बीबीसी हिंदी की पूर्व संपादक (ऑनलाइन) सलमा जैदी कहती हैं कि, “आईबीएन के वे साथी खामोश हैं जिनकी नौकरी गई है. वे इस समय क्या करें? उन सब को अभी कहीं –न- कहीं नौकरी करनी है. विद्रोह का बिगुल बजा कर अपनी छवि एक क्रांतिकारी पत्रकार की बना लें जिसे काम देते कोई भी मालिक घबराएगा.”
यदि सलमा जैदी की बात सही है तो इस तरीके से IBN7 के मैनेजिंग एडिटर आशुतोष और राजदीप सरदेसाई और उनकी चुप्पी को भी क्लीन चिट् दिया जा सकता है. अपने – अपने मोर्चे पर सबकी मजबूरियां हैं. बाज़ार, नौकरी, कॉर्पोरेट ढांचा…… ?
बहरहाल 350 पत्रकारों की नौकरी चली गयी.लेकिन विरोध में एक भी स्वर उनकी तरफ से नहीं गूंजा. उनके लिए आंदोलन हुआ और वे नहीं आए. ऐसा लगता है कि वे किसी बंद दरवाजे के भीतर कैद हो गए हैं और जहाँ जाकर उनकी लड़ने की ताकत खत्म हो गयी. सोशल मीडिया में इस बात को लेकर भी काफी बातचीत हो रही है. इसी मुद्दे पर पक्ष और विपक्ष में फेसबुक पर आयी कुछ टिप्पणियाँ.
सलमा जैदी : कई लोग इस बात पर एतराज़ कर रहे हैं कि आईबीएन के वे साथी खामोश हैं जिनकी नौकरी गई है. वे इस समय क्या करें? उन सब को अभी कहीं न कहीं नौकरी करनी है. विद्रोह का बिगुल बजा कर अपनी छवि एक क्रांतिकारी पत्रकार की बना लें जिसे काम देते कोई भी मालिक घबराएगा. दूर बैठ कर, दूसरों को नसीहत देना बहुत आसान है. उनकी विडंबना और उनके मन के संशय को कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है. उनकी लड़ाई उन्हें लड़नी है, जिन्हें नौकरी जाने का खतरा नहीं है. कृपया उन्हें इस आघात से उबरने दीजिए. उन्हें लाल झंडा उठाने को प्रेरित मत कीजिए. मेरी बात जिन्हें अनुचित लगे, कृपया मुझे बताएँ कि सही क़दम क्या होगा.
राकेश कुमार सिंह : सलमा जैदी जी उचित कदम तो यही होगा कि अन्याय के विरुद्ध भुक्तभोगी पत्रकार गुलदस्ता लेकर “ग़ाधीगिरी” करे। बच्चे की माँ भी बिना क्रांतिय कुलबुलाहट के दूध नहीं पिलाती। दरअसल यह क्रांति बीज हमारे पूर्वजो के रक्त से आई है डंके की चोट जैसे अनेक मीडिया बोध वाक्यों को हटवाने के लिए और कुछ खबरों के प्रारंभ में कहा जाता है जान पर खेल कर लायी गयी खबर सिर्फ हमारे न्यूज़ चिनाल पर/ एक जनहित याचिका कोर्ट में दाखिल कर देनी चाहिए । कम से कम क्रांति भावना को ख़तम न किया जाये डर के आगे जीत है। इस देश का दुर्भाग्य है आज जिसे कदम से कदम मिलाना चाहिए भविष्य भय कूप से डरवा रहे है। (बाअदब)
सुयश सुप्रभ #दिल्ली #विश्वविद्यालय के नब्बे प्रतिशत छात्रों ने बीए के कोर्स को स्तरहीन बनाने और इसमें अनावश्यक रूप से एक साल जोड़ने का विरोध किया है। क्या सीएनएन-आईबीएन के #पत्रकार इन छात्रों से कुछ सीखेंगे? #नौकरी सामाजिक चेतना की हत्या करने वाला हथियार बन गई है। ऐसी नौकरी गई भाड़ में जहाँ आप न अपनी भलाई के बारे में सोच सकते हैं न दूसरों की!
#हिंदी पट्टी में दलाली और गुलामी के कीटाणुओं ने तमाम विचारधाराओं के लिए मज़बूत प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ली है। जब तक पेट में थोड़ा-बहुत अन्न रहता है, तब तक यह कीटाणु यौवन की ऊर्जा के साथ शरीर और मन में इधर-उधर घूमता है। यह बात बड़े #मीडिया संस्थानों में काम कर रहे उन स्टार पत्रकारों पर भी लागू होती है जो मालिक के पट्टे को दिन में चार बार प्यार से चाटकर अपने बैंक बैलेंस को जीवन की अंतिम उपलब्धि के रूप में देखते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो मुंबई में छँटनी का विरोध करके अपनी #नौकरी वापस पाने वाले पत्रकारों की तुलना में यहाँ थोक के भाव में निकाल दिए गए #पत्रकार अपने ही हक के सवाल पर चुप नहीं बैठते। मजबूरी और लालच के बीच खाई जितना बड़ा अंतर नहीं होता। विवेक की एक छलांग भी इस अंतर को मिटाने के लिए काफ़ी होती है।