सोशल मीडिया पर दौड़ती उन तस्वीरों को जब आप देखेंगे तो कई चीजें आपको सोचने के लिए मजबूर करेगी। छात्रों की भीड़ जुटाने के लिए कॉरपोरेट के दलालों ने भारत-पाक मैच के लिए आइआइएमसी परिसर में एलसीडी तक की व्यवस्था की थी। जरा सोचिए, राष्ट्रीय महत्व का दर्जा पाने की ललक में आइआइएमसी प्रशासन अभी भी सभी छात्रों के लिए हॉस्टल की सुविधा मुहैया कराने में दांत निपोर रहा है। दूसरी तरफ दलालों की लॉबी ने आइआइएमसी परिसर में ओबीवैन लगा दिया ताकि उनके हित सध जाए। ठीक वही लोग सालों से छात्रावास की मांग को लेकर मुख्यधारा की मीडिया में एक कॉलम तक नहीं लिख पाए, टेलीविजन पर ब्रेकिंग न्यूज तो दूर की बात है। शर्म अगर थोड़ी भी बची है तो डूबकर मर जाना चाहिए ऐसे दलाल पत्रकारों को। इतना कुछ होने के बाद भी संस्थान से पास हुए 1/5 छात्र भी इस राग-रंग नृत्य में नहीं पहुंच सके। दरअसल धीरे-धीरे सभी छात्र एलूमिनॉय मीट के पीछे की सभी कहानियों को समझने लगे हैं और छात्रों के एक बड़े समूह ने इससे दूरियां बना ली है।
सवाल है कि इसी संस्थान से पास होने वाले सैंकड़ों पत्रकारों ने इतिहास रचा है लेकिन उनकी चर्चा नहीं की जाती है। चित्रा सुब्रहण्यम जैसी पत्रकार जिसने बोफर्स कांड का पर्दाफाश किया था, वे इसी आइआइएमसी की थीं। चित्रा जैसी सैंकड़ों पत्रकारों की कहानियां गुमनाम है। वहीं बाजारवाद के दल्लों ने कैंपस में हुए प्यार की कहानी को अपना थीम बनाया। इसे ‘’कैंपस वाले कपल’’ की संज्ञा दी। लोगो को आकर्षित करने में पूरी जोर लगा दिया है। फिर भी नाकाम साबित हो रहे हैं। दस फीसद लोगो तक इनकी पहुंच नहीं हुई है। इससे तो अच्छा सरससलिल, फैशन, सरिता सहित दिल्ली प्रेस से छपने वाली पत्रिकाएं है जिनका एक सामाजिक मापदंड है। लेकिन एलूमिनॉय मीट के नाम पर इन दलालों का कोई नैतिक आधार नहीं बचा है।
मुनाफाखोर दलाल, हजारों किसानों की हत्यारीन कोकोकाला कंपनी, एसबीआई लोन सहित कई दम घोंटू इंश्योरेंस कंपनियों के बैनर तले तथाकथित एलूमिनॉय मीट की आड़ में पीआर कंपनी चलाने की होड़ में रात दिन लगे हैं। नाम नहीं बताने की शर्त पर, कुछ सीनियर मित्रों का कहना है कि वे फोन करते हैं कि वे अपना फेसबुक प्रोफाइल बदल कर उनके द्वारा प्रायोजित लोगो का इस्तेमाल करें लेकिन सैंकड़ों लोगो ने ऐसा नहीं किया।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि आइआइएमसी भारत सरकार की स्वायत संस्था है लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि आइआइएमसी प्रशासन अपनी स्वायत रुपी ताकत भूल चुका है। काफी फजीहत के बाद बेशर्म आइआइएमसी प्रशासन ने आशिंक रुप से छात्रावास की सुविधा मुहैया कराई है। (नोट-: फजीहत और बेशर्मी शब्दों का प्रयोग इसलिए किया गया है कि हाल ही में आशिंक रुप से छात्रावास के पहले से खाली कमरों को दिया गया, जिनकी मांग पहले बार-बार उठाई जा चुकी थी। सवाल है कि आंशिक रुप से ही सही, उस समय वही कमरे छात्रों को मिला होता तो इतनी फजीहत नहीं होती।) बहरहाल छात्रावास आंदोलन के लिए, प्रगतिशील लोहियावादी पत्रकार अभिषेक रंजन सिंह, राष्ट्रीय पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव के योगदान को भूला नहीं जा सकता है।
पत्रकारिता के ऑक्सफोर्ड जैसी तमाम उपमाओं से अलंकृत भारतीय जनसंचार संस्थान में जहां सभी छात्रों के लिए छात्रावास की समुचित व्यवस्था अभी तक नहीं हो पाई है वहीं अपने स्वार्थ को हवा देने के लिए पहली बार मुनाफाखोरों ने ओबीवैन का सहारा लिया फिर भी कैंपस में मायूसी दिखी। यहां तक बेशर्मी की हद को पार करते हुए इस पूरे मेलोड्रामा को कुछ टेलीविजन पर टॉप टेन में न्यूज बुलेटिन में चलवाया गया। इतना कुछ करने के बाद भी ढ़ाक के तीन पात। पत्रकारिता के गंगनम स्टाइल और डम-डम डिगा-डिगा करने वाले मुनाफाखोरों के मानस पटल पर सिर्फ मायुसी दिखी। कथा और भी हैं लेकिन हरि अनंत हरि कथा अनंता के इस एपीसोड में फिलहाल इतना ही।…….देखते रहिए राग-रंग का भैरवी डांस
(लेखक पत्रकार हैं)